महिला दिवस से पहले दो खबरें सामने से गुजर रही हैं.. एक अहमदाबाद की आयशा की, जिसने साबरमती में कूद कर आत्महत्या कर ली, दूसरी हाथरस की जिसमें एक पिता को गोलियों से भून दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी से छेड़खानी करने वाले दरिंदों का विरोध किया था....
फिलहाल बात आयशा की ही.... एक ऑडियो क्लिप चल रहा है जिसमें आयशा के पिता गिड़गिड़ा रहे हैं, अपनी संतान को खो देने के डर से पिता की आवाज कांपती है वह संभलते हैं, फिर धमकी देते हैं... मैं कुछ कर लूंगा बेटा तू आजा.... देख तेरी अम्मी रो रही है, तू मेरी बात नहीं सुनेगी? कुरान शरीफ की कसम है तुझे, मैं भेजता हूं मोंटू को लेने.... देख बेटा तू गलत बात मत कर, मैं कल जालौर जाऊंगा सब ठीक कर दूंगा....
फफकती हुई आयशा का जवाब आता है, पर उससे क्या होगा पापा, आरिफ मुझको नहीं मिलेगा.... पिता फिर कहते हैं- बेटा मेरी बात तो सुन...देख तेरा नाम कितना पाकीजा है....तरह-तरह से बहलाते हैं.... पार्श्व से अम्मी की भी रूंधी आवाज आती है- बेटा अल्लाह पाक सबको देख रहा है, भरोसा रख.... जवाब हर बार यही कि------ नहीं मैं थक गई हूं... अपनी जिंदगी से परेशान हो गई हूं....लगता है दुनिया भर से सारे गम उस बच्ची के दामन में और पिता की आवाज में
समा गए हैं....
इन सब खबरों को जानते, सुनते और देखते हुए आप नहीं जानते कब एक नदी आपके गालों पर बहने लगती है। आपकी डबडबाई आंखें अपने आसपास की आयशा को खोजने लगती है... बात यहां धर्म की नहीं, आयशा या आशा की भी नहीं, एक स्त्री की है, एक जिंदगी की है, एक मासूम आत्मा की है.... हम इतने विवश क्यों है कि रास्ता ही नहीं बचता.... प्यार न मिलना क्या इतना बड़ा संताप है?
सच है कि यह अत्यंत दर्दनाक होगा, कि कोई शौहर अपनी बीवी के सामने अपनी प्रेमिका से बात करे, यह वाकई दिल चीर देने वाला पल होता है जब आपको अपने पति की आंखों में किसी और के लिए प्यार दिखाई दे...
लेकिन हम स्त्रियां खास मिट्टी की बनी होती हैं, हमें अपने वजूद को स्थापित करना आता है, आना ही चाहिए....हमें अपने विचार, सोच और आचरण की शुद्धता से, अपने नैतिक बल से और चरित्र की दृढ़ता से हालातों को अपने अनुकूल बनाना आता है, आना ही चाहिए....
क्यों हमें परवरिश में यह सिखाया जाता है कि सब ठीक हो जाएगा, क्यों नहीं ये बताया जाता कि जब तक हम खुद अपनी लड़ाई नहीं लड़ेंगे कुछ नहीं बदलने वाला... हम क्यों किसी का इंतजार करते हैं, क्यों हम किसी को अपनी जिंदगी से भी ज्यादा महत्व देते हैं? क्यों हमारे लिए किसी एक का प्यार इतना जरूरी हो जाता है कि किसी भी कीमत पर उसे ही पाना है... अगर वह न मिले तो हम बिखर जाते हैं...
क्या आयशा खुद के पास लौट सकती थीं? अपने आपसे मोहब्बत कर सकती थीं..?
इस समाज में आयशा हो या आशा, पल पल घुटने और मरने वाली बेटियां कम नहीं हैं... पर हमें उन सबकी मजबूरियों को समझना होगा। हमें धीरे धीरे बदलते समाज के बीच एक ऐसा परिवेश रचना होगा जहां बेटियों से सिर्फ सहने की उम्मीद नहीं की जाए बल्कि उसे अपनी बात कहने की हिम्मत दी जाए....
हाथरस में एक पिता अपनी बेटी की अस्मत के लिए लड़ता है और जान से हाथ धो बैठता है और अहमदाबाद में एक पिता अपनी बेटी को मरने से नहीं रोक पाता है और अंतत: खुद जीते जी मर जाता है.... बस एक छपाक की आवाज के साथ....