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Written By Author शरद सिंगी
Last Modified: रविवार, 19 नवंबर 2017 (22:38 IST)

सुदूरपूर्व की कूटनीति में संभावनाएं टटोलता भारत

सुदूरपूर्व की कूटनीति में संभावनाएं टटोलता भारत - ASEAN Conference
पिछले पखवाड़े में दक्षिण पूर्वी एशिया में विश्वस्तर के दो महत्वपूर्ण राजनीतिक सम्मेलन हुए जिनमें विश्व के प्रमुख नेताओं ने शिरकत की। एक था वियतनाम में एपेक देशों का सम्मेलन जो प्रशांत महासागर के किनारे बसे देशों का समूह है जिसका भारत सदस्य नहीं है और दूसरा फिलीपींस में आसिआन देशों का सम्मेलन जो दस दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों का संगठन है।
 
आसिआन के सदस्य देश हैं- सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस और ब्रूनई। यद्यपि भारत इसका भी सदस्य नहीं है, किंतु महत्वपूर्ण महाशक्तियों को विशेष आमंत्रितों या संवाद साझेदार के रूप में आमंत्रित किया जाता है जिनमे भारत, चीन, रूस और अमेरिका प्रमुख हैं। 
 
आसियान देशों का यह सम्मेलन फिलीपींस की राजधानी मनीला में था। फिलीपींस के वर्तमान राष्ट्रपति रोड्रिगो के बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं किस तरह वे ड्रग माफिया का सफया करने में लगे हैं और हजारों ड्रग विक्रेताओं का अपनी पुलिस द्वारा क़त्ल करवा चुके हैं। मानवाधिकार की बात करने वालों को वे ठेंगा दिखाते हैं और पोप हो या अमेरिका के राष्ट्रपति, उनके लिए अपशब्दों के इस्तेमाल से नहीं डरते। ऐसे मुंहफट राष्ट्रपति के देश में इतना बड़ा सम्मेलन आयोजित हो तो थोड़ी जिज्ञासा तो होती ही है कि यह व्यक्ति आगत अतिथियों से किस तरह पेश आएगा, किंतु जिस तरह से वे राष्ट्राध्यक्षों से मिले उससे तो वे बड़े हंसमुख, परिहास करने वाले और मिलनसार व्यक्ति दिखे। 
 
ऐसे विश्व सम्मेलनों में कुछ प्रमुख मुद्दों पर चर्चा तो होती ही है, किंतु विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच जो अनौपचारिक चर्चाएं होती हैं वे केक पर लगे मक्खन की तरह होती हैं जो इन सम्मेलनों को अधिक रोचक और कारगर बनाती हैं। जैसा हम जानते हैं कि आधिकारिक राजकीय यात्राओं और द्विपक्षीय चर्चाओं के दौरान दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों पर दबाव होता है अपने अपने देश के हित में जनता को परिणाम दिखाने का। 
 
यात्रा के अंत में साझा विज्ञप्ति बनाना भी एक टेढ़ी खीर होता है यदि महत्वपूर्ण मसौदों पर सहमति नहीं हुई हो या परिणाम अनुकूल न हों। और यदि दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच चर्चा हो रही हो तो यह दबाव कई गुना बढ़ जाता है। किन्तु विश्वस्तरीय सम्मेलनों में मन की बातें हो जाती हैं बहुत हल्के-फुल्के वातावरण में।  इन चर्चाओं का न तो समय निश्चित होता है और न ही कोई विषय। बस सामान्य शिष्टाचार होता है। भोजन के समय हाथ पकड़कर एक कोने में जाकर विश्व के महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दों पर चर्चा हो जाती है और सम्मति भी हो जाती है बाद में उन्हें औपचारिक रूप दे दिया जाता है। इन सम्मेलनों का वातावरण इतना अनौपचारिक, मनोविनोद और ऊर्जा भरा होता है जहां ये बड़े नेता आपस में बिना तनाव के गपशप कर सकते हैं, जहां परिणाम का दबाव नहीं होता जैसा कि औपचारिक यात्राओं और चर्चाओं में संभव नहीं होता है। 
 
इस यात्रा में मोदीजी ने पाकिस्तान को लक्ष्य रखकर आतंक का मुद्दा तो उठाया ही साथ ही एक दो मौकों पर चीन की आक्रामक नीतियों पर भी परोक्ष रूप से उंगली उठाई जो निश्चित ही इन आसियान देशों को भली लगी होंगी क्योंकि ये सब भी चीन की दादागिरी से आतंकित हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात इस सम्मलेन में यह रही कि  अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने क्षेत्रीय और वैश्विक सहयोग के लिए एक चौकड़ी बनाने का निर्णय लिया। जाहिर है चीन को इस चौकड़ी के साथ आने से अच्छा नहीं लगा किंतु खुलकर विरोध भी नहीं कर सका।  इस चौकड़ी पर हमारी नज़र बनी रहेगी क्योंकि यदि इनमे कोई सामरिक समझौता होता है तो एशिया में चीन की सामरिक शक्ति पर संतुलन रखा जा सकेगा। 
 
उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति से लगभग विस्मृत आसिआन देश अब अपनी आर्थिक प्रगति के कारण  विश्व मंच पर अचानक एक शक्तिपुंज के रूप में उभरे हैं। जापान, ऑस्ट्रेलिया, चीन और भारत जैसी महाशक्तियों से घिरा सुदूरपूर्व का यह क्षेत्र विश्व कूटनीति में अपना स्थान बनाने को उद्यत है। चीन के पंजों से निकलकर अपनी पहचान बनाने के लिए उसे भारत, अमेरिका और जापान जैसे देशों का सहयोग चाहिए। इस सम्मेलन में भारत सहित ये देश आसियान देशों को सहयोग का विश्वास दिलाने में सफल रहे जो चीन के विरुद्ध एक कूटनीतिक विजय रही।  
 
और अंत में मोदीजी के मास्टर स्ट्रोक की बात। उन्होंने अगले वर्ष जनवरी में होने वाली गणतंत्र दिवस की परेड में विशिष्ट अतिथि बुलाने की परम्परा से आगे बढ़कर आसिआन देशों के दस राष्ट्राध्यक्षों को विशिष्ट अतिथियों के रूप में एक साथ आमंत्रित कर लिया है। यदि सभी की स्वीकृति मिल जाती है तो भारत के लिए एक बहुत बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि होगी तथा यह कदम चीन की दुखती रग पर हाथ रखने जैसा होगा। 
 
अतिथियों के एक बार भारत में आने के बाद तो हमारे यहां स्वागत और मेहमाननवाज़ी में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। एक साथ दस देशों को अपनी झोली में डालने की फितरत अपने प्रधानमंत्री के अतिरिक्त किसी और के दिमाग की उपज नहीं हो सकती। हम उस सुबह का इंतज़ार करेंगे जब दस महत्वपूर्ण देशों के राष्ट्राध्यक्षों की यह श्रृंखला हमारे गणतंत्र दिवस के समारोह को महिमामंडित करेगी।