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Last Modified: बुधवार, 8 अक्टूबर 2014 (14:17 IST)

विजयदत्त श्रीधर : कर्मयोगी पत्रकार

विजयदत्त श्रीधर : कर्मयोगी पत्रकार - Vijaydutt Sridhar, karmayogi journalist, persistence
विजयदत्त श्रीधर हिन्दी के ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी निष्कलुष पत्रकारिता, लेखकीय कृ‍तित्व और सर्जना से भारतीय पत्रकारिता के युगपुरुषों की परंपरा को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि शोधपरक सर्जनात्मक अवदान से समृद्ध किया है। पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर को माधवराव सप्रे स्मृति समाचार-पत्र संग्रहालय जैसे अनूठे शोध संस्थान के निर्माण और विकास के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।

19 जून 1984 को इस शोध-संस्‍थान की स्थापना के बाद से श्रीधरजी लगातार इसे समृद्ध करते जा रहे हैं। भोपाल में स्थित सप्रे संग्रहालय आज देश-दुनिया के मीडियाकर्मियों, शोधकर्ताओं, लेखकों, विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों के लिए 'बौद्धिक-तीर्थ' के रूप में जाना जाता है। संवेदनशील पत्रकार विजयदत्त श्रीधर का जन्म 10 अक्टूबर 1948 को दशहरे के दिन मध्यप्रदेश के गांव बोहानी में हुआ था। माटी से जुड़ाव, जुझारूपन, सृजनशीलता और सामाजिक सरोकारों के प्रति लगाव उन्हें पारिवारिक संस्कारों के रूप में मिले। उनके पिता पंडित सुंदरलाल श्रीधर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी सर्वोदयी कार्यकर्ता थे।

1974 में श्रीधरजी ने भोपाल से प्रकाशित 'देशबंधु' समाचार-पत्र से विधिवत पत्रकार जीवन की शुरुआत की। इससे पहले 2 साल तक अंशकालिक पत्रकार के रूप में पत्रकारिता का ककहरा सीखा। 4 वर्ष बाद 1978 में प्रतिष्ठित समाचार पत्र नवभारत से जुड़े। यहां उन्होंने 23 वर्ष का लंबा कार्यकाल बिताकर संपादक के पद से अवकाश लिया। प्रमुख शहरों से दूर कार्यरत आंचलिक पत्रकारों की उन्हें बेहद चिंता रहती है।

आंचलिक पत्रकारिता को मजबूत करने के लिए उनके प्रयास हमेशा याद किए जाते रहेंगे। उनके कार्यकाल में नवभारत शीर्ष पर पहुंच गया था। सूझबूझ और मुद्दों पर पैनी नजर रखने वाले श्रीधरजी ने नवभारत को सबसे अधिक मजबूत आंचलिक क्षेत्रों में ही किया। आंचलिक क्षेत्रों में नवभारत के मुकाबले उस समय कोई अखबार ठहरता नहीं था।

आंचलिक पत्रकारों के लिए उन्होंने 1976 में मध्यप्रदेश आंचलिक पत्रकार संघ की स्थापना की। बाद में पत्रकारिता और जनसंचार पर केंद्रित मासिक पत्रिका 'आंचलिक पत्रकार' का संपादन और प्रकाशन भी किया।

धुन के पक्के 66 वर्षीय विजयदत्त श्रीधर ने गौरवमयी भारतीय पत्रकारिता के इतिहास को संजोने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। दो खंडों में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'भारतीय पत्रकारिता कोश' हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सप्रे संग्रहालय के बाद उनका दूसरा सबसे बड़ा योगदान है।

सच कहा जाए तो वे भारतीय पत्रकारिता इतिहास के न केवल अध्येता हैं वरन् पत्रकारिता इतिहास लेखन में वैज्ञानिक दृष्टि के मर्मज्ञ एवं पत्रकारिता के बहुआयामी अनुशासन के सर्जक भी हैं।

(मीडिया विमर्श में पंकज कुमार)