प्रेरक प्रसंग : भगवान महावीर की साधुता
महावीर स्वामी और सर्प
एक बार भगवान् महावीर कहीं जा रहे थे कि रास्ते में लोगों ने उनके पास आकर उन्हें आगे जाने से यह कहकर मना किया कि वहां एक भयानक सर्प रहता है, किंतु महावीर उनकी बात अनसुनी कर आगे बढ़े। तथापि कुछ लोग कौतूहलवश उनके पीछे-पीछे हो चले।
थोड़ी ही देर में सांप ने उन्हें देखा और उनके समीप आकर फुफकार कर विष छोड़ना आरंभ किया, किंतु महावीर ज्यों के त्यों खड़े रहे।
सर्प ने जब देखा कि उसका विष उन पर प्रभावहीन साबित हुआ है, तो उसने सोचा कि यह व्यक्ति निश्चित ही कोई महात्मा है। फिर भी उसने उनके अंगूठे को काट लिया। अचरज से उसने देखा कि खून के स्थान पर दूध बह रहा है। अब तो उसे पूर्णतया विश्वास हो गया और वह भी निश्चल पड़ा रहा।
महावीर ने जब विषधर को शांत देखा, तो बोले, 'नागराज, मैं तुम्हारे समक्ष आत्मसमर्पण करता हूं, मेरी देह को अपना आहार मानो।' अब तो सर्प को आत्मग्लानि हुई कि उसने व्यर्थ ही एक देव पुरुष को काटा है। उसने तब बांबी में अपना सिर डाल दिया। लोग यह देख विस्मित हो गए। उन्होंने यह जानने के लिए कि वह मृत है अथवा जीवित, उसे पत्थर से मारना शुरू किया किंतु वह शांत ही पड़ा रहा। तब तो लोग उसे नाग देवता मान कर उसकी पूजा करने लगे और उसके सम्मुख दही और दूध की कटोरियां रखी जाने लगीं। इससे वहां चींटियां इकट्ठी हो गईं और सर्प को शांत देखकर चींटियों ने उसे अपना आहार बना लिया। विषधर पर महावीर की साधुता का प्रभाव पड़ चुका था। वह शांत ही रहा और उसने चींटियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। फलस्वरूप उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई।