गुरुवार, 28 नवंबर 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी

क्या गीता सामाजिक मतभेद बढ़ाकर आपको युद्ध के लिए प्रेरित करती है?

Geeta | क्या गीता सामाजिक मतभेद बढ़ाकर आपको युद्ध के लिए प्रेरित करती है?
यह सवाल कई लोगों के मन में उठता होगा। रूस में इस बात पर मार्च 2012 में गीता पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठी थी। मांग में यह कहा गया था कि गीता से सामाजिक मतभेद और युद्ध की भावना का विकास होता है। क्या गीता दूसरे धर्म या समाज के लोगों के प्रति भड़काती है और क्या यह युद्ध की ओर धकेलती है? यह प्रश्न उन लोगों की ओर से गढ़े गए हैं जिन्होंने या तो गीता नहीं पढ़ी या जो किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु गीता के प्रचार-प्रसार को रोकना चाहते हैं। आओ जानते हैं कि गीता में क्या सचमुच ही युद्ध करने की शिक्षा दी गई है?
 
 
महाभारत के 18 अध्यायों में से 1 भीष्म पर्व का हिस्सा है गीता। गीता में भी कुल 18 अध्याय हैं। 18 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। वेदों का सार अर्थात संक्षिप्त रूप है उपनिषद् और उपनिषदों का सार है गीता। गीता सभी हिन्दू ग्रंथों का निचोड़ और सारतत्व है इसीलिए यह सर्वमान्य हिन्दू धर्मग्रंथ है। इसे वेद और उपनिषदों का पॉकेट संस्करण भी कह सकते हैं। उल्लेखनीय है कि पुराण, स्मृतियां, महाभारत और रामायण हिन्दुओं के इतिहास और नीति ग्रंथ हैं, धर्मग्रंथ नहीं।
 
 
गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने 574, अर्जुन ने 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने 1 श्लोक कहा है।
 
पहला अध्याय- अर्जुनविषादयोग नाम से है। इस अध्याय में दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना, सामर्थ्य और शंख ध्वनि का कथन, अर्जुन द्वारा सेना निरीक्षण का प्रसंग और अपने ही बंधु-बांधवों को सामने खड़ा देखकर मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन हैं। इसमें अर्जुन कहता है कि यदि मैं अपने ही बंधुओं को मारकर विजय भी प्राप्त कर लेता हूं तो यह मुझे सुख नहीं, पश्चाताप ही देगी। 
 
दूसरा अध्याय- सांख्ययोग नाम से है। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस असमय ये बातें करना उचित नहीं, क्योंकि अब तो सामने युद्ध थोप ही दिया गया है। अब यदि तुम नहीं लड़ोगे तो भी मारे जाओगे। अर्जुन हर तरह से युद्ध को छोड़कर जाने की बात कहता है, तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब युद्ध से विमुख होना नपुंसकता और कायरता है। इसी चर्चा में श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि आत्मा का कभी वध नहीं किया जा सकता और तू जिनके मारे जाने का शोक करने की बात कर रहा है, वह उनका शरीर है जिसे आज नहीं तो कल मर ही जाना है इसीलिए जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा। इसी अध्याय में श्रीकृष्ण सांख्ययोग और स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण का वर्णन करते हैं।
 
 
तीसरा अध्याय-कर्मयोग नाम से है। इसमें ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार जीवन में अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरुपण किया गया है। इसमें कर्मों का गंभीर विवेचन किया गया है। अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा की बातें कही गई हैं। इस अध्याय में ही हिन्दू धर्म के कर्म के सिद्धांत का निचोड़ लिखा हुआ है। इससे ही यह प्रकट होता है कि हिन्दू धर्म कर्मवादी धर्म है, भाग्यवादी नहीं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, जो कि कार्य और कारण की एक श्रृंखला हैं।
 
 
चौथा अध्याय- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नाम से है। इसमें ज्ञान, कर्म और संन्यास योग का वर्णन है। सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय, योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा, फल सहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन और ज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है।
 
पांचवां अध्याय- कर्मसंन्यासयोग नाम से है। इसमें सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा, ज्ञानयोग का विषय और भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन का वर्णन किया गया है। उपरोक्त सभी योगों के वर्णन में अध्‍यात्म, ईश्वर, मोक्ष, आत्मा, धर्म नियम आदि का वर्णन है, किसी भी प्रकार के युद्ध या युद्ध करने का नहीं।
 
 
छठा अध्याय- आत्मसंयमयोग नाम से है। इसमें कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण, आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण, विस्तार से ध्यान योग का वर्णन, मन के निग्रह का विषय, योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा का वर्णन किया गया है।
सातवां अध्याय- ज्ञानविज्ञानयोग नाम से है। इसमें विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से ईश्वर की व्यापकता का कथन, आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा, भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा का वर्णन किया गया है।
 
 
इसी तरह आठवां अध्याय अक्षरब्रह्मयोग, नौवां अध्याय राजविद्याराजगुह्ययोग, दसवां अध्याय विभूतियोग, ग्यारहवां अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग, बारहवां अध्याय भक्तियोग, तेरहवां अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग, चौदहवां अध्याय गुणत्रयविभागयोग, पन्द्रहवां अध्याय पुरुषोत्तमयोग, सोलहवां अध्याय दैवासुरसम्पद्विभागयोग, सत्रहवां अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग और अठारहवां अध्याय मोक्षसंन्यासयोग में कहीं पर भी युद्ध या सामाजिक मतभेद बढ़ाने की चर्चा नहीं की गई है।
 
 
निष्कर्ष : भगवद्गीता आपको किसी की जान लेने या युद्ध के लिए प्रेरित नहीं करती और न ही इसमें किसी दूसरे धर्म या समाज का उल्लेख है। गीता का ज्ञान किसी भी प्रकार से सामाजिक मतभेद को नहीं बढ़ाता। गीता को पढ़ने के बाद व्यक्ति को ईश्‍वर, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्यों की जानकारी मिलती है, युद्ध की नहीं।
 
बस यह पहला और दूसरा अध्याय ही है जिसमें युद्ध की चर्चा की गई है, लेकिन इसमें कहीं पर भी सामाजिक मतभेद बढ़ाने या युद्ध को बढ़ावा देने की बात नहीं है। इसमें अर्जुन रणभूमि पर युद्ध को छोड़कर जाने की बात कहता है। ऐसे में श्रीकृष्ण उसे सभी तरीके के यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अब इस असमय युद्ध से विमुख होना कायरता और नपुंसकता होगी। इतिहास में तुम्हारी कोई जगह नहीं होगी। युद्ध नहीं करोगे को बेमौत मारे जाओगे। सिर्फ तुम ही युद्ध के परिणाम को लेकर शोकाकुल और संवेदनशील हो लेकिन सामने कौरव पक्ष में से कोई भी ऐसा नहीं सोचता।
 
 
दरअसल, अर्जुन ने जब कौरवों के पक्ष में अपने बुजुर्गों को देखा, रिश्तेदारों पर नजर डाली तो श्रीकृष्ण से कहने लगा कि मैं इस युद्ध को नहीं लडूंगा, इसमें मेरे अपने ही लोग मारे जाएंगे। तब कृष्ण, अर्जुन को समझाते हैं कि मुद्दा यह नहीं है कि तुम युद्ध लड़ोगे या नहीं, हिंसा होगी या नहीं। सवाल यह है कि तुम्हारी इस निष्क्रियता से अधर्म और पाप को समर्थन मिल जाएगा। तुम्हारा कर्तव्य है गलत को रोकना और ध्यान रखो कि काम करते समय 'मैं कर रहा हूं' यह भाव हटाओ, क्योंकि कर्म में यदि 'मैं' आता है, तो सफल होने पर अहंकार आ जाता है और असफल होने पर अवसाद आ जाता है इसलिए शस्त्र उठाओ और युद्ध करो। तुम्हारा दायित्व है काम करना। सही काम करोगे तो परिणाम सही मिलेगा।
 
 
श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को इसलिए दिया, क्योंकि वह कर्तव्य पथ से भटकर संन्यासी और वैरागी जैसा आचरण करके युद्ध छोड़ने को आतुर हो गया था, वह भी ऐसे समय जबकि सेना मैदान में डटी थी। ऐसे में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उन्हें उनका कर्तव्य निभाने के लिए यह ज्ञान दिया। हरियाणा के कुरुक्षे‍त्र में जब यह ज्ञान दिया गया तब तिथि एकादशी थी। संभवत: उस दिन रविवार था। उन्होंने यह ज्ञान लगभग 45 मिनट तक दिया था।
 
 
लड़ाई से डरने वाले मिट जाते हैं : जिंदगी एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। लेकिन जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाएगा या उसको सबसे पहले मारा जाएगा। महाभारत में पांडवों को यह बात श्रीकृष्ण ने अच्‍छे से सिखाई थी। पांडव अपने बंधु-बांधवों से लड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने समझाया कि जब किसी मसले का हल शांतिपूर्ण या किसी भी अन्य तरीके से नहीं होता है तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर लोग युद्ध से पीछे हटते हैं इसीलिए अपनी चीज को हासिल करने के लिए कई बार युद्ध करना पड़ता है। अपने अधिकारों के लिए कई बार लड़ना पड़ता है। जो व्यक्ति हमेशा लड़ाई के लिए तैयार रहता है, लड़ाई उस पर कभी भी थोपी नहीं जाती है।
 
 
आखिर गीता में क्या खास है?
गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे, तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है।
 
गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकास क्रम, हिन्दू संदेशवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म-कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी-देवता, उपासना, प्रार्थना, यम-नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्व जन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्म-सिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है। गीता का मुख्य ज्ञान है कि कैसे स्थितप्रज्ञ पुरुष बनना, ईश्वर को जानना या मोक्ष प्राप्त करना।
 
 
श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गों की विस्तृत व्याख्या की गई है। इन मार्गों पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परम पद का अधिकारी बन जाता है।