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Last Updated : शुक्रवार, 15 मई 2020 (22:28 IST)

Mahabharat 12 May Episode 91-92 : दुर्योधन वध, अश्वत्‍थामा का प्रतिकार और श्रीकृष्ण का चमत्कार

Mahabharat 12 May Episode 91-92 : दुर्योधन वध, अश्वत्‍थामा का प्रतिकार और श्रीकृष्ण का चमत्कार - Duryodhan vadh and ashwathama shrap by krishna
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 12 मई 2020 के सुबह और शाम के 91 और 92वें एपिसोड में दुर्योधन द्वारा कर्ण का दाह संस्कार करने के बाद पांडव अपनी बची हुई सेना के साथ रणभूमि में पहुंचते हैं। युधिष्ठिर पूछते हैं कि यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कौरव सेना आज शिविर से बाहर क्यों नहीं निकल रही?
 
बीआर चोपड़ा की महाभारत में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें... वेबदुनिया महाभारत
 
भीम कहता है कि तो हम उनके शिविर की ओर चले चलते हैं बड़े भैया। इस पर सेनापति धृष्टद्युम्न कहते हैं कि लगता है कि दुर्योधन अपने शिविर से भाग गया है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुर्योधन में हजार दोष हो सकते हैं धृष्टद्युम्न, किंतु वह कायर नहीं है। वह या तो जीतकर रणभूमि छोड़ेगा या वीरगति को प्राप्त होकर। इस पर धृष्टद्युम्न कहता है कि आपका मतलब है कि हमें यहां खड़े खड़े प्रतिक्षा करते रहना चाहिए देवकीनंदन? तब युधिष्ठिर कहते हैं कि हो सकता है कि वह संधि के विषय में सोच रहा हो। यदि आज भी संधि हो जाए तो ज्येष्ठ पिताश्री अकेले रहने से बच जाएंगे। यह कहकर युधिष्ठिर एक सैनिक से कहते हैं कि सैनिक दुर्योधन के विषय में समाचार लेकर आओ।
 
उधर, शिविर में अश्वत्थामा कहता है कि मेरी समझ में यह नहीं आता कि अब यह दुर्योधन चला कहां गया? कृतवर्मा  कहता है कि यदि जाना ही था तो किसी को सेनापति नियुक्त करके जाना था। बिना सेनापति कौरव सेना शिविर से बाहर नहीं निकल सकती। यह कहते हुए कृतवर्मा कहता है कृपाचार्य से कि आप ही किसी को सेनापति नियुक्त कर दीजिए। तब कृपाचार्य कहते हैं कि नहीं मुझे इसका अधिकार नहीं। अश्वत्थामा कहते हैं कि यदि हम रणभूमि में नहीं गए तो युधिष्ठिर सेना लेकर यहां हमारे शिविर में घुस आएगा। तब कृपाचार्य कहते हैं कि नहीं वह ऐसा नहीं करेगा, या तो वह रणभूमि में प्रतिक्षा करेगा या वह वहां जाएगा जहां दुर्योधन है।
 
उधर, युधिष्ठिर के समक्ष सैनिक एक आखेटक को लेकर आता है और कहता है कि यह आखेटक जानता है कि युवराज दुर्योधन कहां छिपे हैं। तब आखेटक कहता है कि मैंने सूर्योदय के पहले युवराज को सरोवर में प्रवेश करते हुए देखा था महाराज। यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं कि तो क्या उसने आत्महत्या कर ली? आखेटक कहता है कि नहीं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुर्योधन एक मायावी भी है। वह जानता है कि अब उसके पास योद्धा नहीं रहे। यदि आप अपनी सेना से बाकी योद्धाओं को हटा भी लें तब भी आप पांच हैं और वो केवल चार। स्वयं दुर्योधन, अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कुलगुरु कृपाचार्य। इसलिए वह अवश्य ही सरोवर में विश्राम करने गया होगा।
 
यह सुनकर युधिष्ठिर कहते हैं कि रथ सरोवर की ओर ले चलो सारथी। सरोवर के पास रथ रोककर सभी रथ से उतरते हैं। आखेटक बताता है कि महाराज यहीं से गए थे सरोवर में। तब श्रीकृष्ण और धृष्टद्युम्न सहित सभी सरोवर को देखते हैं। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि महान योद्धाओं की सेना का अंत इस तरह सरोवर के पास होगा ये तो मैंने सोचा ही नहीं था। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं बड़े भैया। जब तक दुर्योधन जिंदा है तब तक विजयश्री बहुत दूर है।
 
श्रीकृष्ण ऐसा समझा ही रहे थे कि तभी दूर से ही कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा उन्हें देख लेते हैं। कृतवर्मा पूछता है कि पांडव उस झील के पास खड़े क्या कर रहे हैं गुरुवर? तब गुरुवर कृपाचार्य कहते हैं कि कदाचित दुर्योधन उसी सरोवर में छिपा हो? तब अश्वत्थामा कहता है कि दुर्योधन जैसे महावीर के लिए छिपने जैसे शब्दों का प्रयोग न करें मामाश्री। वीर तो आगे बढ़कर मृत्यु को गले लगाते हैं। ये युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है। वहां पांच पांडव है तो हम चार भी यहां हैं। यदि पांडवों ने कायरता दिखलाई और वे सब के सब उस पर टूट पड़े तो हम भी टूट पड़ेंगे। फिर वह तीनों वहीं खड़े रहकर प्रतीक्षा करते हैं।
 
उधर, युधिष्ठिर सरोवर में आवाज लगाता है, हे अनुज दुर्योधन। सरोवर के जल में बैठा दुर्योधन आंख खोलकर ऊपर देखने लगता है। फिर युधिष्ठिर कहते हैं कि तुम्हारे ही कारण शांति का मार्ग बंद हुआ। तुम्हारे ही कारण भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे हैं। तुम्हारे ही कारण कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ तो तुम वीरों की भांति इस युद्ध का अंतिम स्वागत करने के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ते? हे दुर्योधन या तो पराजय स्वीकार करो या सरोवर से निकलकर युद्ध करो।
 
तब दुर्योधन सरोवर से ही चिल्लाकर कहता है कि तुम यह न समझो की मैं अनजाने पिताओं के पांच पुत्रों के भय के कारण यहां आकर छिपा बैठा हूं। तुम भाइयों ने इस रणभूमि में अपनी कायरता का ही प्रदर्शन किया है। तुमने पितामह भीष्म को कपट से घायल किया। तुमने आचार्य द्रोण को छल से मारा। तुमने मेरे भाई की छाती का लहू पीकर ये सिद्ध किया कि तुम तो मानव जा‍ती के हो ही नहीं। और, तुमने मेरे परम मित्र को कपट से मारा। हे पांडवों तुम तो वीर कहलाने के योग्य नहीं हो। अरे कायरों तुम तो माता कुंती की कोख का अपमान हो। तुम सभी की घृणा के ताप से मेरा अंग-अंग जल रहा है और इसी अग्नि को ठंडा करने के लिए मैं जल में उतर आया था। यदि मैं वीरगति को प्राप्त हुआ तब तो तुम्हारी विजयी हो ही जाएगी लेकिन यदि मैं विजय हुआ तो मैं हस्तिनापुर के उस सिंहासन को लेकर क्या करूंगा जो मुझे उस सिंहासन पर बैठा देखकर प्रसन्न होते वे सब तो जा चुके हैं। 
 
फिर दुर्योधन सरोवर से बाहर निकलकर कहता है कि तुम सभी कायर हो। तुम सभी अस्त्र शस्त्र से लैसे हो और मैं निहत्था हूं, घायल हूं और थका हुआ हूं। अपने 99वें भाइयों का शव उठा ‍चुका हूं। राधेय जैसे मित्र का शव उठा चुका हूं। गुरु द्रोण का शव उठा चुका हूं। मामाश्री शकुनि का शव उठा चुका हूं। इतने शव उठाकर मेरे कंधे टूट चुके हैं। परंतु हे वासुदेव अपने महारथियों से कहो मैं भयभीत नहीं हूं। अब आप सब कायर ये बताइये की मुझ से एक साथ युद्ध करोगे या अलग अलग?
 
तब युधिष्ठिर कहते हैं कि हे अनुज मैं यह जानकर अति प्रसन्न हुआ कि तुम कायर नहीं हो। हे अनुज तुम सचमुच दुर्योधन हो। हे कुरुशिरोमणि। तुम हम सभी से अकेले भी युद्ध करने की क्षमता रखते हो। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। तुम हम पांचों में से किसी एक को चुन लो और मैं तुम्हें वचन देता हूं यदि तुमने उसे परास्त कर दिया तो मैं पराजय स्वीकार कर लूंगा। हे अनुज तुम अपने लिए शस्त्र भी चुन लो और प्रतिद्वंदी भी। 
 
यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि मैं गदा युद्ध करूंगा। तब युधिष्ठिर पूछते हैं किससे? तब दुर्योधन कहता है कि जो पहले मरना चाहे वह सामने आ जाए।...फिर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के पास जाकर कहते हैं कि बड़े भैया कोई वचन देने से पहले सोच लेना चाहिए था। आप में से कोई दुर्योधन को गदा युद्ध में हरा नहीं सकता। आपने हाथ में आई हुई विजय पुरस्कार के रूप में दुर्योधन के हाथों में दे दी। तभी बीच में भीम आकर कहते हैं कि मैं इस दुर्योधन को मार मार कर वीरगति के मार्ग पर भेज दूंगा।
 
दुर्योधन यह सुनकर हंसता है। फिर दुर्योधन कहता है कि यदि अकेले युद्ध करने का साहस नहीं हो रहा भ्राताश्री, तो पांचों आ जाइये और यदि जी चाहे तो अर्जुन के सारथी यशोदानंदन को भी ले आईये। आ जाओ। यह सुनकर अर्जुन क्रोध में चिल्लाता है तो भीम कहता है हट जा अनुज और वह गदा लेकर दुर्योधन के सामने आ जाता है। दुर्योधन भी कहता है भ्राताश्री ये इस युद्ध का अंतिम भाग है तो निर्णायक कौन होगा? फिर भीम और दुर्योधन में बहस होती है तो दुर्योधन आचार्य द्रोण और बलराम की बात करते हैं और कहते हैं कि स्वयं बलदेवजी ने कहा था कि तुम पांचों मिलकर भी मुझे गदा युद्ध में नहीं हरा सकते। तब युधिष्ठिर सहदेव से कहता है कि जाओ दुर्योधन का कवच उनके शिविर से लेकर आओ। शिविर में सहदेव गांधारी से मिलकर कवच ले आता है।
 
फिर भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध आरंभ होने वाला ही रहता है कि तभी वहां बलदेवजी आ जाते हैं। यह देखकर श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर उनके चरण स्पर्श करते हैं और दुर्योधन कहता है, मैं आपकी ही की प्रतिक्षा कर रहा था गुरुदेव। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप ठीक समय पर आए दाऊ। देखिये आपके दोनों शिष्य गदा युद्ध करने वाले हैं।
 
फिर बलदेवजी के आदेश से गया युद्ध आरंभ हो जाता है। दुर्योधन अपनी गदा से भीम को धो डालता है। भीम पसीने पसीने होकर भी युद्ध लड़ते रहते हैं। यह दृश्य देखकर अन्य पांडव चिंतित होने लगते हैं। तब श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि यह युद्ध गदा नियमों के अनुसार चलता रहा तो मंझले भैया की पराजय निश्चित है। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि दुर्योधन के पास गांधारी का आशीर्वाद है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि पार्थ मंझले भैया को उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाओ। अर्जुन पूछता है कौनसी प्रतिज्ञा? फिर श्रीकृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि क्या तुम भूल गए कि द्रौपदी के अपमान के समय भीम ने क्या प्रतिज्ञा ली थी? अर्जुन कहता है कि उन्होंने दुर्योधन की जंघा तोड़ने की प्रतिज्ञा ली थी। श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो दिलाओ याद। लेकिन अर्जुन कहता है कि ये तो गदा युद्ध है जंघा पर वार नहीं कर सकते। मैं ऐसा नहीं कर सकता।
 
तब श्रीकृष्ण खुद ही कहते हैं अहो मंझले भैया अहो। तब बलदेव कहते हैं चिल्लाते क्यों हो अनुज, चुपचाप युद्ध देखो। फिर भी श्रीकृष्ण कहते हैं कि मंछले भैया का यह दांव तो अति प्रशंसनीय था। श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर भीम उनकी ओर देखने लगता है तब श्रीकृष्ण अपनी जंघा को ठोककर इशारा करते हैं कि जंघा पर वार करो। तब भीम जंघा पर वार करता है तो दुर्योधन गिर पड़ता है। दुर्योधन कहता है तुमने मुझे छल से मारा भीम। दुर्योधन जैसे ही उठता है भीम जंघा पर वार करके कहता है कि यही तुम्हारी जंघा है ना जिस पर तू द्रौपदी को बिठाना चाहता था। ये ले इसे में उखाड़ता हूं।
 
यह दृश्य देखकर युधिष्ठिर चीखते हैं नहीं भीम नहीं। ऐसा कहकर युधिष्ठिर भीम को रोककर कहते हैं ये युवराज ही नहीं तुम्हारा भाई भी है। इसका अपमान न करो। तभी बलदेवजी क्रोधित होकर कहते हैं कि अब यह किसी का अपमान करने के लिए जीवित नहीं रहेगा। इसने अपने गुरु का अपमान किया है। क्या आचार्य द्रोण और मैंने तुम्हें ये शिक्षा नहीं दी थी कि गदा युद्ध कमर से नीचे नहीं उतरता? ये भूमि पर तड़पता हुआ दुर्योधन नहीं, ये तेरे गुरु की मर्यादा तड़प रही है। यह देखकर श्रीकृष्ण चिंतित हो जाते हैं।
 
फिर बलदेव जी गदा उठाकर भीम को मारने ही लगते हैं कि तभी श्रीकृष्ण उनकी गदा को थाम लेते हैं और वे दाऊ को दुर्योधन के पाप गिनाते हुए कहते हैं कि तब आपने दुर्योधन को क्यों नहीं टोका? क्या मर्यादाएं भी पक्षपात करती हैं दाऊ? यदि दुर्योधन किसी मर्यादा का उल्लंघन करे तो ठीक और भीम मर्यादा का उल्लंघन करे तो आप उसे मृत्युदंड देंगे? टूटना ही था इस जंघा को क्योंकि मंछले भैया प्रतिज्ञाबद्ध थे। फिर श्रीकृष्ण चुभने वाली बात कहते हैं, जब धर्म अधर्म के बीच युद्ध हो रहा हो तो केवल एक तीर्थ स्थान रह जाता है दाऊ। केवल एक...रणभूमि। जिस युद्ध से आप भाग गए थे दाऊ उसके अंतिम समय मैं आकर अपना प्रभाव डालने का प्रयास न कीजिए।
 
शाम के एपिसोड की शुरुआत कौरव शिविर में सुदेशणा और द्रौपदी के संवाद से होती है। द्रौपदी अपने अपमान के बारे में बताती है। फिर उनका संवाद गांधारी से होता है। गांधारी कहती है दुर्योधन लहू में नहाया हुआ रणभूमि में पड़ा अपनी मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहा है। इस समय वह अकेला है।
 
उधर, रणभूमि में अकेले पड़े दुर्योधन के पास अश्वत्थामा जाकर रोने लगता है। तब दुर्योधन कहता है कि मुझे बधाई दो मित्र की तुम्हारा मित्र दुर्योधन भी कपट और अनैतिकता के उसी शस्त्र से मारा गया जिस शस्त्र से गुरुदेव द्रोण मारे गए थे। तब अश्वत्थामा आंखों में आंसू भरकर बोलता है कि युद्ध में चाहे विजय हो या चाहे पराजय। मैं विजय में भी तुम्हारे साथ था और पराजय में भी। तुम यह न समझो की तुम्हारे पास सेना नहीं है। तुम्हारी सेना में अभी तीन महारथी है। मामाश्री कृपाचार्य, महारथी कृतवर्मा और मैं।
 
तभी कृपाचार्य और कृतवर्मा भी वहीं आ जाते हैं। चारों के बीच मंत्रणा होती है। तब दुर्योधन कहता है कि जब तक मैं जीवित हूं ये युद्ध समाप्त नहीं हो सकता। मैं गुरुपुत्र अश्वत्थामा को प्रधान सेनापति नियुक्त करता हूं। तब अश्वत्थामा कहता है क्या आदेश है युवराज। तब दुर्योधन कहता है मुझे पांडवों के कटे हुए ‍शीश दिखला दो अश्वत्‍थामा। मैं तब तक किसी न किसी तरह अपने जीवन की डोरी को पकड़े रखूंगा।
 
फिर वह तीनों वहां से चले जाते हैं। दुर्योधन अकेला रह जाता है। उधर धृतराष्ट्र को संजय यह दृश्य बताता है तो  धृतराष्ट्र बहुत दुखी होते हैं। इधर, कृतवर्मा, अश्वत्थामा और कृपाचार्य तीनों ही रात्रि के अंधकार में पांडव शिविर में पहुंच जाते हैं और शिविर में पांडवों को ढूंढते हैं।
 
अश्वत्‍थामा धृष्टदुम्न के शिविर में पहुंचकर सोए हुए धृष्टद्युम्न की हत्या कर देता है। फिर वह पांडवों के शिविर की ओर जाता है। वहां वह एक शिविर में सोए हुए द्रौपदी के पांच पुत्रों को पांडव समझकर मार देता है। यह कृत्य करने के बाद वह पुन: कृतवर्मा और कृपाचार्य के पास लौट आता है और फिर वह बाण चलाकर पांडवों के शिविर में आग लगा देता है।
 
तब अश्वत्थामा प्रसन्न होकर यह सूचना देने के लिए दुर्योधन के पास जाकर कहता है मित्र दुर्योधन। लेकिन वह देखता है कि दुर्योधन तो मर चुका है। तब अश्वत्थामा रोते हुए कहता है कि यह शुभ समाचार सुनने के लिए रुक तो गए होते कि मेरा प्रतिशोध पूर्ण हुआ। हे‍ मित्र पहले मैंने धृष्टद्युम्न को मारा, फिर उन पांच पांडवों को। मुझे बधाई दो मित्र। किंतु मित्र तुम्हारे प्रेम में मैंने ये कार्य कायरता का ही किया है ना। इसका प्रायश्चित तो करना ही होगा। वे सब सो रहे थे और नि‍हत्थे भी थे। मैं महर्षि व्यास के आश्रम में जाकर इसका प्रायश्चित करूंगा। फिर अश्वत्‍थामा दुर्योधन का अंतिम संस्कार कर देता है।
 
उधर शिविर में द्रौपदी और पांचों पांडव अपने पुत्रों के वध पर विलाप करते हैं। द्रौपदी पूछती है कि यह वध किसने किया। अर्जुन वहां पड़े बाण को बताकर कहता है कि ये वाण द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के हैं। फिर द्रौपदी कहती है कि मुझे आंसू पोंछने के लिए उनके मृतक वस्त्र चाहिए और जब तक तुम उसका शव नहीं दिखलाओगे तब तक मैं अपने पुत्रों के शव के पास ही बैठी रहूंगी। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अश्‍वत्‍थामा का वध असंभव है कल्याणी उसके पास अमर होने का वरदान है।
 
तब युधिष्ठिर कहते हैं कि किंतु हम उसे तुम्हारे समक्ष ले आएंगे कल्याणी। फिर तुम जो चाहो दंड दे देना। यह कहकर पांचों पांडव वहां से चले जाते हैं।
 
उधर अश्वत्‍थामा ऋषि वेदव्यास के आश्रम में प्रायश्चित करने के लिए पहुंच जाते हैं। वेदव्यास उन्हें बताते हैं कि तुमने जिनका वध किया वह पांडव नहीं पांडवों के पुत्र थे। तभी वहां पांचों पांडव पहुंचकर अश्वत्थामा को ललकारते हैं। यह देखकर अश्वत्‍थामा आश्रम की एक झोपड़ी से एक कुशा निकालकर मंत्र पढ़ता है। 
 
यह देखकर ऋषि वेदव्यास दंग रह जाते हैं। तक्षण अश्वत्‍थामा के हाथों में ब्रह्मास्त्र आ जाता है। वह पांडवों पर ब्रह्मास्त्र छोड़ देता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को चेताते हुए कहते हैं ये ब्रह्मास्त्र है। अर्जुन तक्षण समझकर खुद भी ब्रह्मास्त्र का आहवान करके ब्रह्मास्त्र छोड़ देता है। यह देखकर ऋषि वेदव्यास के चेहरे पर क्रोध और आश्चर्य दोनों ही होते हैं।
 
तब वह आंखें बंद करके आकाश में जाकर दोनों ही ब्रह्मास्त्र को अपने हाथों से रोककर दोनों से कहते हैं कि लौटा लो अपने अपने अस्त्र को। फिर वेदव्यास कहते हैं कि हे वासुदेव तुमने भी अर्जुन को नहीं रोका। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अश्वत्‍थामा अपना अस्त्र चला चुका था और उसे काटने के लिए अर्जुन को विवश होना पड़ा। वेदव्यास कहते हैं लौटा लो अपने अपने अस्त्र को।
 
अर्जुन आज्ञा का पालन करके अपना अस्त्र वापस ले लेता है। फिर वेदव्यास कहते हैं अश्वथामा से लौटाने का तो अश्‍वत्‍थामा कहता है कि मुझे ये अस्त्र लौटाना नहीं आता ऋषिवर। तब वेदव्यास क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि इसकी दिशा बदल। तब अश्वत्थामा क्रोधित होकर कहता है दिशा तो अवश्य बदल दूंगा। किंतु ये जाएगा फिर भी पांडवों की ओर। मैं पांडवों का नाश नहीं कर सकता तो मैं उनके बीज को अवश्य नष्ट कर दूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण क्रोध से भर जाते हैं।
 
वह अस्त्र ऋषि वेदव्यास के हाथ से निकलकर उत्तरा के गर्भ में जाकर लग जाता है। उत्तरा तड़फ उठती है। द्रौपदी और सुदेशणा राज वैद्या को बुलाने का आदेश देती हैं।
 
उधर, अश्वत्थामा से श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुमने बहुत ही घृणित कार्य किया है। तुम क्या समझते हो तुम अभिमन्यु पुत्र को उत्तरा के गर्भ में ही हत्या कर सकते हो और उसे कोई जीवित नहीं कर सकेगा? ये वासुदेव कृष्ण उसे जीवन दान देगा और तुम समय की चरम सीमा तक धरती पर अपने जीवन का शव उठाए भटकते रहोगे। अकेले अपने इस घोर पाप का बोझ उठाए। संवेदना के स्नेह लेप के लिए तरसते हुए अश्वत्‍थामा। तुम्हारे माथे पर जो मणि दमक रही है वहां एक घाव होगा, जो सदैव रिसता और दुखता रहेगा।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं युधिष्ठिर से कि इसके माथे से ये मणि निकाल लीजिए। तब अश्वत्‍थामा रोकते हुए कहता है कि इसे मैं स्वयं ही निकालकर देता हूं। मणि निकालकर अश्वत्‍थामा घुटनों के बल बैठकर श्रीकृष्ण से कहता है, हे वासुदेव लीजिए। ये मणि स्वीकार कीजिए किंतु अपने श्राप से मुझे मुक्त कर दीजिए। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि ये श्राप नहीं था यह तो तेरे पापों का भुगतान है। तब अश्वत्‍थामा वेद व्यासजी से कहते हैं ऋषिवर अनुशंसा करें। लेकिन वेद व्यासजी मुंह फेरकर चले जाते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं बड़े भैया ये मणि ले लीजिये। हमें उत्तरा के पास भी जाना है।
 
उधर, द्रौपदी से राज वैद्य कहते हैं कि संतान की मृत्यु गर्भ में ही हो चुकी है। यदि गर्भपात नहीं हुआ तो उत्तरा की मृत्यु भी हो जाएगी। तब मृत बालक को गर्भ से बाहर निकाल लिया जाता है। सभी पांडव वहां शोक मनाने खड़े हो जाते हैं।
 
उत्तरा रोते हुए श्रीकृष्ण से कहती है मामाश्री मेरे जीवन की अंतिम ज्योति भी चली गई। तब श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं पुत्री रोओं नहीं। प्रकाश की कभी मृत्यु नहीं होती। अंधकार तो केवल ये समझता है कि उसने प्रकाश को निगल लिया किंतु वह प्रकाश को कभी नहीं निकल सकता। ऐसा कहते हुए श्रीकृष्ण बालक के सिर और पेट पर हाथ रखकर कहते हैं जागो प्रिय परीक्षित, जागो। ऐसा करते ही बालक हिलने लगता है। यह दृश्य देखकर सभी आश्चर्य और खुशी से भर जाते हैं। उत्तरा की प्रसन्नता देखते ही बनती है। वह बालक को चुम लेती है।
 
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