रविवार, 28 अप्रैल 2024
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Written By अजय बोकिल

वोट तो पड़ गए, पर चोट किसपे पड़ने वाली हे!

वोट तो पड़ गए, पर चोट किसपे पड़ने वाली हे! -
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को खां, वोट तो पड़ गए। अच्छे खासे पड़ गए। कहीं-कहीं तो उम्मीद से ज्यादा पड़ गए। वोटर ने, सियासी कारकर्ताओं ने, पिरत्याशियों ने ओर सरकारी निजाम ने रहत की सांस ली। बिटिया की शादी की गहमागहमी का माहोल बारात की सुकून से रवानगी की माफिक ठंडा हो गया।

जो हफ्तों से नई सोए थे, उन्होंने घोड़े बेच के नींद निकाली। चोक-चोराहों, गली मोहल्लों में बतोलेबाजी का आलम हे। भारी वोटिंग कोन को जिता रई हे। कोन को निपटा रई हे। लोग उम्मीदवारों के चेहरों के रंग देख रिए हें। कोई का खिला हुआ हे तो कोई का उड़ा हुआ हे। वोट की ये चोट न जाने कित्तों को भारी पड़ने वाली हे।

मियां, हर चुनाव जम्हूरियत का शाही जलसा रेता हे। इसी के जरिए हाशिए पे पड़ी पब्लिक अगले पांच साल के लिए हुकूमत का फेसला करती हे। आजादी के बाद शुरुआती दोर में चुनाव रस्म अदायगी ज्यादा थे। क्योंकि चुनाव लड़ने वाली ज्यादातर शख्सियतें वो होती थीं, जिन्होंने जिंदगी का बड़ा अंगरेजों के खिलाफ लड़ने में गुजारा था। वो घर फूंक तमाशा देखने वाले लोग थे।

मुल्क की बहबूदी ओर तरक्की उनके जेहन में हुआ करती थी। हुकूमत को जनता की अमानत समझा जाता था। उस जमाने में पार्टी का टिकट कबाड़ने के बजाए उसे ठुकराने में लोग अपनी इज्जत समझते थे। कुर्सी उन पे हावी न थी। पर धीरे-धीरे सत्ता का नशा सबपे चढ़ने लगा। चुनाव जंग में बदलने लगे।

खां, फिर भी पेसे का चलन इत्ता न था के उस वक्त चुनाव आयोग को इतनी सख्ती करनी पड़े। न डंडों-पर कोई रोक थी न लाउड स्पीकर का बटन दूसरे के हाथ था। चुनाव में गाड़ियां कम चलती थीं। न चुनाव खर्च का हिसाब देने की जरुरत पड़ती थी, क्योंकि इत्ता दो नंबर का पेसा आता ई नई था।

सियासी कारकर्ताओं में टोपियों का जोर था। कोन किस पार्टी का हे, इसका अंदाज इन्ही टोपियों से लगाया जाता था। जब ऊपरी पिरचार ओर पिरत्याशी की इमेज कमजोर पड़ने लगी तो वोट कबाड़ने के लिए धन ओर दारु का इस्तेमाल होने लगा। गरीब बस्तियों में वोट ज्यादा पड़ते थे तो इसलिए कि उन्हे सिर्फ इसी से मतलब था के उन्हे कोन किस चीज से नवाज रिया हे।

चुनाव तो इस बार भी हुआ। कांटे का हुआ। पर पिरचार का रंग पहले सा न खिल सका, इसका कांटा सबके मन में चुभता रिया। भीतर जोश था, मगर बाहर मायूसी थी। गोया शादी भी हुई ओर बाजे भी न बजे। अब बारातियों ओर घरातियों का भला हो के इस चुनावी शादी में ढोल-ढमाके के बाद भाजपा को फिर झेलना पड़ेगा या कांग्रेस सर पे आके बेठेगी। या फिर तीसरा धूमकेतु के मानिंद आ टपकेगा। कोई अंदाजा नई लग पा रिया। वोट की मार से निपट कोन रिया हे। इसी का गुणा भाग लग रिया हे। अगले 12 दिन इसी में गुजरने वाले हें। इंतजार का मजा भी कम नई होता।