- ईशा भाटिया
दिन भर फोन बजता रहता है क्योंकि व्हट्सएप पर फॉरवर्ड की बरसात चल रही होती है। इन लंबे संदेशों को फॉरवर्ड करने से पहले क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर इन्हें लिखता कौन है? ईशा भाटिया का ब्लॉग।
अगर आप यह ब्लॉग पढ़ रहे हैं, तो जाहिर है आपके पास स्मार्टफोन जरूर होगा क्योंकि कंप्यूटर के सामने आज कल कौन बैठता है, खास कर ऐसे लेख पढ़ने के लिए। अगर स्मार्टफोन है, तो जरूर व्हट्सएप भी होगा क्योंकि अब एसएमएस का जमाना तो पुराना हो गया है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 90 फीसदी स्मार्टफोन्स में व्हट्सएप इस्तेमाल हो रहा है। अब अगर व्हट्सएप है, तो भई ग्रुप भी जरूर होंगे- परिवार का ग्रुप, दोस्तों का ग्रुप, दफ्तर वालों का ग्रुप। और जनाब अगर ग्रुप हैं, तो फॉरवर्ड भी जरूर होंगे।
"फॉरवर्ड" - अंग्रेजी के इस शब्द को हम हिंदुस्तानियों ने एक अलग ही मतलब दे दिया है। हमारे लिए फॉरवर्ड का मतलब है वो मेसेज जो कहीं से आया और हमने भी कहीं आगे बढ़ा दिया। किसी अंग्रेज के सामने कहेंगे, फॉरवर्ड पढ़ रहा हूं, तो शायद ही उसके पल्ले पड़े कि आप कह क्या रहे हैं। वैसे ही जैसे "मिस्ड कॉल"। यह भी हमारी ही रचना है, वरना दुनिया में और कहीं "मिस्ड कॉल देने" का चलन नहीं है।
बहरहाल, मुद्दे से भटके बिना फिर चलते हैं फॉरवर्ड के पास। इन लंबे लंबे संदेशों को पढ़ते वक्त क्या कभी आपके दिमाग में यह सवाल आता है कि इन्हें लिखता कौन है? कौन हैं वे लोग जिनके पास आज के जमाने में इतनी फुर्सत है कि हर बात का एनेलिसिस कर लेते हैं और वह भी मुफ्त में? बिना मांगे ही बैठे बिठाए आपको ज्ञान मिल रहा है। और मुफ्त की कोई चीज तो छोड़नी भी नहीं चाहिए, इसलिए हम बिना कोई सवाल किए, उसे ले भी लेते हैं और अपनों में बांट भी देते हैं। भारत में कुछ विद्वानों ने इस चलन को "व्हट्सएप यूनिवर्सिटी" का नाम दे दिया है। क्योंकि सबसे ज्यादा ज्ञान इन दिनों यहीं से निकल रहा है।
पत्रकार होने के नाते जब मेरे सामने कोई खबर आती है, तो पहले मुझे कम से कम दो विश्वसनीय सूत्रों से उसकी पुष्टि करनी होती है। हालांकि पत्रकारिता का यह मूल सिद्धांत भारत में गायब होता चला जा रहा है। नोटबंदी के समय 2000 के नोट को ले कर व्हट्सएप पर जो ऊलजलूल बातें फैली, देश के जानेमाने एंकरों ने उसी को खबर बना कर चला दिया। इतना ही नहीं स्टूडियो में चर्चा भी कर ली कि कैसे नोट में जीपीएस सिस्टम काम करेगा। किसी जमाने में मशहूर हस्ती की मौत के बाद पनवाड़ी की दुकान के बाहर जो गपशप सुनने को मिलती थी, आज श्रीदेवी की मौत के बाद वो प्राइम टाइम न्यूज में सुनने को मिल रही है। और इन अटकलों के सूत्र हैं व्हट्सएप के "फॉरवर्ड"।
पिछले एक दशक में सोशल मीडिया ने दुनिया को काफी बदला है। फेसबुक और ट्विटर जैसी वेबसाइटों की जब शुरुआत हुई, तो इन्हें लोकतंत्र के लिए अहम माना गया। मिस्र और लीबिया की क्रांति में लोगों को एकजुट करने में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा। निर्भया के बलात्कार के बाद दिल्ली में भी युवाओं को साथ लाने में सोशल मीडिया का बड़ा हाथ रहा।
लेकिन इसी सोशल मीडिया ने दादरी में मोहम्मद अखलाक की जान ले ली। व्हट्सऐप पर फैले "फॉरवर्ड" पर यकीन कर लोग उसके घर जा पहुंचे और पीट पीट कर मार डाला। बाद में फॉरेंसिक रिपोर्ट में पता चला कि घर में रखा मीट बीफ था ही नहीं। अब जरा सोचिए कि यह फर्जी संदेश अगर किसी की जान ले सकते हैं, तो आप कितने सुरक्षित हैं? व्हट्सएप के जरिए अफवाहें फैला कर आपके इलाके में दंगे कराना कितना मुश्किल रह गया है?
वैसे, आजकल इन संदेशों में एक चलन और चला है- "फॉर्वर्डेड ऐज रिसीव्ड" यानि मुझे जैसा मिला था, मैंने तो वैसे ही आगे बढ़ा दिया, मेरी इसमें कोई जिम्मेदारी नहीं है, कहीं मेसेज पढ़ने वाला पलटकर मुझसे ही कोई जानकारी ना मांगने लगे। किसी से सवाल करें ना करें, कम से कम खुद से तो करें, कि इतने लंबे संदेश की शुरुआत कहां से हुई होगी। जिस किसी ने इतना वक्त निकाल कर यह सब लिखा, वह गुमनाम क्यों रहना चाहता है? अपनी रिसर्च का क्रेडिट क्यों नहीं लेता?
बतौर पत्रकार जब हमें कोई लेख लिखना होता है, तो उसके लिए रिसर्च की जरूरत पड़ती है, जानकारों से बात करने की जरूरत होती है और इस सब में काफी वक्त खर्च होता है। कई बार आप कई दिन तक एक स्टोरी को फॉलो करते रहते हैं। तो फिर व्हट्सएप फॉरवर्ड लिखने वाले झट से कैसे इतने लंबे लेख लिख लेते हैं? क्या उनके पास इतना बड़ा आर्काइव या डाटाबैंक है? विशेषज्ञों से इतने अच्छे संपर्क हैं?
जिस जमाने में हैशटैग का चलन शुरू हुआ, किसी मुद्दे के ट्रेंड करने पर पता किया जाता था कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। पत्रकार उस व्यक्ति के साथ इंटरव्यू करते थे, पूछते थे कि आपने क्या सोच कर यह हैशटैग शुरू किया। अब हाल यह है कि किसी भी वक्त ट्विटर इंडिया के टॉप 10 हैशटैग की सूची निकालेंगे तो उसमें से आठ तो ऐसे होंगे जो या किसी ऐड कैम्पेन या फिर किसी राजनीतिक दल द्वारा चलवाए गए होंगे। न्यूज चैनल भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं। यानि विरोधाभास यह है कि सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दों का दरअसल आम जनता से कोई लेना देना ही नहीं है। जनता को बस माल परोसा जा रहा है और भोली भाली जनता उसी में खुश भी है।
इन लंबे संदेशों को अगर ध्यान से देखेंगे तो दो ट्रेंड समझ आएंगे। पहला तो यह कि हर मुद्दे को धर्म और राष्ट्रवाद का रंग दे दिया जाए। और दूसरा, हर मुद्दे पर चुटकुले बनाए जाएं। दोनों ही सूरतों में नतीजा एक ही नजर आता है, पाठकों का ध्यान असल मुद्दे से भटक कर इधर उधर की बातों पर टिक जाता है। तो क्या व्हट्सएप के इन फॉरवर्ड का यही मकसद है?
आंकड़े बताते हैं कि अकेले दिल्ली और एनसीआर में प्रति दिन 50 करोड़ व्हट्सएप मेसेज भेजे जाते हैं। जाहिर है इनमें से सब फॉरवर्ड नहीं होते और जो होते हैं उनमें से कुछ अच्छी मंशा के साथ भी लिखे गए होते हैं। लेकिन कुल मिला कर इस वक्त भारत में फेक न्यूज का बाजार गर्म है। और ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग फेक न्यूज पढ़ने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
जब यह दिलचस्पी खत्म हो जाएगी, फेक न्यूज वाले फॉरवर्ड भी बंद हो जाएंगे। इसलिए अपने फोन पर आए किसी भी संदेश को तभी आगे बढ़ाएं, अगर आपको वह विश्वसनीय लगे, और वह आपके सवालों का जवाब दे पाए। और अंत में यही कहूंगी कि अगर यह लेख ऐसा करने में सक्षम रहा है, तो आप इसे भी अपनी फॉरवर्ड की सूची में जोड़ दें।