लंबे मुकदमों पर न्यायपालिका के रुख में बदलाव
भारत में मुकदमे में फंसने का मतलब होता है सालों के लिए फंसना। भारत में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पांच साल से ज्यादा से कैद विचाराधीन कैदियों को राहत देने की पहल की है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने एक बेहद स्वागतयोग्य पहल करके लाखों विचाराधीन कैदियों के अंधेरे जीवन में आशा की एक किरण लाने का काम किया है और यदि यह प्रक्रिया लगातार जारी रही तो भारत में अति धीमी रफ़्तार से चलने वाली कानूनी कार्यवाही में धीरे-धीरे तेजी आएगी। जस्टिस मिश्र ने सुप्रीम कोर्ट एवं सभी हाईकोर्टों से अपील की है कि जिन विचाराधीन कैदियों ने पांच साल या उससे अधिक समय जेल में बिता दिया है, उनकी अपील और याचिकाओं पर अविलंब सुनवाई की जाए और इसके लिए शनिवार की छुट्टी के दिन भी अदालत काम करे। यही नहीं, जो गरीब कैदी अपने बचाव के लिए वकील करने में समर्थ नहीं हैं, उनके लिए अदालत सरकारी खर्चे पर वकील का इंतजाम करे।
दो माह पहले की गयी इस अपील के अपेक्षित परिणाम भी सामने आये हैं और विभिन्न हाईकोर्ट अब तक एक हजार मामलों की सुनवाई कर चुके हैं। भारत में इस समय विभिन्न अदालतों में ढाई करोड़ से अधिक मामले सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि सुनवाई करने और फैसला सुनाने के लिए पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश उपलब्ध नहीं हैं। न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या बाईस हजार है लेकिन पांच हजार पद खाली पड़े हैं। जब अदालतों में जज ही नहीं होंगे तो सुनवाई कौन करेगा?
सुधारों की जरूरत
पिछले दशकों में अनेक बार ऐसी खबरें आती रही हैं कि अमुक विचाराधीन कैदी बीस साल या तीस साल से जेल में सड़ रहा है। उसे तो यह भी नहीं पता कि वह किस अपराध के लिए जेल के भीतर है। गरीब कैदियों के घर वाले भी उन्हें भुला देते हैं क्योंकि उनके लिए अपना जीवनयापन करना ही एक बहुत बड़ा संघर्ष होता है।
हालांकि स्वाधीनता संघर्ष के दौरान सभी बड़े नेता जेलों में रहे, लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि सत्ता में आने के बाद उन्होंने जेलों में अपने दिन काट रहे कैदियों की जीवनस्थिति सुधरने के लिए कोई उल्लेखनीय कोशिश नहीं की। और तो और, कम्युनिस्ट नेताओं ने भी उन राज्यों में जेल सुधार नहीं किया जहां उन्होंने सरकारें बनाईं।
इस समय भारत में न्यायपालिका, पुलिस और जेल सुधारों की सख्त जरूरत है। अदालतों में जजों की कमी ही नहीं है, आवश्यक सुविधाओं की भी कमी है। आम भारतीय अदालत वैसी नहीं होती जैसी हिंदी फिल्मों में दिखाई जाती है। राजधानी दिल्ली तक में निचली अदालतों की दुर्दशा देखने लायक है। इमारतें खस्ताहाल हैं और बैठने के लिए आरामदेह फर्नीचर तक का प्रबंध नहीं है। भारतीय जेलें भी नरक से कम नहीं हैं और पुलिस आज भी उसी तरह काम कर रही है जिस तरह वह अंग्रेज औपनिवेशिक शासकों के जमाने में किया करती थी। उसका जोर आज भी जनता की सेवा करने पर नहीं, उसे प्रताड़ित और परेशान करने पर है।
राहत देने वाली पहल
इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि स्वयं पुलिसकर्मियों की काम करने की स्थितियां बेहद खराब हैं। पुलिस बल के पुनर्गठन और उसकी कार्यप्रणाली में बदलाव पर उसी तरह कोई ध्यान नहीं दिया गया जिस तरह जेलों और अदालतों के कामकाज में सुधार को अनदेखा किया गया। आज भी भारत में अधिकांश क़ानून वे ही क़ानून लागू हैं जिन्हें उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अंग्रेज शासकों ने बनाया था। इनमें से अनेक गैरजरूरी हैं और अनेक ऐसे जिनकी किसी भी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन उन्हें ख़त्म करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गयी है।
इस पृष्ठभूमि में देश के मुख्य न्यायाधीश का विचाराधीन कैदियों को राहत देने वाला कदम भविष्य के प्रति कुछ आश्वस्ति देता है। आशा की जानी चाहिए कि निचली अदालतें भी ऐसी ही संवेदनशीलता दिखाएंगी और यह प्रक्रिया आगे बढ़ेगी और कैदियों को जेलों में अनावश्यक रूप से अनेक साल नहीं काटने पड़ेंगे।
रिपोर्ट कुलदीप कुमार