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Last Modified: मंगलवार, 23 नवंबर 2021 (08:20 IST)

किसानों का आंदोलन पहुंचा अवध, गैर राजनीतिक संगठनों ने दिए राजनीतिक संकेत

किसानों का आंदोलन पहुंचा अवध, गैर राजनीतिक संगठनों ने दिए राजनीतिक संकेत - farmers movement in Avadh
कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर करीब एक साल से चल रहे किसान आंदोलन की गूंज सोमवार को उत्तर प्रदेश के उस अवध इलाके में सुनाई दी जहां इतिहास का पहला बड़ा किसान आंदोलन हुआ था।
 
उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में करीब सौ साल पहले किसानों ने एका आंदोलन के जरिए अपनी ताकत दिखाई थी और स्थानीय ताल्लुकेदारों के अत्याचार के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया था। इस आंदोलन के बाद ही पहले अवध किसान सभा और फिर अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ। सोमवार को इसी अवध यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में देश भर से जुटे किसानों ने सरकार को अपनी ताकत का अहसास कराया।
 
लखनऊ में सोमवार को आयोजित किसान महापंचायत, कृषि कानूनों को रद्द करने की प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद पहली महापंचायत थी और इस लिहाज से भी काफी अहम थी क्योंकि पहली बार ये उत्तर प्रदेश की राजधानी यानी राज्य के लगभग मध्य में हो रही थी। अभी तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही अलग-अलग जगहों पर किसान महापंचायतों ने सुर्खियां बटोरीं, लेकिन अब उसका रुख पूरे यूपी और उत्तराखंड की तरफ हो गया है।
 
हालांकि इससे पहले भी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल के कई जिलों में राकेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन और संयुक्त किसान मोर्चे के बैनर तले कई किसान महापंचायत कर चुके हैं।
 
युद्ध विराम एकतरफा है
लखनऊ के इको गार्डन में आयोजित इस महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि कृषि कानून वापस लेने के लिए प्रधानमंत्री ने ऐलान भले ही कर दिया हो लेकिन किसानों का आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक कि संसद से इसे रद्द नहीं कर दिया जाता। उन्होंने कहा कि इस मामले में संघर्ष विराम की घोषणा प्रधानमंत्री ने की है, किसानों ने नहीं। उनके मुताबिक, "एमएसपी पर गारंटी के कानून समेत अभी कई मामले हैं जिनका हल निकलने के बाद ही आंदोलन समाप्त होगा।”
 
राकेश टिकैत और दूसरे किसान नेताओं ने प्रधानमंत्री की बात पर भरोसा न जताने की बात दोहराते हुए उन पर कई आरोप लगाए। राकेश टिकैत का कहना था, "उन्होंने यह कहकर किसानों को विभाजित करने की कोशिश की कि वे कुछ लोगों को इन कानूनों को समझाने में विफल रहे। प्रधानमंत्री के माफीनामे से नहीं बल्कि नीति बनाने से किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिलेगा। एमएसपी पर कोई समिति नहीं बनाई गई है। यह झूठ है।"
 
किसान आंदोलन का दावा है कि वह राजनीतिक नहीं हैं और न ही इनके मंच पर किसी राजनीतिक दल के नेताओं को आने की अनुमति है, फिर भी इस आंदोलन के राजनीतिक मायनों को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चौधरी कहते हैं, "आंदोलन को समर्थन दे रहे विपक्षी दलों और उसकी वजह से बीजेपी की संभावित हार के चलते ही प्रधानमंत्री ने तीनों कानूनों को वापस लेने की बात कही है, अन्यथा वे इसे एक साल पहले भी ले सकते थे। दूसरी ओर, आरएलडी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन को किसान यूनियन का अघोषित समर्थन हासिल है, यह किसी से छिपा नहीं है। हां, किसान यूनियन खुद चुनावी राजनीति में नहीं उतरेगी।”
 
बीजेपी को नुकसान की आशंका
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी को नुकसान की आशंका थी। कानून वापसी संबंधी फैसले के पीछे इसी नुकसान की आशंका को बताया जा रहा है। हालांकि बीजेपी के कई नेता ऐसा नहीं मानते लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बीजेपी के नेता तो इसे स्वीकार भी करते हैं।
 
मुजफ्फरनगर बीजेपी के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "इस इलाके में जिस तरह से बीजेपी नेताओं का विरोध हो रहा था, उसे देखते हुए तो चुनाव में प्रचार करना तक मुश्किल हो जाता। कानून वापसी से कम से कम इतना तो हुआ कि अब नेता लोग क्षेत्र में प्रचार कर पाएंगे। हालांकि इससे नुकसान की भरपाई कितनी होगी, यह कहना मुश्किल है।”
 
आंदोलन में मौजूद सीपीआई और किसान नेता अतुल कुमार अंजान ने पूर्वांचल के वाराणसी इलाके में भी किसान महापंचायत आयोजित करने की मांग की। पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी और सुखदेव राजभर की पार्टी के साथ आ जाने के बाद जिस तरह से सपा लगातार इस इलाके में मजबूत हो रही है, राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, बीजेपी की स्थिति उतनी ही कमजोर हो रही है।
 
पूर्वांचल में भी असर
आंदोलन की खास बात यह रही कि इसमें बड़ी संख्या में पूर्वांचल, अवध और बुंदेलखंड के इलाकों के लोग शामिल हुए। अभी तक इन इलाकों में छिट-पुट तौर पर किसान संगठन आंदोलन जरूर कर रहे थे लेकिन आम किसानों की भागीदारी बहुत कम थी। किसान यूनियन के नेता इसे काफी सकारात्मक तरीके से ले रहे हैं।
 
प्रतापगढ़ से आए किसान वीरेंद्र मिश्र कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि इन इलाकों के किसान गाजीपुर बॉर्डर नहीं गए हैं। बल्कि सच्चाई यह है कि बड़ी संख्या में इस इलाके के लोग भी वहां मौजूद हैं। लेकिन वहां लोग इसलिए कम दिखते हैं क्योंकि एक तो वह दूर है और दूसरे, पुलिस किसानों को कदम-कदम पर रोक रही है। ऐसे में लोग वहां तक पहुंच नहीं पा रहे हैं।”राष्ट्रवादी किसान क्रांतिदल, अवध के क्षेत्र में सक्रिय एक किसान संगठन के अलावा राजनीतिक दल भी है। पार्टी के अध्यक्ष अमरेश कहते हैं कि क्रांतिदल शुरू से ही कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्षरत है और उनके समर्थक गाजीपुर बॉर्डर पर भी लगातार जाते रहे हैं।
 
अमरेश मिश्र के मुताबिक, "किसान आंदोलन से जुड़े लोगों को पहले तमाम आरोप लगाकर उन्हें खारिज करने की कोशिश की गई लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव और हाल ही में कुछ राज्यों में हुए उपचुनाव में जिस तरीके से बीजेपी की पराजय हुई है, उसे देखते हुए बीजेपी को सतर्क होना ही था। बीजेपी को पहले तो लगा कि पश्चिम में होने वाले नुकसान की भरपाई, यूपी के पूर्वांचल और मध्य भाग में ही कर लेंगे लेकिन सुभासपा जैसी पार्टियां जब सपा के झंडे के नीचे आने लगीं तो बीजेपी को हार का डर और ज्यादा सताने लगा। कानून वापस लेने के पीछे यही राजनीति है।”
 
26 नवंबर को किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने पर महापंचायत में गाजीपुर बॉर्डर पर जुटने की अपील की गई है और साथ ही यह भी कहा गया है कि संसद सत्र के दौरान किसान संसद की ओर कूच करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "यदि सरकार कृषि कानून पिछले साल ही वापस लेने की घोषणा कर देती, तो नुकसान की गुंजाइश कम थी लेकिन अब कुछ ज्यादा देर हो गई है। किसान भी समझ रहे हैं कि चुनाव से ठीक पहले इसे रद्द कर देना, हृदय परिवर्तन नहीं बल्कि राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति को ध्यान में रखकर किया गया फैसला है।”
रिपोर्ट : समीरात्मज मिश्र
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