शुक्रवार, 8 नवंबर 2024
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Written By राम यादव

स्वीडन को क्यों चुकानी पड़ती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत?

स्वीडन को क्यों चुकानी पड़ती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत? - Freedom of Expression of Sweden
Freedom of Expression of Sweden: स्वीडन उत्तरी यूरोप का एक राजशाही लोकतंत्र है। मात्र 1 करोड़ 42 लाख निवासियों का यह देश 1901 से हर वर्ष अक्टूबर में जब वैज्ञानिकों, साहित्यकारों व शांतिवादियों के लिए नोबेल पुरस्कारों की घोषणा करता है, तब सारी दुनिया उसके खुलेपन की वाहवाही करती है। पर वही स्वीडन जब पिछले 250 वर्षों से अपने यहां चल रही हर प्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आज भी अपने निवासियों को देता है, तो उसकी लानत-मलानत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। 
 
स्वीडन की पुलिस वहां के नागरिकों को अभिव्यक्ति की इसी स्वतंत्रता के अधीन धार्मिक पुस्तकों को भी जलाने की अनुमति देती रही है। वहां की अदालतें भी इसके पक्ष में कई फैसले दे चुकी हैं। अपने नागरिकों को यह निरंकुश स्वतंत्रता देने की स्वीडन को भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
 
कोई और समुदाय तो बिफरता नहीं, पर कुरान जलाने या उसका अनादर करने की जब भी कोई घटना होती है, तब उसके विरोध में पूरा इस्लामी जगत उठ खड़ा होता है। 21 जुलाई 2023 वाली पिछली घटना की ख़बर मिलते ही इराक़ की राजधानी बगदाद में तो स्वीडन का दूतावास ही बुरी तरह जला दिया गया। स्वीडन की महिला राजदूत को अपमानजनक ढंग से तुरंत निष्कासित कर दिया गया।
 
स्वीडन की गुप्तचर सेवा की चिंता : ऐसी उग्र प्रतिक्रियाओं से स्वीडन की घरेलू गुप्तचर सेवा 'सैकेरहेत्सपोलीसन' भी दहल गई है। वह अब विदेशों में ही नहीं, स्वयं स्वीडन के भीतर भी उग्र इस्लामवादियों द्वारा दुष्प्रचार अभियानों और प्रतिशोध की हिंसक कार्रवाइयों के बढ़ने का ख़तरा देखती है। उसके एक बयान के अनुसार, स्वीडन को अब एक सहिष्णु देश मानने के बदले मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण देश के रूप में देखा जाता है। मुसलमानों में यह धारणा घर कर रही है कि स्वीडन के अधिकारीगण मुसलमानों पर हमले होना बुरा नहीं मानते। अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं कि मुस्लिम बच्चों का 'अपहरण' तक होने लगा है। 
 
इस्लामी देशों में स्वीडिश नागरिकों और स्वीडिश हितों के विरुद्ध धमकियां बढ़ रही हैं। इन सब कारणों से कई स्वीडनवासी भी अब कुरान के अपमान को एक अनावश्यक उकसावे के तौर पर देखते हैं और चाहते हैं कि इस पर प्रतिबंध लगाया जाए। प्रश्न उठता है कि स्वीडन में कुरान जलाई जाने जैसी घटनाएं इक्का-दुक्का लोगों द्वारा किए गए उकसावे हैं या कोई संगठित आंदोलन है? धर्मों की आलोचना करने की छूट 'इस्लामोफ़ोबी' पर लक्षित कोई नवीनता है या इसका कोई इतिहास भी है?
 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लंबी परंपरा : स्वीडनवासियों से पूछने पर वे कहते हैं कि इस्लाम उनके लिए एक बहुत नया अनुभव है, जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उनके यहां कम से कम ढाई सौ वर्ष लंबी परंपरा है। यदि ऐसा नहीं होता, तो इस्लामी देशों सहित दुनिया के अन्य देशों से आने वाले हर प्रकार के विधर्मी शरणार्थियों को शरण देने के लिए स्वीडन प्रसिद्ध नहीं होता। यही कारण है कि आज 1 करोड़ 42 लाख निवासियों के देश स्वीडन में शरणार्थी बन कर आए मुस्लिमों की संख्या बढ़ते-बढ़ते अब 8 लाख हो गई है। कुल जनसंख्या में उनका अनुपात भी लगभग 8 प्रतिशत हो गया है।
 
तथ्य यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम या कुरान के विरुद्ध प्रदर्शन की पुलिस से अनुमति मांगने वाले इक्के-दुक्के लोग ही होते हैं। वे प्रायः 10-20 दर्शक ही जुटा पाते हैं। मीडिया में ख़बर बनने के लिए बात का बतंगड़ तब बनता है, जब इन इक्के-दुक्के प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के लिए मुसलमानों की भीड़ जमा हो जाती है। पथराव, आगजनी और दंगे होने लगते हैं।
 
पिछली दो घटनाएं : कुरान के अनादर से जुड़ी जुलाई महीने की पिछली दो घटनाएं दो ऐसे लोगों द्वारा की गईं, जो मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, खुद अरबी देश इराक से आए हैं। स्वीडिश दैनिक 'दागेंस निहेतर' के अनुसार, उनमें से एक 37 साल का है। वह 2021 में इराक से स्वीडन आया था। उसके पास स्वीडन में रहने का केवल तीन साल का परमिट है। वह एक ईसाई है, जिसे इराक से भागना पड़ा था।
 
आव्रजन अधिकारियों का हवाला देते हुए अख़बार 'दागेंस निहेतर' ने लिखा कि अब इस बात की जांच की जाएगी कि उस व्यक्ति को मिली सुरक्षा और उसका निवास परमिट क्या रद्द कर दिया जाना चाहिए। वह तो फरवरी में ही राजधानी स्टॉकहोम में कुरान सरेआम जलाना चाहता था, लेकिन पुलिस ने उस समय उसे इसकी अनुमति नहीं। तब से अदालतों ने इस तरह के दो मामलों में पुलिस के निर्णयों को पलट दिया है।
 
अनुमति होते हुए भी कोई पवित्र पुस्तक नहीं जलाई : कुरान जलाने की 21 जुलाई वाली घटना के तुरंत बाद, अहमद ए. नाम के एक इराकी ने राजधानी स्टॉकहोम में यहूदियों की पवित्र पुस्तक तोरा और ईसाइयों की पवित्र पुस्तक बाइबल जलाने की घोषणा की। उसकी बताई जगह और समय पर मीडिया वाले भी वहां जमा हो गए। किंतु एक वक्तव्य देने के बाद इस व्यक्ति ने अपना इरादा बदल दिया। कोई पुस्तक नहीं जलाई। अदालती निर्णयों के आधार पर उसे भी अपनी बात कहने की पहले से ही अनुमति मिली हुई थी।
 
विदेशों में उग्र प्रतिक्रिया के प्रकाश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्वीडिश कानून अब वहां भी बहस का विषय बन गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्वीडन में भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। वह शत-प्रतिशत निर्बाध या निरंकुश नहीं है। अंकुश तब लगता है, जब अभिव्यक्ति की आड़ लेकर सरासर घृणा और विद्वेष फैलाया जाने लगे। किंतु धर्मों की आलोचना पूर्णतः कानून सम्मत है। किसी धर्म या धर्मग्रंथ की आलोचना करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वमान्य हिस्सा है।
 
कोई भी, किसी भी धर्म की आलोचना कर सकता है : स्वीडिश कानून के अनुसार, कोई भी किसी भी धर्म की तथ्यसंगत आलोचना कर सकता है। हर धर्म विशुद्ध ईश्वरीय वाक्य ही नहीं होता। स्वयं ईश्वर की अवधारणा या व्याख्या भी हर धर्म में एक जैसी नहीं है। सदियों पूर्व लिखे गए कथित पवित्र ग्रंथों-पुस्तकों में स्वाभाविक है कि कुछ न कुछ धार्मिक जड़ता, अंधविश्वास या पोंगापंथी भी होती ही है, जिसे आंख मूंद कर शिरोधार्य करना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता। 
 
प्रश्न यह भी है कि क्या किसी कथित पवित्र पुस्तक को जलाने से किसी धार्मिक समाज या जातीय समूह के खिलाफ उत्तेजना पैदा होना अनिवार्य है? स्वीडन की अदालतों ने इस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं सुनाया है। 20 जुलाई वाले दिन स्वीडन में जिस व्यक्ति ने कुरान की एक प्रति को पैरों तले रौंदा, उस पर घृणा फैलाने वाला भाषण देने का भी आरोप लगाया गया है। इस कारनामे के संदर्भ में स्वीडन के वकीलों के बीच आम राय यह बताई जाती है कि यह नफरत फैलाने वाले भाषण जैसा अपराध नहीं है, हालांकि इसकी विपरीत व्याख्या भी संभव है। 
 
ईशनिंदा भी अपराध नहीं : यह जिज्ञासा होना भी स्वाभाविक ही है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता अधिनियम स्वीडन में इतना महत्वपूर्ण भला क्यों है? स्वीडन ने ही इस स्वतंत्रता की अलख जगाने का ठेका क्यों ले रखा है? वास्तव में, स्वीडन दुनिया का पहला ऐसा देश था जिसने 1766 में प्रेस की स्वतंत्रता का कानून बनाया। यह 250 वर्ष से भी पहले की बात है। वहां अपनी राय निर्भीकता के साथ स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की एक लंबी परंपरा है। इसी परंपरा के चलते 1970 में ईशनिंदा (ब्लासफ़ेमी) को अपराध मानने का नियम खत्म कर दिया गया। धर्मों की चरम आलोचना को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही हिस्सा माना गया। इसीलिए स्वीडन के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे अधिक सुरक्षा मिली हुई है।
 
इस साहसिकता की कीमत के तौर पर स्वीडन को बहुत कुछ झेलना भी पड़ता है : विदेशों में में अपने प्रति शत्रुता और स्वदेश में उथल-पुथल। यहां तक कि कुरान जलाने की घटनाओं के कारण उसके लिए अमेरिकी नेतृत्व वाले 'उत्तर एटलांटिक संधि संगठन' नाटो की मनचाही सदस्यता का रास्ता भी अब तक खुल नही पाया है।
 
तुर्की ने अड़ाई टांग : यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से पहले स्वीडन नाटो की सदस्यता चाहता ही नहीं था। अब चाहता है, तो नाटो के एकमात्र मुस्लिम सदस्य देश तुर्की ने टांग अड़ाकर अपने वीटो द्वारा उसका रास्ता रोक रखा है। तुर्की के लिए इस्लाम राजधर्म है, तो स्वीडन के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदेश देने वाला उसका संविधान 'राजधर्म' बन गया है। अनुदार तुर्की, स्वीडन की उदारता को पचा नहीं पा रहा है, भले ही बहाना यह बनाता है कि स्वीडन पहले अपने यहां के उन कुर्दों का तुर्की को प्रत्यर्पण करे, जिन्हें तुर्की आतंकवादी मानता है, तब तुर्की भी अपने पैर पीछे हटा लेगा।
 
तुर्की के निवासी रहे कुर्दों की एक बड़ी संख्या ने स्वीडन में शरण ले रखी है। अधिकांश कुर्द सुन्नी मुसलमान होते हुए भी सुन्नी बहुल तुर्की में सबसे अधिक अत्याचार एवं दमन पीड़ित एक अवांछित अल्पसंख्यक जाति हैं। तुर्की की करीब 8 करोड़ 50 लाख की जनसंख्या में कुर्दों का अनुपात 18 से 20 प्रतिशत तक बताया जाता है। उनकी बस्तियों पर तोपों से गोले और विमानों से बम तक बरसाए जाते हैं, पर मीडिया सहित दुनिया में कोई उनकी गुहार नहीं सुनता। 
 
तुर्की ने स्टॉकहोम में हुए कुरान के अपमान की कड़ी निंदा की। तुर्की के राष्ट्रपति रेजब तैयब एर्दोआन ने अतीत में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि जब तक स्वीडन में कुरान को जलाया जाएगा, तब तक स्वीडन को नाटो की सदस्यता देने के लिए वे राज़ी नहीं होंगे। नाटो के नियमों के अनुसार, किसी नए देश की सदस्यता के लिए सभी देशों की सहमति अनिवार्य है। तुर्की की आपत्ति पर टिप्पणी करते हुए स्वीडन के एक वकील ने टेलीविज़न पर एक बहस में कहा कि इस्लामी देश खुद तो किसी को मुंह खोलने देते नहीं और चाहते हैं कि दूसरे देश भी उन्हीं की तरह सबके मुंह बंद रखें।
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