भगवान श्री कृष्ण के भक्त संत सूरदास (Life story of Surdas) का जन्म तिथि के अनुसार वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। उन्हें हिन्दी के अनन्यतम और ब्रजभाषा के आदि कवि कहा जाता है। संपूर्ण भारत में मध्ययुग में कई भक्त कवि और गायक हुए लेकिन सूरदास का नाम उन सभी कवि/गायकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान कवि के तौर पर लिया जाता है।
जिन्होंने श्री कृष्ण भक्ति में अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया था। यह 'सूरसागर' के रचयिता सूरदास की लोकप्रियता और महत्ता का ही प्रमाण है कि एक अंधे भक्त गायक का नाम भारतीय धर्म इतने आदर से लिया जाता है।
कवि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नाम के गांव में बहुत निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके तीन बड़े भाई थे। सूरदास जन्म से ही अंधे थे, किंतु भगवान ने उन्हें सगुन बताने की एक अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण करके धरती पर भेजा था। मात्र छ: वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने माता-पिता को अपनी सगुन बताने की विद्या से चकित कर दिया था। लेकिन उसके कुछ ही समय बाद वे घर छोड़कर अपने घर से चार कोस दूर एक गांव में जाकर तालाब के किनारे रहने लगे थे।
सगुन बताने की विद्या के कारण शीघ्र ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। इस उपलब्धि के साथ ही वे गायन विद्या में भी शुरू से ही प्रवीण थे। अत: उन्हें शीघ्र ही अच्छी प्रसिद्धि मिली। लेकिन फिर अठराह साल की उम्र में उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और सूरदास वह स्थान छोड़कर यमुना के किनारे (आगरा और मथुरा के बीच) गऊघाट पर आकर रहने लगे।
गऊघाट पर उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई। सूरदास गऊघाट पर अपने कई सेवकों के साथ रहते थे और वे सभी उन्हें 'स्वामी' कहकर संबोधित करते थे। वल्लभाचार्य ने भी प्रभावित होकर उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मंदिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे। वहां वे कृष्ण भक्ति में मग्न रहें।
उस दौरान उन्होंने वल्लभाचार्य द्वारा 'श्रीमद् भागवत' में वर्णित कृष्ण की लीला का ज्ञान प्राप्त किया तथा अपने कई पदों में उसका वर्णन भी किया। उन्होंने 'भागवत' के द्वादश स्कन्धों पर पद-रचना की, 'सहस्त्रावधि' पद रचे, जो 'सागर' कहलाएं। सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर अकबर भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकें। अत: उन्होंने मथुरा आकर सूरदास से भेंट की।
श्रीनाथजी के मंदिर में बहुत दिनों तक कीर्तन करने के बाद जब सूरदास को अहसास हुआ कि भगवान अब उन्हें अपने साथ ले जाने की इच्छा रख रहे हैं, तो वे श्रीनाथजी में स्थित पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गए और श्रीनाथ जी की ध्वजा का ध्यान करने लगे। इसके बाद सूरदास ने अपना शरीर त्याग दिया।
सूरदास जी द्वारा लिखित पांच प्रमुख ग्रंथ बताए जाते हैं-
* सूरसागर,
* साहित्य-लहरी,
* नल-दमयंती
* सूरसारावली,
* ब्याहलो।
सूरदास की रचना महान कवियों के बीच अतुलनीय है। वे सच्चे कृष्ण भक्त, कवि थे जो सत्य का अन्वेषण कर उसे मूर्त रूप देने में समर्थ होते हैं। सूरदास जी का निधन काल निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं परन्तु अनुमानतः सौ वर्ष से अधिक की उम्र पाकर वे सं. 1630-35 वि. (सन् 1573-78) ई. के लगभग पारसोली ग्राम में दिवंगत हुए थे।
कवि सूरदास का नाम हिंदी साहित्य में प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने कृष्ण लीला को अपने काव्य का विषय बनाया। यहां पढ़ें उनके प्रमुख दोहे-
दोहे- Surdas ke Dohe
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरूवनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।।
चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट-लटकनि मन मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।।
कठुला-कंठ, वज्र केहरि-नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एको पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।।
छांड़ि मन हरि-विमुखन को संग।
जाके संग कुबुधि उपजति है, परत भजन में संग।।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाये गंग।
खर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषन अंग।।
पाहन पतित बान नहि भेदत, रीतो करत निषंग।
'सूरदास' खल कारि कामरि, चढ़ै न दूजो रंग।।
मेरौ मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै।।
कमल-नैन कौ छांड़ि महातम, और देव कौ ध्यावै।
परम गंग कौं छांड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै।।
जिहि मधुकर अंबूज-रस-चाख्यौ, क्यों करील-फल भावै।।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।।
किलकत कान्ह घुटुरूवनि आवत।
मनिमय कनक नंद कैं आंगन, बिम्ब पकरिबैं धावत।।
कबहुं निरखि हरि आपु छांह कौं, कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हंसत राजत द्वै दतियां, पुन-पुन तिहिं अवगाहत।।
कनक-भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति।
प्रतिकर प्रतिपद प्रतिमान वसुधा, कमल बैठकी साजति।।
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अंचरा तर लै ढांकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति।।