काश... अपने साथियों की जगह मैं देश के लिए शहीद हो गया होता!
कारगिल में कई भारतीय जांबाजों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। लेकिन जीत के बाद जो लौटकर घर आए उनका संघर्ष और बलिदान भी कम नहीं था।
एक ऐसी ही कहानी है 61 वर्षीय सेवानिवृत्त कैप्टन वली मोहम्मद की। आइए सुनते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।
कैप्टन मोहम्मद वली ने मीडिया को बताया...
1999 मेरी जिंदगी का सबसे अहम साल था। मैं सिलीगुड़ी सिकना में पदस्थ था। शाम का वक्त था ठीक इसी दौरान इंजीनियरिंग सेवा बटालियन को सूचना मिली कि लेह क्षेत्र में तैनाती की गई है, हम तत्काल रवाना हो गए।
कारगिल पहाड़ियों में 6454 पोस्ट पर तैनाती की गई। पहाड़ियों की ऊंचाइयां दिल दहला देने वाली थीं।
ऐसी ही पहाड़ियों में फुटपाथ, पगडंडियां और रास्ते बनाए। लगभग एक माह में रात और दिन का पता नहीं चला। सूचना मिलते ही हमारी बटालियन में शामिल एक अधिकारी और नौ साथी पूरी तरह जुट गए। पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा था। गोलीबारियों के बीच जान जोखिम में थी। लगातार विषम परिस्थितियों में सिर्फ इस देश की धरती को बचाने और सीना तानकर दुश्मनों को जवाब देने का मकसद था।
मोहम्मद वली ने बताया कि उस दौरान बच्चे छोटे थे। दो बेटे और एक बेटी। पत्नी सकीना से मिले एक साल हो गया था। उस वक्त मेरे पिता मोहम्मद नासीर व मां रुकैया उम्रदराज हो रहे थे। उनकी सेहत की भी चिंता थी।
जब लड़ाई के लिए निकला तो माता-पिता ने उन्हें सेहत का ध्यान रखने और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने की नसीहत दी थी।
युद्ध का वो वक्त बहुत मुश्किलभरा था। लेकिन मन रोमांचित भी था। तकलीफ यह थी कि उस वक्त हमारे कई साथी शहीद हो चुके थे। मोहम्मद वली ने बताया कि इन दिनों कैप्टन रैंक से सेवानिवृत्त जिंदगी बिता रहा हूं। बेटी की शादी हो गई। दोनों बेटे सेना में जाना चाहते थे, परंतु मेडिकल फिटनेस नहीं बन पाया।
कैप्टन वली का कहना है काश, मेरे साथियों की जगह मैं शहीद हो जाता। अभी भी समाचारों में पाकिस्तान की कायराना हरकत को देखता हूं तो यहीं कहूंगा कि पाकिस्तान भरोसे लायक नहीं है। सीजफायर में भी फायरिंग करना उसकी पुरानी आदत है। माता-पिता चल बसे हैं। उन्हें सुकून था कि बेटे ने देश सेवा की और अमानत के तौर पर प्रशंसा पत्र लाया है।