मैं किधर देख रहा हूँ
योगेंद्र दत्त शर्मा
खँडहर में बदलता हुआ घर देख रहा हूँ, इतिहास में ढलता ये पहर देख रहा हूँ।इच्छा है उड़ूँ, सपनों के आकाश में मैं भी,पर क्या करूँ, टूटे हुए पर देख रहा हूँ।जिस चीज़ को छूता हूँ, वही लगती है नश्तर,मैं आपके हाथों का हुनर देख रहा हूँ।वह मेरे बदलते हुए तेवर से चकित हैं,मैं उनका बदलता हुआ स्वर देख रहा हूँ।नम आँख, रुँधा कंठ, गवाही यही देते,उज़डा हुआ सपनों का शहर देख रहा हूँ।सरका के मुझे, लोग शिखर पर चढ़े कब के,मैं अपने लिए राहगुज़र देख रहा हूँ।मैं देख रहा हूँ उन्हें उनकी ही नज़र से,वो पूछ रहे हैं, मैं किधर देख रहा हूँ।साभार:समकालीन साहित्य समाचार