गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
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Written By Author श्रवण गर्ग

खिड़कियों में बैठा हुआ देश!

खिड़कियों में बैठा हुआ देश! - The country sitting in the windows
जब नहीं होता देश सड़कों पर
वह कहीं भी नहीं होता
अपने ही घरों में भी नहीं!
 
फ़र्क़ है झरोखों, खिड़कियों
से देखने सड़कें
और देखने सड़क से
झरोखे और खिड़कियां
सिर्फ़ अंधेरा ही रिसता है बाहर
खिड़कियों की नसों से
डर का, कायरता का!
आकाश में खोदी गईं खंदकें
हैं खिड़कियां
चुराकर मुंह अंदर
ताकने बाहर का संताप सुराख़ों से!
 
हिम्मत का काम है
उतरना नीचे
पाटना सीढ़ियां, आना ज़मीन पर
खोलना बंद दरवाज़ा घर का
रखना पैर बाहर नंगी ज़मीन पर
करना सामना उन चेहरों का
नहीं आतीं नज़र जिनकी
तनी मुट्ठियां, चिपके हुए पेट,
बुझी आत्माएं खिड़कियों से!
 
सड़क से ही पड़ता है दिखाई
है बाक़ी अभी अंधेरा कितने घरों में
खिड़कियों से नहीं चलता पता
हो गई हैं सड़कें कितनी उदास
चले गए हैं लोग कितने
ख़ाली करके बस्तियां और शहर!
 
हो गया है ज़रूरी अब
करना सड़कों को आबाद
बना देना खिड़कियों को सुनसान
झांकती रहती हैं जो सड़कों की ओर
फहराती रहती हैं कांपते हुए हाथ
नायकों की तलाश में-
खलनायकों, तानाशाहों की ओर
बरसाती है पुष्प और मालाएं
अहंकारी माथों पर उनके!
 
इसके पहले कि हों जाएं
सड़कें खुद तब्दील सीढ़ियों में
हो गया है ज़रूरी बहुत
खिड़कियों का सड़क हो जाना!
 
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