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Written By श्रवण गर्ग

फादर्स डे : एक कन्फेशन

फादर्स डे : एक कन्फेशन - Father's Day: A Confession
नहीं देख पाते हैं कई बार
बहुत सारे चेहरे ठीक से
या उनकी आंखें ही जी भर कर
होती हैं जबकि ठीक सामने आंखों के
झांकते हुए आंखों में हमारी
पिता के चेहरे की तरह !
 
तलाशते रहते हैं फिर बार-बार
बहुत देर हो जाने के बाद
उन चेहरों को जो हो चुके हैं गुम
स्मृतियों के बियाबानों, फटे एलबमों में
पिता के चेहरे समेत!
 
सालों-साल रहा दिल्ली में
कोटला की दीवार से सटकर
सुनते हुए हर रात धड़कनें उसकी
निकलता रहा दिन में
राजघाट के पक्के मकानों से
गुजरते हुए रोज़ गार्डन के बीच से
कभी अनुपम के साथ तो कभी अकेले,
चीरते हुए कोटला को ठीक बग़ल से
पहुंचने ज़फ़र मार्ग, शॉर्ट कट से
नहीं देख पाया कोटला कभी भी भीतर से
पिता के चेहरे की तरह!
 
चेहरे भी लगने लगते हैं थकान,
किसी बस स्टाप या रास्ते की तरह
कराते रहते हैं इंतज़ार घंटों तक
किसी 502 या 503 नम्बर की बस का
उतरना है यूसुफ़ सराय या ग्रीन पार्क
ख़रीदना है कुछ सामान, सब्जियां
पहुंचना है तेज़ी से घर अपने
चल ही नहीं पाता पता कभी
बैठा है कौन बग़ल की सीट पर
या फिर खड़ा है शख़्स कौन
सटाए हुए चेहरा और सांसें नज़दीक
हो सकता है हो कोई
रोज़ का साथ सफ़र करने वाला
पर देख नहीं पाते उसे भी
पिता के चेहरे की तरह!
 
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