गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
- अर्थात गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। गुरु तो परम ब्रह्म के समान होता है, ऐसे गुरु को मेरा प्रणाम।
Guru Purnima Essay प्रस्तावना : हिन्दू धर्म में गुरु की बहुत महत्ता बताई गई। गुरु उस चमकते हुए चंद्र के समान होता है, जो अंधेरे में रोशनी देकर हमारा पथ-प्रदर्शन करता है। आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है। यह पर्व जून से जुलाई के बीच में आता है।
हमारे जीवन में गुरु का विशेष महत्व होता है और समाज में भी गुरु का स्थान सर्वोपरि है। भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी बढ़कर माना जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार संस्कृत में गु का अर्थ होता है अंधकार/अज्ञान एवं रु का अर्थ होता है प्रकाश/ज्ञान। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। अत: गुरु को महत्व देने के लिए ही महान गुरु वेद व्यास जी की जयंती पर गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
महत्व : इसी दिन भगवान शिव द्वारा अपने शिष्यों को ज्ञान दिया गया था। इस दिन कई महान गुरुओं का जन्म भी हुआ था और बहुतों को ज्ञान की प्राप्ति भी हुई थी। इसी दिन गौतम बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। गुरु पूर्णिमा पर्व को हिन्दू ही नहीं बल्कि जैन, बौद्ध और सिख धर्म के लोग भी मनाते हैं। गुरु की महत्ता को महत्व देते हुए प्राचीन धर्मग्रंथों में भी गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान बताया है। माता और पिता अपने बच्चों को संस्कार देते हैं, पर गुरु सभी को अपने बच्चों के समान मानकर ज्ञान देते हैं।
मनुस्मृति के अनुसार उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता है। इसीलिए उसे द्विज कहा जाता है। शिक्षा पूर्ण होने तक गायत्री उसकी माता तथा आचार्य उसका पिता होता है। पूर्ण शिक्षा के बाद वह गुरुपद प्राप्त कर लेता है।
कथा- गुरु पूर्णिमा से संबंधित पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि वेदव्यास भगवान विष्णु के अंश स्वरूप कलावतार हैं। उनके पिता का नाम ऋषि पराशर तथा माता का नाम सत्यवती था। उन्हें बाल्यकाल से ही अध्यात्म में अधिक रुचि थी।
अत: उन्होंने अपने माता-पिता से प्रभु दर्शन की इच्छा प्रकट की और वन में जाकर तपस्या करने की आज्ञा मांगी, लेकिन माता सत्यवती ने वेदव्यास की इच्छा को ठुकरा दिया। तब वेदव्यास के हठ पर माता ने वन जाने की आज्ञा दे दी और कहा कि जब घर का स्मरण आए तो लौट आना। इसके बाद वेदव्यास तपस्या हेतु वन चले गए और वन में जाकर उन्होंने कठिन तपस्या की।
इस तपस्या के पुण्य-प्रताप से वेदव्यास को संस्कृत भाषा में प्रवीणता हासिल हुई। तत्पश्चात उन्होंने चारों वेदों का विस्तार किया और महाभारत, अठारह महापुराणों सहित ब्रह्मसूत्र की रचना की। वेदव्यास को हम कृष्णद्वैपायन के नाम से भी जानते है। अत: हिन्दू धर्म में वेदव्यास को भगवान के रूप में पूजा जाता है। इस दिन वेदव्यास का जन्म होने के कारण इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। महर्षि वेदव्यास को अमरता का वरदान प्राप्त है। अतः आज भी महर्षि वेदव्यास किसी न किसी रूप में हमारे बीच उपस्थित हैं।
इतिहास की नजर में : प्राचीनकाल से ही भारत में गुरु और शिष्य की परंपरा रही है। भगवान शिव के बाद गुरुदेव दत्त यानी दत्तात्रेय को सबसे बड़ा गुरु माना गया है। इसके बाद देवताओं के पहले गुरु अंगिरा ऋषि थे। उसके बाद अंगिरा के पुत्र बृहस्पति गुरु बने। उसके बाद बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज गुरु बने थे। इसके अलावा हर देवता किसी न किसी का गुरु रहा है। सभी असुरों के गुरु का नाम शुक्राचार्य हैं। शुक्राचार्य से पूर्व महर्षि भृगु असुरों के गुरु थे। कई महान असुर हुए हैं जो किसी न किसी के गुरु रहे हैं।
महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य, कौरव और पांडवों के गुरु थे। परशुराम जी कर्ण के गुरु थे। इसी तरह किसी ना किसी योद्धा का कोई ना कोई गुरु होता था। वेद व्यास, गर्ग मुनि, सांदीपनि, दुर्वासा आदि। चाणक्य के गुरु उनके पिता चणक थे। महान सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु आचार्य चाणक्य थे। चाणक्य के काल में कई महान गुरु हुए हैं।
ऐसा कहा जाता है कि महावतार बाबा ने आदिशंकराचार्य को क्रिया योग की शिक्षा दी थी और बाद में उन्होंने संत कबीर को भी दीक्षा दी थी। इसके बाद प्रसिद्ध संत लाहिड़ी महाशय को उनका शिष्य बताया जाता है। नवनाथों के महान गुरु गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे, जिन्हें 84 सिद्धों का गुरु माना जाता है।
उपसंहार : गुरु के अभाव में हमारा जीवन शून्य होता है। गुरु अपने शिष्यों से कोई स्वार्थ नहीं रखते हैं, उनका उद्देश्य सभी का कल्याण ही होता है। गुरु को उस दिन अपने कार्यो पर गर्व होता है, जिस दिन उसका शिष्य एक बड़े पद पर पहुंच जाता है। एक व्यक्ति गुरु का ऋण सभी नहीं चुका पाता है। गुरु और शिक्षकों का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। एक विद्यार्थी के जीवन में गुरु अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। गुरु के ज्ञान और संस्कार के आधार पर ही उसका शिष्य ज्ञानी बनता है। गुरु मंद बुद्धि के शिष्य को भी एक योग्य व्यक्ति बना देते हैं। संस्कार और शिक्षा जीवन का मूल स्वभाव होता है। इनसे वंचित रहने वाला व्यक्ति बुद्दू होता है। गुरु के ज्ञान का कोई तोल नहीं होता है।
इस दिन हमारे गुरु और शिक्षक की आराधना करते हैं और उन्हें भेंट देकर उनका आदर करते हैं। इस दिन पाठशाला, स्कूल, कॉलेज, आश्रम और गुरुकुलों में शिक्षकों और गुरुओं के सम्मान के लिए कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। तथा गुरुओं के सम्मान में गीत, भाषण, कविताएं, नृत्य और नाटक किए जाते हैं। इस तरह गुरु पूर्णिमा के दिन विद्यार्थी अपने गुरु के सम्मान में अनेक गतिविधियां आयोजित करते हैं।