गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. हिन्दी दिवस
  4. hindi bhasha
Written By सुधा अरोड़ा

हिन्दी को सरल रहने दीजिए

हिन्दी को सरल रहने दीजिए - hindi bhasha
हिन्दी के पाठयक्रमों में 'सफाई' की जरूरत है... 

 
FILE


हिन्दी पढ़ाने की गलत नींव से एक अनवरत सिलसिला शुरू होता है, जो हर राज्य के अलग-अलग पाठयक्रमों में एमए, पीएचडी तक चलता है। सन 1968 से, जब से मैंने कलकत्ता के एक अहिन्दीभाषी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया, जहां अधिकांश छात्राएं बंगाली थीं, लगातार इस बात को महसूस किया कि हमारा पाठयक्रम समय के साथ चलने में बिल्कुल असमर्थ हैं। 

इतने सालों में लगातार इस बारे में बोलती लिखती आ रही हूं पर कहीं कोई बदलाव के आसार दिखाई नहीं देते।

हिन्दी भाषा को अगर जिंदा रखना है तो पहली कक्षा की नर्सरी राइम्स से लेकर एमए के पाठयक्रम तक में पूरी तरह सफाई की जरूरत है। क्या आप विश्वास करेंगे कि तीसरी कक्षा के कोर्स में किसी एक ही कवि की लिखी हुई कुछ अधकचरी कविताओं की एक किताब है जिसमें न सही तुकबंदी है, न सही मात्राएं, न सही व्याकरण। उसकी पहली कविता है -

जिस पर चरण दिए हम, जिसको नमन किए हम,
उस मातृभूमि की रज को. . .



FILE


पांच छह साल के बच्चे को इस तरह की अशुद्ध हिन्दी में नीरस, उबाऊ कविताएं हम पढ़ाकर राजभाषा का क्या संस्कार डाल रहे हैं? गुलजार की कुछ मुक्त छंद की कविताएं या एकलव्य प्रकाशन की बच्चों की कविताएं भी इन तथाकथित देशप्रेम की भारी भरकम कविताओं से ज्यादा रोचक हैं।

यह कौन-सी हिन्दी हैं

हिन्दी के कुछ दैनिक अखबारों में जो बच्चों का पन्ना होता है, उसमें कई बार बारह से 15 साल के बच्चों की लिखी हुई इतनी सुंदर कविताएं होती हैं जो झट जबान पर चढ़ जाती हैं लेकिन नहीं, पता नहीं कैसी-कैसी जुगत भिड़ाकर ये पंडिताऊ प्राध्यापक पाठयक्रम में अपनी गोटियां बिठा लेते हैं फिर भले ही बच्चे ऐसी कविताएं पढ़कर हिन्दी पढ़ना छोड़ दें या अपने माता पिता से पूछें कि यह कौन-सी हिन्दी हैं।



मछली जल की रानी है, या इब्नबतूता का जूता या इक्का दुक्का कविताएं छोड़कर कहां हैं ऐसी कविताएं जिन्हें पढ़ने और रटने में बच्चे आनंद महसूस करें। क्यों नहीं हम बच्चों के कोर्स में उनके द्वारा ही लिखी गई आसान और दिलचस्प कविताएं रखते, बजाय इसके कि कविता को याद करने से पहले वे हर शब्द के अर्थ के लिए शब्दकोश खोलकर बैठें?

FILE


कई वर्ष पहले जब मेरी बड़ी बेटी सेंट्रल बोर्ड की दसवीं की परीक्षा दे रही थीं, उसके पाठयक्रम में रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता थी - परिचय। इस कविता की उपमाओं को समझाने के लिए अच्छे अच्छों के छक्के छूट जाएं।

हमारे राष्ट्रकवि ने 'मेरे नगपति, मेरे विशाल भी लिखी है, क्या हम परिचय के स्थान पर यह कविता या उनकी दूसरी अपेक्षाकृत आसान कविताएं नहीं रख सकते? ताकि दसवीं पास करके बच्चे ग्यारहवीं में पहुंचते ही पढ़ाई जानेवाली विदेशी हिन्दी छोड़कर, फ्रेंच या दूसरी किसी विदेशी भाषा को लेने के लिए छटपटाने न लगें?



हमने खुद ही तो अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया है, बोलना सीखते ही ट्विंकल ट्विंकल लिट्ल स्टार और जॉनी जॉनी यस पपा कविताएं रटवाई हैं। हिन्दी का क ख ग पढ़ाना तो दूसरी कक्षा से ही शुरू किया है।

FILE


हिन्दी माध्यम के सारे स्कूलों को बंद कर दिया है या उन्हें म्यूनिसिपल स्कूलों जैसा दोयम दर्जा दे दिया है और उसके बाद हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे दसवीं कक्षा में ही हिन्दी का समृद्ध साहित्य पढ़ें और यह समृद्धि जाहिर है या तो भक्तिकाल में हैं या छायावाद में (जिस छायावाद को कोई दलित प्राध्यापक उसकी क्लिष्ट भाषा और सौंदर्यवादी कलापक्ष के कारण हिन्दी साहित्य का कलंक कह देता है तो सेमिनार में सिर फुटौवल की नौबत आ जाती है।)



कलकत्ता में मैथिलीशरण गुप्त की 100 वीं जन्म शताब्दी पर भारतीय संस्कृति संसद (या भारतीय भाषा परिषद) ने एक सेमिनार आयोजित किया था जिसमें वयोवृद्ध साहित्यकार पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी ने इसी समस्या पर दस बारह पृष्ठों का एक लंबा आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने पाठयक्रम की एक पूरी की पूरी कविता का उद्धरण देते हुए बताया था कि कैसे दसवीं कक्षा की एक छात्रा उनके पास बड़ी आशाएं लेकर वह कविता समझने के लिए आईं पर उन्हें अफसोस जाहिर करना पड़ा।

FILE


यह सेमिनार 1982 या 83 में हुआ था पर आजतक इतने श्रद्धेय विद्वान के सुझावों पर अगर सेकेंडरी कक्षा का पाठयक्रम निर्धारित करने वाली समिति ने ध्यान नहीं दिया तो क्या हम सब की आवाजे भी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर नहीं रह जाएगी?

सन 2000 में महाराष्ट्र बोर्ड की कक्षा बारहवीं के हिंदी के पाठयक्रम की एक सुप्रसिद्ध कविता की बानगी देखें -

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर,
छोड़ रहे हैं जंग के विक्षत वक्षस्थल पर!
शत शत फेनोच्छवासित, स्फीत फुत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर!
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर,
अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुंडल, दिक्मंडल!
शत सहस्त्र शशि, असंख्य ग्रह उपग्रह, उड़गण,
जलते, बुझते हैं स्फुलिंग से तुम में तत्क्षण,
अचिर विश्व में अखिल दिशावधि, कर्म, वचन, भव,
तुम्हीं चिरंतन, अहे विवर्तन हीन विवर्तन!

यह सुप्रसिद्ध छायावादी कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की सुपरिचित कविता निष्ठुर परिवर्तन है। इसमें संदेह नहीं कि कविता में बिंब और प्रतीकों का अद्भुत संयोजन है, अनुप्रास अलंकार की छटा है पर ऐसी कविता पढ़ाने से पहले जिन्हें हम पढ़ा रहे हैं, उनकी पात्रता देखना भी आवश्यक है!

ऐसी कविताओं से हिन्दी की स्थिति में परिवर्तन सचमुच निष्ठुर होने की संभावना ही अधिक हैं। बारहवीं कक्षा के विद्यार्थी इसे पढ़ते हुए त्राहि-त्राहि कर उठते हैं।

यह बात जब मैंने यहां राष्ट्रभाषा महासंघ के राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में कही, (जहां हर वक्ता अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए क्या रणनीति अपनाई जाए, इसकी चर्चा में अपनी ऊर्जा ज्यादा खपा रहा था यानी आप बैंक में हिन्दी में हस्ताक्षर करें, अपने नामपट्ट हिन्दी में लिखें, थैंक्यू की जगह धन्यवाद, सॉरी की जगह क्षमा करें, गुडमॉर्निंग की जगह सुप्रभात बोलें वगैरह वगैरह) तो मुझपर भी हिन्दी प्रेमी श्रोता बरस पड़े थे।

एक सज्जन ने तो छूटते ही यह भी कहा कि आपकी तो मातृभाषा पंजाबी हैं, ख़ामख़्वाह हिन्दी के लिए इतना परेशान क्यों होती है?

दरअसल हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हमारी नई पीढ़ी कैसे हिन्दी की ओर आकर्षित हो, हिन्दी भाषा से उसे विरक्ति न हो। पाठयक्रम निर्धारित करने वाले लगभग सभी सदस्य हिन्दी बेल्ट से आते हैं और वे छात्रों की रुचि को अपने चालीस-पचास वर्ष पुराने मापदंड से ही मापते हैं। बदलता हुआ समय उनकी पकड़ से बाहर है।

वे सुमित्रानंदन पंत को पढ़ाए बिना दुष्यंत कुमार, रघुवीर सहाय, धूमिल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक पहुंच ही नहीं सकते। निष्ठुर परिवर्तन ही पढ़ाना है तो एम.ए. के कोर्स में पढ़ाएं, और बारहवीं में पंत जी को ही पढ़ाना है तो छात्र पंत जी की दो लड़के जैसी आसान कविता क्यों नहीं पढ़ सकते -

मनुज प्रेम से जहां रह सके, मानव ईश्वर,
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर!

ऐसा नहीं हैं कि हिन्दी में आज की नई पीढ़ी के समझ में आने लायक कविताएं नहीं हैं, वे बखूबी हैं पर हिन्दी का पाठयक्रम तय करनेवालों को, हिन्दी साहित्य पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को जब तक संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट हिन्दी की तत्सम-बहुल पंक्तियां नहीं मिलती, उन्हें संभवतः कविता या गद्य में भाषागत सौंदर्य दिखाई नहीं देता।

संभवतः वह सोचते होंगे कि ऐसे सहज सपाट गद्य और ऐसी सीधी सादी कविता को पाठयक्रम में क्या पढ़ाना जो बिना प्राध्यापक के भी समझ में आ जाए।