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Written By सुशोभित सक्तावत

अगर लोहिया उस दिन समय पर जाग जाते तो क्या कांग्रेस टूट जाती?

अगर लोहिया उस दिन समय पर जाग जाते तो क्या कांग्रेस टूट जाती? - Ram Manohar Lohia
डॉ. राममनोहर लोहिया की एक छोटी-सी पुस्तक है "भारत विभाजन के गुनहगार", जिसमें उन्होंने भारत विभाजन के कारणों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने की कोशिश की है। इस पुस्तक में गांधी के बारे में लोहिया की अंतर्दृष्ट‍ियां भी ग़ौरतलब है।
 
गांधी और लोहिया के संबंधों का परस्पर अत्यंत बहुस्तरीय था। लोहिया ने गांधी के "नमक आंदोलन" पर पुस्तकाकार शोध भी किया था। 
 
लेकिन कम ही लोग यह बात जानते हैं कि 30 जनवरी 1948 को जिस दिन गांधी की हत्या की गई, उसी दिन उन्हें लोहिया से मिलना था और कुछ महत्वपूर्ण बातें करना थीं। बहुत संभव है कि गांधी लोहिया से कांग्रेस के विघटन के बारे में बात करते।
 
वास्तव में बात इतनी भर नहीं है। गांधी-लोहिया की यह वार्ता इससे दो दिन पहले 28 जनवरी को ही होना थी। 27 जनवरी 1948 को लोहिया गांधी के तत्कालीन निवास पर उनसे मिलने पहुंचे थे। गांधी व्यस्त थे। उन्होंने कहा, अगर तुम रात को यहीं रुक जाओ, तो तड़के हम जल्दी उठकर कुछ ज़रूरी बातें करेंगे। लोहिया ने बात मान ली। 
 
लेकिन 28 की सुबह लोहिया देर तक सोते रह गए और गांधी ने उनकी नींद में ख़लल डालना उचित नहीं समझा। गांधी अपने कामों में व्यस्त हो गए और अब वार्ता का दिन 30 जनवरी तै हुआ। लेकिन दुर्भाग्य कि उसी दिन गोली मारकर गांधी की हत्या कर दी गई।
 
जिस "ग़ैरकांग्रेसवाद" के प्रणेता लोहिया माने जाते हैं, उसका बीज "गांधी-लोहिया" के उन संवादों में है, जो 1948 के उन प्रारंभिक दिनों में आकार ले रहे थे, लेकिन कभी मूर्त रूप नहीं ले पाया। 
 
इसके बाद नेहरू की कांग्रेस के विरुद्ध लोहिया ने आंबेडकर के साथ गठजोड़ किया, किंतु अब 1956 में आंबेडकर चल बसे। 
 
आख़िरकार, जयप्रकाश नारायण के साथ लोहिया की युति बनी। 1967 में लोहिया की मृत्यु होने तक "ग़ैरकांग्रेसवाद" का आंदोलन बल पकड़ चुका था, जिसकी शुरुआत 1967 में 9 राज्यों के चुनावों में ग़ैरकांग्रेसी सरकारों के गठन और अंतत: 1977 में केंद्र में ग़ैरकांग्रेसी "जनता सरकार" के गठन के रूप में हुई।
 
लेकिन "जनता सरकार" समस्या का स्थायी हल नहीं था। वह केंद्रीय गठजोड़ दुर्बल साबित हुआ और तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी ने शानदार वापसी करते हुए चुनाव जीत लिया। 
 
बहरहाल, आधुनिक भारतीय इतिहास के अनेक कौतूहलों में से एक यह भी है कि अगर गांधी और लोहिया 1948 में ही कांग्रेस का विघटन करने में सफल हो जाते तो देश की दशा-दिशा फिर क्या होती?
 
ऐसे ही कुछ और कौतूहल हैं :
 
अगर लालबहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु नहीं होती, तो क्या होता?
 
अगर सरदार पटेल या तो देश के प्रधानमंत्री बनते या कुछ और समय जीवित रहते, तो क्या होता?
 
अगर जिन्ना ने "अखंड भारत" का प्रधानमंत्री बनने का महात्मा गांधी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता, तो क्या होता?
 
या अगर कांग्रेस ने 1947 में कहा होता कि "भारत विभाजन" का प्रश्न ही नहीं उठता, अगर भारत की स्वतंत्रता कुछ और साल टल सकती है तो टल जाए, तो क्या होता?
 
ये सभी कौतूहल पृथक से विमर्श के विषय हैं। लेकिन इतना तो तय है कि अगर गांधी और लोहिया 1948 में ही कांग्रेस का विघटन करने में सफल रहते तो जिस नेहरूवादी कांग्रेस के इर्द-गिर्द स्वतंत्र भारत का पूरा ढांचा खड़ा है, उसका स्वरूप कुछ और ही होता।
 
कितने कौतूहल की बात है कि लोहिया की सुबह की गहरी नींद ने आधुनिक भारत के इतिहास की दशा-दिशा ही बदल दी।
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