सोपान जोशी
दो दर्जन सालों में 'विकास' लगातार बढ़ता ही रहा है। हम अपनी ही बनाई सीमा में रहने के लिए कतई तैयार नहीं है। 1.5 डिग्री सेल्सियस का अंतर जलवायु में आया है वह गर्मी-सर्दी के उतार-चढ़ाव से कहीं ज्यादा गंभीर है। मौसम के समयसिद्ध ढर्रे बदल रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के नतीजे क्या होंगे, इसके बारे में कोई ठीक से बता नहीं सकता। विकास की राजनीति और जलवायु परिवर्तन की गंभीरता पर सवाल उठाता प्रस्तुत आलेख।
250 साल पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रांति कोयला और पेट्रोलियम जलाए बिना घटित ही नहीं होती। आज जिसे हम 'आर्थिक विकास' कहते हैं वह भी नहीं होता। कार्बन का उत्सर्जन रोकने का मतलब है 'आर्थिक विकास को रोकना'। इसीलिए दुनिया भर के सभी देश इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हैं, वे दूसरों देशों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाते हैं, और खुद कटौती न करने के नित-नए तर्क निकालते रहते हैं। जलवायु परिवर्तन का कारण अगर कार्बन के ईंधनों का जलाना है, तो इसके न रुकने का सबसे बड़ा कारण राष्ट्रवादी होड़ है। सभी राष्ट्रीय सरकारें अपने छोटे राष्ट्रवादी हित को साधने के लिए संपूर्ण मनुष्य प्रजाति के भविष्य की बलि दे रही हैं। इसीलिए जलवायु परिवर्तन पर समझौता करने के लिए राष्ट्रीय सरकारें अपने सबसे चतुर कूटनीतिज्ञों को भेजती हैं। चाल पर चतुर चाल चली जाती है, दांव पर स्वार्थी दांव खेला जाता है। सब कुछ मीठे और आदर्शवाद में भीगे शब्दों में होता है।
सन् 1992 में कार्बन का उत्सर्जन घटाने की जिस संधि पर सारी दुनिया के देशों ने हस्ताक्षर किए थे, उस पर आज तक कुछ नहीं हुआ है। इन 24 सालों में अगर हुआ है, तो बस खानापूर्ति। ऊंट के मुहं में जीरा। इस सब में गांधीजी का नाम लेना उस अगरबती की तरह होता है जिसे दुर्गंध दूर करने के लिए जलाया जाता है।
पृथ्वी के 450 करोड़ साल के इतिहास में जब-जब वायुमंडल में कार्बन की मात्रा घटी है, हमारा ग्रह शीत युग में चला गया है। विशाल हिमखंड में इतना पानी जमा हो गया था कि समुद्र का स्तर नीचे गिरता गया। यह हिमखंड कुछ जगह तो एक-डेढ़ किलोमीटर से ज्यादा ऊंचे थे और महाद्वीपों के बड़े हिस्सों को ढंके हुए थे। फिर इस शीतकारी का ठीक उलटा भी हुआ है। हवा में कार्बन की मात्रा बढ़ने से हमारा ग्रह बहुत गर्म हुआ है। नतीजतन सारी बरफ पिघली है और समुद्र में पानी का स्तर इतना बढ़ा है कि महाद्वीपों के कई हिस्से समंदर के नीचे डूबे हैं। कार्बन की यह आंखमिचौली पृथ्वी पर जीवन के खेल का हिस्सा रही है।
मनुष्य भी इन्हीं जीवाणुओं की ही तरह पृथ्वी की एक संतान है। हमारे औद्योगिक विकास से जो कार्बन वायुमंडल में इकट्ठा हो रहा है। उसका असर धीर-धीरे बढ़ती गर्मी में दिखने लगा है। आजकल ऐसे उपकरण हैं, जो हवा में किसी एक गैस के अंशों को गिन सकते हैं, हवा में उस गैस की कुल मात्रा भी बता सकते हैं। इन उपकरणों से हवा के दस लाख अंशों में कार्बन के अंश गिने जा सकते हैं। यही नहीं, ऐसे उपकरण भी हैं जो हजारों-लाखों साल पहले हमारे वायुमंडल में कार्बन की मात्रा क्या थी, यह बता सकते हैं। इन उपकरणों से पता चला है कि जिस तरह की जलवायु में मनुष्य उत्पन्न हुआ था उससे कार्बन की मात्रा आज की तुलना में काफी कम थी।
जो भी प्रमाण मिले हैं, वे सभ्यता के उदय को आज से 10,000 साल पहले आंकते हैं। तब से हवा में कार्बन की मात्रा 275 अंष बनी रही है। औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन के ईंधन जलाने में क्रांतिकारी बढ़ोतरी हुई है। हर साल हवा में 2 अंश कार्बन बढ़ जाता है। इसे पचाने को जितनी वनस्पति चाहिए, वे न जमीन के ऊपर हैं और न समुद्र के भीतर। वैज्ञानिक मानते हैं कि जैसी हमारी दुनिया है वह कार्बन के 350 अंश तक वैसी ही बनी रहेगी। अगर कार्बन की मात्रा वायुमंडल में इससे ज्यादा बढ़ी और फिर घटी नहीं, तो पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आना निश्चित है।
वैसे, हवा में कार्बन की मात्रा मौसम के हिसाब से बदलती भी रहती है। अक्टूबर के महीने में यह बढ़नी शुरू होती है और मार्च तक अपने शीर्ष तक पहुंच जाती है। फिर घटना शुरू होती है और सितंबर के आखिरी हफ्ते तक सबसे नीचे गिर जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि अक्टूबर से मार्च तक उतरी गोलार्द्ध में सर्दी का मौसम होता है।
सूरज की रोशनी में कमी से पेड़-पौधों का भोजन बनाना कम हो जाता है, बहुत-सी जगह तो रुक ही जाता है। बहुत से वनस्पति की पत्तियां झड़ जाती हैं, और उनमें मौजूद कार्बन हवा में उड़ने लगता है। चूंकि ज्यादातर जमीन उत्तरी गोलार्द्ध के महाद्वीपों में है, तो अधिकतर वनस्पति भी उत्तरी गोलार्द्ध में हैं। जब यहां गर्मी का मौसम आता है तो पेड़-पौधों का भोजन बनाना भी बढ़ जाता है। सितंबर के महीने में जब उत्तर में ग्रीष्म ऋतु का अंत होता है, तब तक हवा में कार्बन की मात्रा सबसे नीचे आ चुकी होती है।
सन 2016 में भी ऐसा ही हुआ है। हर साल की तरह इस साल भी सिंतबर में वायुमंडल में कार्बन की मात्रा सबसे कम थी। प्रशांत महासागर के मध्य में, हवाई के द्वीपों पर स्थित एक वेधशाला है। इस साल ऐसा पहली बार हुआ कि यहां पर नापा हुआ कार्बन डाइ-ऑक्साइड का सबसे निचला स्तर भी 400 अंश तक नहीं पहुंचा था, और वह है अंटार्कटिका महाद्वीप पर। दक्षिण ध्रुव के ऊपर स्थित इस वेधशाला में 23 मार्च 2016 को कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा 400 अंष के ऊपर दर्ज हुई।
इसका अर्थ वैज्ञानिक यह निकालते हैं कि अब हमारे जीवनकाल में तो वायुमंडल में कार्बन 400 अंष के नीचे नहीं आएगा। वह दुनिया जिसे हम जानते-समझते हैं, जिसे हम अचल-अटल मानते हैं, वह एक नए दौर की तरफ तेजी से बढ़ रही है। गर्म दौर की तरफ। ऐसा नहीं है कि 399 अंश पर टिके रहना 400 अंश के पार चले जाने से बहुत बेहतर है। काल की दिशा और दशा, प्रकृति के विशाल चक्र हमारे एक-दो अंश के आंकड़ों से नहीं चलते। लेकिन सन् 1992 में, जब जलवायु परिवर्तन पर संधि हुई थी, तब से 400 अंश का आंकड़ा एक तरह लक्ष्य बना हुआ था। बार-बार दोहराया जाता था कि हमें 350 अंश के आसपास ही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को रोक देना चाहिए। इन दो दर्जन सालों में 'विकास' लगातार बढ़ता ही रहा है। हम अपनी ही बनाई सीमा में रहने के लिए कतई तैयार नहीं हैं। आज अगर हर तरह का कार्बन वाला ईंधन जलाना हम एकदम रोक दें तो भी हमारे जीवनकाल में वायुमंडल में कार्बन की मात्रा 400 अंश के नीचे नहीं आएगी, ऐसी वैज्ञानिक मानते हैं क्योंकि उद्योगों से पहले से ही इतना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हो चुका है कि उसके प्राकृतिक रूप से ठिकाने लगाने में बहुत समय लगेगा।
औद्योगिक क्रांति जब शुरू हुई थी तब से अब हमारी दुनिया का औसत तापमान लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। कोई पूछ सकता हैः डेढ़ डिग्री की बढ़त से क्या होता है? आखिर गर्मी और सर्दी में हमारे यहां कई जगहों में तापमान में 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा का अंतर आ जाता है। यह समझने के लिए जलवायु और मौसम का अंतर याद कर लेना चाहिए, जो असल में काल अंतर है। मौसम का माने एक छोटे समय में आबोहवा के हालात से है, जिसमे बदलाव होता ही रहता है। जलवायु का मतलब एक बड़े कालखंड से लिया जाता है। जब दृश्य इतना बड़ा हो, तो उसमें सभी बदलावों का ढर्रा दिखने लगता है, और वह बारीक संतुलन भी दिखाई पड़ता है जो आसानी से बदलता नहीं है। इस संतुलन में परिवर्तन आने से मौसमी बदलाव की जिस बानगी की हमें आदत है वह भी बदलने लगती है।
आजकल कुछ ऐसा चलन हो गया है कि लोग किसी भी समस्या को समझने के पहले ही उसका समाधान पूछने लगते हैं। जैसे जलवायु परिवर्तन का समाधान किसी परचून की दुकान या किसी टी.वी. चैनल के स्टूडियों में मिलता हो। (सप्रेस)