जब दुनिया में
, घर में या आसपास कहीं कोई घटना घटती है तो मैं उसे एक किनारे पर खड़ा होकर देखता हूं- जैसे मैं इसका हिस्सा नहीं हूं। मैं एक अजनबी हूं- और जो घटा है उसे दूर से हैरत में देख रहा हूं। एक डिस्टेंस से- मैं दूरी पर ही रहता हूं- मैं दुनिया से एक डिस्टेंस बनाकर ही रखता हूं।
दुनिया के गले में हाथ नहीं डाला जा सकता
, उससे दोस्ती ठीक बात नहीं। मैं उससे घर के बाहर खड़े अपने किसी कम परिचित मित्र की तरह बर्ताव करता हूं।
इस दुनिया से कभी एकाकार नहीं करता
, लेकिन इस बार जब पग- पग अर्थी
, डग- डग अग्नि है। राम के नाम के बग़ैर भी चारों तरफ सत्य ही सत्य बिखरा पड़ा हो तो बीच में कहीं कोई नहीं रह जाता
, वो दूरी ख़त्म हो गई
, मैं दुनिया से एकाकार हो गया।
जिसे प्लास्टिक में लिपटाकर ले जाया जा रहा था वो ठंडी और निस्तेज देह मैं ही हूं। जो अपनी अग्नि के लिए प्रतीक्षा करता रहा वो लाश मैं ही हूं। शमशान में जगह नहीं मिलने पर जिसे घाट से थोड़ा सा नीचे सरकाकर जलाया गया वो शव मैं ही हूं।
जो भट्टी की चिमनी से निकलकर यहां वहां पसरा वो धुंआ में ही हूं। भीड़ में जिस लाश को कोहनी मारकर हटा दिया वो लाश मैं ही हूं। जो अस्पताल से निकलकर राम नाम सत्य की बजाए एक सायरन के साथ घाट पर पहुंचा वो मैं ही हूं।
अभी मैं कतार में हूं। अभी मैं प्रतीक्षारत भी हूं। अभी रास्ते में भी मैं ही हूं। जो चला गया वो मैं ही था
, जो जाने वाला है वो भी मैं ही रहूंगा। अगर बच गया तो वो बचा हुआ भी मैं ही होऊंगा।
इस वक़्त में किनारे पर खड़ा होकर नहीं देख सका
, इस बार मैं इस प्रतीक्षारत दुनिया का हिस्सा हूं। जीवन में हर वक़्त दृष्टा होना भी ठीक नहीं
, कभी तो द्वेत से निकलकर अद्वैत सृष्टि में शामिल होना पड़ेगा। कभी तो हम कहें अपने पास खड़े आदमी से की मैं तुम्हरा दुःख समझता हूं।
जब चारों तरफ अग्नि ही अग्नि हो
, राख़ ही राख़ हो तो स्वयं को नापने और जानने का यह सबसे ज़्यादा उर्वर समय है। ख़ुद को धरती में बो कर यह देखने का वक़्त है कि देखते हैं तुमसे फूट कर क्या निकलता है?
तुम्हें जीवन की कोई नमी प्राप्त होती है या किसी मवाद की तरह इकट्ठा- जमा होते हो तुम इस दुनिया में?
हम चाहें तो इस पूरे आलम को
, और दुनिया में अपने होने की संवेदनशीलता और अपनी आत्मा को घर की अलमारी में तह कर के रख सकते हैं
, या अपने घर की गैलरी में कॉफी के साथ अख़बार उलट-पलट कर देख सकते हैं
, बावजूद इसके कि हवा के झोंकों के साथ बार- बार जले हुए शवों की गंध नाक से आ टकरा जाती हो!
दरअसल
, दुनिया में बुरा कुछ भी नहीं है
, अनैतिक कुछ भी नहीं। बद भी बद नहीं
, बुरा भी बुरा नहीं
, पाप भी पाप नहीं
, दुनिया या मनुष्य को अच्छे और बुरे की दृष्टि से देखा ही नहीं जाना चाहिए। अहम यह है कि हम अपने लिए क्या होना तय करते हैं
? हमारे होने का तरीका क्या हो।
मामला अपने होने के बारे में तय करने का है
, अपने जीवन जीने के तरीके को चुनने के बारे में है। यह तय करने का वक़्त है कि अपने आसपास के दुःखों के लिए नमी होना चाहते हो या कोई मवाद?
what you choose to be is significant.
देश के इस पूरे परिदृश्य में यूं तो हर मृत्यु एक पीड़ा है
, हमारे लिए नहीं है तो उसके लिए तो है ही जो उस देह का खून होकर भी उसे देख भी नहीं पा रहा है
, अंतिम समय में उसे छू भी नहीं पा रहा है।
लेकिन इस नरसंहार में इंदौर समेत देशभर की कुछ घटनाओं के बाद अपनी आत्मा को तह कर अलमारी में रखने के बजाए मैंने चुना कि मैं अपने होने को उजागर/ ज़ाहिर करूंगा।
मैं अपनी शेष ज़िंदगी में मवाद का एक असंवेदनशील ढेर होने की जगह आंख की नमी होना चुनूंगा। जो किसी के दुःख को भले एक क्षण के लिए ही ठंडा क्यों न करती हो।
इंदौर की अंजली नाम की एक महिला ने पिछले साल अपने पिता की चिता को मुखाग्नि दी थी
, इस साल वो अपने पति को शमशान लेकर आई हैं। अंजली के लिए 2020 और 2021 का सिर्फ इतनाभर ही अर्थ है। जब तक वो ज़िंदा रहेगी ये तारीख़े उसे सालती रहेगी। पिता और पति के बग़ैर शेष जीवन उसे जो दुःख देगा उसे हम और आप किसी भी कोने से कभी नाप नहीं पाएंगे।
यह बात थी एक औरत के भीतर की जगह हमेशा के लिए ख़ाली हो जाने की। एक दूसरी बात है भारत में धरती माता के कम पड़ जाने के बारे में।
एक बाप इंदौर के किसी शमशान घाट में इसलिए ज़मीन को अपनी बाहों में घेर कर देर तक इसलिए बैठा रहा की जब उसके बेटे की अर्थी आएगी तो उसे जलाने के लिए जगह बची रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे हम ट्रेन और बस की सीट पर अपना रुमाल रखकर उस जगह को कुछ देर के लिए बचा लेते हैं।
भोपाल में एक मां को शमशाम में जलाया गया तो उसकी बच्ची चिता से उठते धुएं में अपनी मां का अक्स देखती है और फोटोग्राफर से कहती है कि उस धुएं में मेरी मां है मेरी मां की तस्वीर खींच लो प्लीज।
अंततः आदमी की आंख हो या अंतर की दृष्टि का मसला हो... जब धरती कम पड़ जाए और हर गांव और शहर में
, राज्य और राजधानी में
, दशों दिशाओं में चिताओं का इतना उजाला हो चुका हो
, तो इतने उजाले में तो उसे नज़र आ ही जाना चाहिए।
क्या इतनी मौतें देखने के लिए उनकी चिताओं से जो उजाला हो रहा है
, क्या वो उजाला कम है। क्या आंख की नजर और अंतर की दृष्टि इतनी कमजोर है कि इतनी रोशनी में भी नजर नहीं आता।
देश में यथेष्ट उजाला है फिलहाल,