गोविंद कुमार 'गुंजन'
एक दिन मेरी दृष्टि जवाहरलाल नेहरू की एक बड़ी तस्वीर पर देर तक ठहरी रही। बहुत कम राजनेताओं की ऐसी खूबसूरत तस्वीर दिखाई देती है, मोहक और आत्मीयता से लबालब, जिसमें जरा भी परायापन नहीं। सफेद खादी का कुर्ता और उस पर एक जॉकेट, जिसमें बीच के बटन की जगह टंका हुआ एक खूबसूरत गुलाब का फूल। चेहरे पर एक सौम्य और चुंबकीय आकर्षण से भरी हुई मुस्कराहट। यह एक ऐसा चित्र है, जो कभी हमारा ध्यान खींचे बगैर रहता ही नहीं।
इस चित्र में नेहरूजी के कुर्ते में टंका हुआ वह गुलाब भी मेरा ध्यान खींच रहा था। वह फूल कितना सुंदर और निष्पाप था। वह कितना जीवंत और कितना बोलता हुआ लग रहा था। बहुत दिनों से हिन्दी साहित्य में गुलाब पर मुग्ध होने का साहस ही बंद हो गया है। सर्वहाराओं की तरफ से निरालाजी ने गुलाब को ऐसा फटकारा और ऐसा दुत्कारा कि केपिटलिस्ट (पूंजीपति) घोषित हो चुकने के बाद शोषित और पीड़ितजनों के सभी पैरोकारों ने गुलाब की खूबसूरती की तरफ से आंखें ही फेर ली, परंतु जब गुलामी की जंजीरें तोड़कर भारत आजाद हुआ तो समाजवादी हवाओं की गति भी तेज थी। उन हवाओं में एक तरफ गांधी का ग्राम स्वराज्य का स्वप्न फड़फड़ा रहा था तो चीन और रूस के साम्यवादी समतावादी चिंतन ने भी दुनियाभर का ध्यान अपनी ओर खींच रखा था।
नेहरू सही अर्थों में न गांधीवादी थे, न पूंजीवादी। वे मार्क्स की विशेषताएं ही नहीं, उसकी सीमाओं को भी पहचानते थे। उनका समाजवादी दृष्टिकोण उनकी विज्ञान और इतिहास की गहरी दृष्टि का परिणाम था, परंतु उनका हृदय एक कवि का हृदय था, जिसमें रंग-गंध-रूप की प्रत्येक आहट पर उनका सौंदर्यवादी मन तरंगित भी होता था। उनके सपनों का भारत इसीलिए सिर्फ आजाद भारत तक नहीं, सुंदर भारत की कल्पना तक पहुंचता था। नेहरू के भीतर अदम्य सौंदर्यबोध भरा हुआ था और उनकी कामना थी कि भारत सपनों का स्वर्ग नहीं, सचमुच का वैभव प्राप्त करें।
जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगिक पूंजीवाद के असली महत्व को बहुत पहले ही समझ लिया था। 24 नवंबर 1932 के दिन इंदिरा गांधी के नाम लिखे एक पत्र में वह कहते हैं-"औद्योगिक पूंजीवाद ने यह सिखाया कि यांत्रिक उत्पादन से यानी बड़ी-बड़ी मशीनों और कोयले और भाप की सहायता से धन किस तरह पैदा किया जा सकता है। इससे उस पुरानी आशंका की जड़ कट गई कि दुनिया में सब लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के साधन काफी नहीं हैं और इस कारण गरीबों की बहुत बड़ी संख्या हरदम बनी रहेगी। विज्ञान और मशीनों की सहायता से दुनिया की आबादी के लिए काफी खाना और कपड़ा और जरूरत की हरेक चीज तैयार की जा सकती है।"
जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट रूप से यह समझ लिया था कि एशिया, अफ्रीका और बिना उद्योग धंधे वाले देशों के रहने वाले शोषित लोगों के खून से ही पश्चिमी योरप में खूब दौलत आई है। वे कहते थे दुनिया में सिर्फ दो जातियां हैं, धनिक और गरीब...। बेंजामिन डिसरेली के शब्दों को उद्धृत करते हुए उन्होंने इसी पत्र में लिखा कि "ये दो जातियां, जिनमें कोई पारस्परिक संपर्क नहीं है, एक-दूसरे की आदतों, विचारों और भावनाओं से ऐसी अपरिचित है, मानों वे अलग-अलग भूखंडों में रहती हों या अलग-अलग ग्रहों के निवासी हों। ये दो जातियां धनिक और गरीब।"
जवाहरलाल नेहरू की देह पर गांधीवादी कुर्ता था, परंतु उनकी जॉकेट में लगा हुआ वह गुलाब निश्चित ही पूंजीवादी नहीं था। वह गुलाब जिसकी निरालीजी ने "अबे सुन बे गुलाब, गर पाई खुशबू रंग और आब/खून चूसा है तूने खाद का अशिष्ट/डाल पर इतरा रहा है केपिटलिस्ट..." कहकर फटकारा था, उस गुलाब का युगपुरुष नेहरू के कुर्ते से भला क्या संबंध हो सकता था? नहीं, नेहरू का वह गुलाब निराला वाला गुलाब कतई नहीं था।
फिर कहते हैं फख्खड़राम निराला एक दिन इलाहाबाद में किसी चाय की गुमटी से दो गर्मागर्म चाय के प्याले भरवाकर बेधड़क आनंद भवन पहुँच गए थे। मन में आया कि चलो, जवाहरलाल के साथ चाय पी जाए और निरालाजी पहुंच गए। नेहरू भी निराला से कम अलमस्त नहीं। फुटपाथ की गुमटी से ली हुई वह साधारण कांच के प्याले में भरी चाय उन्होंने उसी मस्ती से निराला के साथ पी, जिस मस्ती से एक साधारण आदमी पी सकता है। कहीं कोई दंभ, कहीं कोई दिखावा, कहीं कोई नकलीपन नहीं। क्या उस वक्त उनके कुर्ते में वह गुलाब खोंसा हुआ नहीं था, जिसे निराला ने लताड़ा था कभी? मगर साहित्य का वह अवधूत ऋषि इतना अभिधा में ही कहाँ, सब कुछ बोला करता था, कि हर कोई उसकी बात को पूरा समझ जाए।
वह नेहरू के कुर्ते में खिले हुए गुलाब को भी पहचानते थे और अंगरेजी गवर्नर के शाही बाग में खिले गुलाब को भी पहचानते थे। दोनों का फर्क उन्हें अच्छी तरह मालूम था। निराला की राष्ट्रीय चेतना बहुआयामी थी। वे जिस गुलाब को केपिटलिस्ट अथवा पूंजीपति कह रहे थे, वह पूंजीपति सामान्य उद्योगपति नहीं था। क्योंकि उद्योग के बिना विकास की संभावनाओं का विचार सिर्फ कोई मुर्ख ही कर सकता है, निराला जैसी मनीषा का ऋषि नहीं। उनका इशारा ईस्ट इंडिया कंपनी के उस खूनी सौदागर की तरफ था, जो मर्चेंट ऑफ वेनिस की तरह किसी सीधे-सादे ईमानदार के शरीर से अपने पलड़े में उसका गोश्त भी तुलवा लेना चाहता था।
परंतु, निराला प्रतीक की भाषा में अपनी बात कह रहे थे। नेहरू भी उसी प्रतीक का दूसरा पहलू उजागर कर रहे थे। निराला का रोष गुलाब पर नहीं, उसके ब्याज से किसी और पर था और नेहरू का गुलाब के प्रति सीधा आकर्षण उनके सौंदर्यवादी कवि हृदय का उद्घाटन भी था।