बुद्ध के अमृत वचन
शोक पर बुद्ध भगवान के विचार इस तरह हैं-
*ऐसा कोई उपाय नहीं कि जिससे मृत्यु न हो। जिसने जन्म लिया है, वह मरेगा अवश्य। प्राणियों का स्वभाव ही मृत्यु है।
*पके हुए फलों को जिस तरह डाल से नीचे गिर पड़ने का भय है, उसी तरह जन्मे हुए प्राणियों को मृत्यु का भय लगा रहता है।
*कुम्हार के गढ़े हुए मिट्टी के बर्तन का जिस प्रकार टूटने पर पर्यवसान हो जाता है, उसी प्रकार प्राणियों के जीवन का मृत्यु में पर्यवसान होता है।
*छोटा हो या बड़ा, मूर्ख हो या पंडित, सभी मृत्यु के अधीन हैं। ये सभी मृत्युपरायण हैं।
*मृत्यु और जरा से यह सारा संसार ग्रसित हो रहा है। यह तो लोक स्वभाव ही है, ऐसा समझकर आत्मज्ञ पंडित शोक नहीं करते।
*जिसके आने और जाने का मार्ग तुझे मालूम नहीं और जिसके दोनों ही अंत तेरे देखने में नहीं आते, उसके लिए तू अकारथ ही शोक करता है।
*कितना ही रोओ, कितना ही शोक करो, इससे चित्त को शांति तो मिलने की नहीं। उलटे दुःख ही बढ़ेगा और शरीर पर भी शोक का बुरा प्रभाव पड़ेगा।
*स्वयं को कष्ट देने वाला मनुष्य क्षीणकाय और निस्तेज हो जाता है। शोक से उन मृत प्राणियों को कोई लाभ तो पहुंचता नहीं। अतएव यह शोक व्यर्थ है।
*कोई सौ वर्ष या इससे अधिक जीवित रहे तो क्या- एक न एक दिन तो उन प्रियजनों के बीच से अलग होना ही है।
*अतः जो आपको सुखी रखना चाहता है, उसे अपने अंतःकरण से इस शोकरूपी शल्य को खींचकर फेंक देना चाहिए।
*यह चीज मेरी है या दूसरों की, ऐसा जिसे नहीं लगता और जिसे ममत्व की वेदना नहीं होती, वह यह कहकर शोक नहीं किया करता कि मेरी वह चीज नष्ट हो गई है।
*प्रिय वस्तु से ही शोक उत्पन्न होता है और प्रिय से ही भय। प्रिय वस्तुओं के बंधन से जो मुक्त है, उसे शोक नहीं, फिर भय कहां से हो?
*प्रेम या मोहासक्ति से ही शोक उत्पन्न होता है और प्रेम से ही भय। प्रेम से जो मुक्त हो गया है, उसे शोक कैसा और फिर भय कहां से होगा?
*इसी प्रकार राग, काम और तृष्णा से शोक तथा भय उत्पन्न होता है। इनसे जो विमुक्त है, उसका शोक से क्या संबंध- और फिर उसे भय कहां से होगा?
*मनुष्य तो है ही क्या? ब्रह्मा के भी वश की यह बात नहीं कि जो जराधर्मी है, उसे जरा (बुढ़ापा) न सताए, जो मर्त्य है उसकी मृत्यु न हो, जो क्षयवान है उसका क्षय न हो और जो नाशवान है उसका नाश न हो।
*किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाने के प्रसंग पर मूढ़ लोग यह विचार नहीं करते कि 'यह बात तो नहीं है कि मेरे ही प्रियजन को बुढ़ापा, व्याधि और मृत्यु का शिकार होना पड़ा है, यह तो सारे संसार का धर्म है, प्राणीमात्र जरा और मृत्यु के पाश में बंधे हुए हैं।'
*मूढ़ लोग विवेकांध होकर शोक-सागर में डूब जाते हैं और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। न उन्हें अन्न रुचता है, न जल। उनके शरीर की कांति क्षीण पड़ जाती है। कामकाज सब बंद हो जाता है। उनकी यह दशा देखकर उनके शत्रु आनंद मनाते हैं कि चलो अच्छा हुआ, इनका प्रियजन तो मरा ही, ये भी उसके वियोग में मरने वाले हैं।
*पर बुद्धिमान और विवेकी मनुष्य की बात इससे अलग है। वह जरा, व्याधि, करण, क्षय और नाश का शिकार होने पर यथार्थ रीति से विचार करता है। यह देखकर कि इस विकार से तो जगत में कोई भी अछूता नहीं बचा, वह शोक नहीं करता। वह अपने अन्तःकरण से शोक के उस विषाक्त बाण को खींचकर फेंक देता है, जिस बाण से बिद्ध मूर्ख मनुष्य अपनी ही हानि करते हैं।
संदर्भ : धम्मपद (त्रिपीटक)
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'