सरोज सिंह (बीबीसी संवाददाता)
सभी वायरस प्राकृतिक तौर पर म्यूटेट करते हैं यानी अपनी संरचना में बदलाव करते हैं ताकि उसके जीवित रहने की और प्रजनन की क्षमता बढ़ सके। कोरोनावायरस की जीने की यही इच्छा उसे ख़ुद को बदलने पर मजबूर कर रही है।
लेकिन ऐसी बदलने की इच्छी भारत में न तो सरकारों में देखने को मिल रही है और न ही जनता में। वरना एक साल बाद महाराष्ट्र में भला दोबारा से लॉकडाउन जैसी पाबंदी देखने को क्यों मिलती? महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने बुधवार रात 8 बजे से राज्य में कड़ी पाबंदियां लागू करने की बात कही है।
भले ही उन्होंने इसे लॉकडाउन का नाम नहीं दिया, लेकिन कर्फ़्यू से थोड़ा ज़्यादा और लॉकडाउन से थोड़ा कम ही माना जा रहा है। पिछले साल मार्च में जब कुछ घंटों की नोटिस पर देशभर में लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, तो कई राजनीतिक पार्टियों ने इसका विरोध किया था।
महाराष्ट्र सरकार भी उनमें शामिल थी। केंद्र सरकार ने और देश के कई डॉक्टरों ने उस लॉकडाउन को ये कहते हुए जायज़ ठहराया कि इससे संक्रमण का चेन टूटेगा और हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का वक़्त मिल जाएगा।
लेकिन एक साल बाद, जब मुख्यमंत्री दोबारा से 'ब्रेक द चेन' के लिए घोषणाएं कर रहे हैं, तो सवाल उठता है कि आख़िर ये नौबत क्यों आई? सवाल पूछा जा रहा है कि क्या एक साल में हमने कोई सबक नहीं सीखा? और अगर लिया तो क्या इतनी जल्दी भुला दिया? क्या पिछले लॉकडाउन के बाद दवाओं की क़िल्लत दूर करने की तैयारी नहीं हुई थी? जो अस्पताल बने, वेंटिलेटर ख़रीदे गए, आईसीयू बेड जोड़े गए- उनका एक साल में क्या हुआ?
महाराष्ट्र में वहां पिछले एक साल में स्थिति कितनी बदली है इसी का जायज़ा लेने के लिए हमने बात की इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के महाराष्ट्र चैप्टर के साल 2020 के अध्यक्ष डॉक्टर अविनाश भोंडवे से।
उनका कहना है पिछले साल सरकार ने जो कुछ किया वो उसी वक़्त के लिए था। उससे सबक लेना कुछ तो लोग लोग भूल गए, कुछ सरकार भूल गई। रही सही कसर आगे की प्लानिंग की कमी ने पूरी कर दी।
डॉक्टर अविनाश कहते हैं, लोगों ने मास्क पहनना, हाथ धोना और सोशल डिस्टेंसिग से नाता तो तोड़ ही लिया। बुख़ार को भी हल्के में लेना शुरू कर दिया। नतीजा लोग अस्पताल देर से पहुंचने लगे। वो भी तब जब स्थिति हाथ से निकल गई। नतीजा रोज आ रहे नए आंकड़ो में देखा जा सकता है।
लेकिन डॉक्टर अविनाश के मुताबिक ऐसे सबक कई हैं जो राज्य सरकार सीखकर भूल गई। वो एक-एक कर उन्हें गिनाते हैं।
सबक 1: स्वास्थ्य पर बजट में ख़र्च
'महाराष्ट्र में साल दर साल स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला ख़र्च 0.5 फीसद तक रहा है। कोविड19 महामारी के बाद भी ये बढ़ा तो राज्य सरकार के बजट का 1 फ़ीसद नहीं हो पाया है। 500 करोड़ रुपए के इजाफे की बात इस बार के बजट में किया गया है। महामारी के अनुपात में ये कुछ नहीं है। आईएमए के अनुमान के मुताबिक़ कुल बजट में स्वास्थ्य का हिस्सा कम से कम 5 फ़ीसद होना चाहिए। महामारी के एक साल में कोई नया सरकारी अस्पताल राज्य में नहीं खुला है।'
सबक 2 : अस्पताल, डॉक्टर, नर्स और टेक्नीशियन की संख्या अब भी कम
डॉक्टर भोंडवे का कहना है कि महाराष्ट्र में सरकारी अस्पतालों में केवल 10000 बेड्स हैं। इस वजह से ज़्यादातर लोग प्राइवेट अस्पतालों का रुख करते हैं। कोविड19 महामारी के दौरान 80 फ़ीसद काम का बोझ प्राइवेट अस्पताल वाले उठा रहे हैं और 20 फीसदी ही सरकारी अस्पतालों के पास है।
सारी सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल जिनमें बाईपास सर्जरी की सुविधा हो, कार्डियोलॉजी सुविधा से लेकर अच्छे ऑपरेशन रूम हों और आईसीयू की सुविधा हो, वो तो न के बराबर हैं। लेकिन इसके लिए वो केवल वर्तमान सरकार को ज़िम्मेदार नहीं मानते। उनके मुताबिक़ राज्य में सालों से इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। न तो अच्छे सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं और न ही नर्सिंग कॉलेज। यही हाल लैब में काम करने वाले टेक्नीशियन का है।
नतीजा महाराष्ट्र में रजिस्टर्ड 1 लाख 25 हज़ार डॉक्टर हैं जबकि ज़रूरत दोगुने की है। उसी तरह से महाराष्ट्र में नर्स की कमी की ख़बरें पिछले साल भी आई थी। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। ज़रूरत से लगभग 40 फ़ीसद उनकी संख्या कम है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी अस्पतालों में हर शिफ्ट के लिए दिन में तीन रजिस्टर्ड नर्स भी नहीं मिलती हैं, जो महाराष्ट्र सरकार के नए क़ानून के मुताबिक़ ज़रूरी है।
लैब टेक्नीशियन जो डायलिसिस सेंटर में, आईसीयू में, वेंटिलेटर पर काम करते हैं उनकी कमी की वजह से स्थिति और ख़राब हो गई। जाहिर है ये सभी कमियां एक साल में पूरी नहीं हो सकती। लेकिन उस ओर एक क़दम भी सरकार नहीं उठा पाई। आज भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे नौजवान डॉक्टर और नर्स से उनके साथ जुड़ने की गुहार लगा रहे हैं।
सबक 3 : महामारी से निपटने के लिए टेस्टिंग की फॉरवर्ड प्लानिंग
ट्विटर पर इस तरह के कई शिकायतें आपको मिल जाएगी, जहां महामारी के एक साल बाद भी कोरोना टेस्ट के लिए लोगों को कई दिनों का इंतजार करना पड़ रहा है। टेस्ट हो जाने पर रिपोर्ट के आने में भी 2-3 दिन का इंतज़ार आम बात है।
पिछले साल मई में जहां महाराष्ट्र में केवल 60 सरकारी और प्राइवेट टेस्टिंग सेंटर थे, वहीं लैब्स की संख्या बहुत कम थी। एक साल बाद टेस्टिंग की संख्या बढ़ कर 523 हो गई है पर लैब्स की संख्या अब भी उस अनुपात में नहीं बढ़ी है।
राज्य में हफ़्ते में अब 57 हजार से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। टेस्ट प्रति मिलियन की बात करें तो उसकी संख्या ज़रूर बढ़ी है, लेकिन रोज़ आ रहे मामलों को देखते हुए वो अब भी नाकाफी है। ये बात ख़ुद केंद्र सरकार के स्वास्थ्य सचिव ने स्वीकार की है। कुल टेस्ट में RTPCR टेस्ट की संख्या भी काफ़ी कम है, जो कोरोना के लिए गोल्ड स्टैंडर्ड टेस्ट माना जाता है।
यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि इस बार कोरोना का संक्रमण तेज़ी से फैल रहा है। कई जगहों पर पूरा का पूरा परिवार पॉज़िटिव हो रहा है। ऐसे में कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग भी ज़्यादा करनी पड़ रही है और टेस्ट भी ज़्यादा हो रहे हैं। इस वजह से टेस्टिंग फैसिलिटी पर बोझ भी बढ़ रहा है।
सबक 4 : ऑक्सीजन और दवाओं की ज़रूरत का अंदाज़ा
मंगलवार को मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा, 'आने वाले दिनों में राज्य में ऑक्सीजन की सप्लाई की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन सड़क मार्ग से दूसरे राज्यों से ऑक्सीजन लाने में देरी होगी। 1000 किलोमीटर दूर के राज्यों से ऑक्सीजन लाने में होने वाली देरी घातक हो सकती है। मैंने प्रधानमंत्री से बात की है ताकि एयरफोर्स इसमें हमारी मदद करें।'
जानकारों की मानें तो ये हमेशा से सबको पता था कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आएगी ही। मुंबई के जसलोक अस्पताल के मेडिकल रिसर्च के डायरेक्टर डॉक्टर राजेश पारेख ने महामारी पर 'दि कोरोनावायरस बुक' और 'दि वैक्सीन बुक' नाम से दो किताबें लिखी है।
वो कहते हैं, 'मैंने अपनी पहली किताब में कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर के बारे में लिखा था और बताया था कि हमें तैयार रहने की ज़रूरत है। अगर पहले पीक में राज्य में 30 हजार रोज़ नए मामले आ रहे थे, उसमें से 10 फ़ीसद को अस्पताल में दाख़िले की ज़रूरत पड़ रही थी, कितने लोगों को आईसीयू की, कितने को ऑक्सीजन और कितने को वेंटिलेटर की ये आंकड़े सरकार के पास होने चाहिए थे। रेमडेसिविर दवा के बारे में यही बात लागू होती है।
आने वाले पीक के हिसाब से राज्य सरकार को अगले पीक में 60 हजार रोज़ के मरीज़ों की संख्या को सोच कर तैयारी करनी थी। हमारे पास न तो कोविड एप्रोप्रियेट बिहेवियर है और न ही कोविड एप्रोप्रिएट एटिट्यूड'। यानी जो बात मुख्यमंत्री 13 अप्रैल को कह रहे हैं, ऐसी नौबत आती ही नहीं अगर कोरोना की पहली लहर के बाद महीने में दो बार इस बार समीक्षा बैठक करते और फॉरवर्ड प्लानिंग करते।
सबक 5 : वैक्सीनेशन में तेज़ी
फॉरवर्ड प्लानिंग से ही जुड़ा दूसरा मामला है वैक्सीनेशन का। हम पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन बना रहे हैं। लेकिन अपने घर में क्या हालात है, इसे लगातार नज़रअंदाज़ करते जा रहे हैं। जानकारों की मानें तो दूसरी लहर पर काबू पाने के लिए या तो लॉकडाउन जैसी पाबंदी लगाएं या फिर टीकाकरण अभियान में तेज़ी लाएं। महाराष्ट्र में 1 करोड़ लोगों को ही अब तक वैक्सीन लग पाई है।
डॉक्टर राजेश कहते हैं कि पोलियो और स्मॉल पॉक्स में भारत में घर-घर जैसे वैक्सीन पहुंचाया था, राज्य सरकार को वैक्सीनेशन अभियान में तेज़ी लाने के दूसरे उपाए जल्द करने होंगे। वरना ये पाबंदी लंबी खिंच सकती है। इस मामले में राज्य सरकार और भारत सरकार दोनों ही दूसरे देशों से सबक नहीं ले पाए।
सबक 6 : प्रवासी मजदूरों का पलायन
डॉक्टर राजेश मानते हैं कि पिछली बार मजदूरों के पलायन से भी सरकार ने सबक नहीं लिया। अब दोबारा वही नौबत आ रही है। महाराष्ट्र के कई जगहों से उनके पलायन की तस्वीरें आ रही है। इसे भी राज्य सरकार ठीक से मैनेज नहीं कर पाई।
अचानक से टीवी पर एक दिन पहले आकर घोषणा करने से स्थिति बेहतर नहीं होती। पिछली बार केंद्र ने चार घंटे की मोहलत दी, इस बार राज्य सरकार ने 24 घंटे की। इतने कम समय में स्थिति सुधरती नहीं है। बल्कि बिगड़ती है। दूसरी बात जो लौटकर अपने घर/गांव गए, उन्हें वहीं पर रोजगार की गारंटी सरकार को सुनिश्चित करनी चाहिए थी।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिए और हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए 5476 करोड़ रुपए अलग से खर्च करने की योजना बताई है। लेकिन डॉक्टर पारेख कहते हैं, इससे ज़्यादा बेहतर होता कि ऐसे नियम बनाते कि कोई उन्हें नौकरी से न निकाले, किराया न मांगा जाए। कुछ इस तरह का काम किया जाना चाहिए था।
सबक 7 : जम्बो कोविड-19 सेंटर बंद पड़े हैं
कोरोना संक्रमण की पहली लहर में महाराष्ट्र में 1000-2000 बेड वाले कई अस्थायी जम्बो कोविड 19 सेंटर बनाए गए थे। कई जगहों पर राज्य सरकार ने उसे दूसरी एजेंसियों को चलाने दिया था। लेकिन पिछले साल सितंबर के बाद से कोरोना के मामले घटने शुरू हुए तो वहां एक दिन में 100 या उससे कम मरीज़ आने लगे। 2-3 महीने मरीज़ नहीं आए तो उन्हें बंद कर दिया गया। जो डॉक्टर कॉन्ट्रैक्ट पर लिए गए थे, उनका अनुबंध भी रद्द कर दिया गया।
राज्य सरकार के इस कदम को डॉक्टर भोंडवे बड़ी चूक मानते हैं। अब दोबारा से डॉक्टर मिलने में उन्हें दिक़्क़त आएगी। उन्होंने पुणे के एक जम्बो सेंटर का उदाहरण भी दिया। बिजली का बिल न भरने के कारण नगर निगम वाले ख़ुद ही ताला लगा गए थे। अब उसे दोबारा शुरू करने की बात की।