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Last Updated : गुरुवार, 15 नवंबर 2018 (11:05 IST)

भारत में पेड न्यूज़ के सबसे चर्चित मामलों का क्या हुआ?

भारत में पेड न्यूज़ के सबसे चर्चित मामलों का क्या हुआ? | paid news
- प्रदीप कुमार
 
बीबीसी की ख़ास रिसर्च BeyondFakeNews में हमने पाया कि दुनिया के दूसरे हिस्सों के साथ-साथ भारत में फ़ेक न्यूज़ का प्रसार कितनी तेज़ी से और किस तरह बढ़ रहा है। लेकिन ख़बरों की दुनिया में फ़ेक न्यूज़ कोई अकेली बीमारी नहीं है। एक ऐसी ही बीमारी है पेड न्यूज़, जिसने मीडिया को अपनी चपेट में ले रखा है।
 
 
कई बार दोनों का रूप एक भी हो सकता है और कई बार अलग अलग भी। वैसे पेड न्यूज़ की बीमारी को आप थोड़ा गंभीर इसलिए मान लें क्योंकि इसमें बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों से लेकर दूर दराज़ के क़स्बाई मीडिया घराने शामिल हैं।
 
 
पेड न्यूज़, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है वैसी ख़बर जिसके लिए किसी ने भुगतान किया हो। ऐसी ख़बरों की तादाद चुनावी दिनों में बढ़ जाती है और छत्तीसगढ़ में पहले चरण के मतदान के साथ ही देश के पांच राज्यों के चुनावी घमासान की शुरुआत हो चुकी है।
 
 
ख़बरों को कैसे प्रभावित करते हैं चुनाव
छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में चुनाव होने जा रहे हैं। इन राज्यों में चुनाव के साथ देश भर में एक तरह से 2019 के आम चुनाव की मुनादी हो जाएगी। चुनावों का ना केवल सरकारों पर असर होता है बल्कि ख़बरों की दुनिया पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है।
 
 
समाचार माध्यमों में चुनावी ख़बर प्रमुखता से नज़र आने लगती हैं। नेताओं के चुनावी दौरों और चुनावी वादों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, बैनर और टीवी चैनलों पर लाइव डिस्कशन की तादाद बढ़ जाती है। इस दौरान नेता और राजनीतिक दल अपने अपने हक़ में हवा बनाने के लिए अपने पक्ष की चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं।
 
 
इसके लिए मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स में ख़बरों के बीच पेड न्यूज़ का घालमेल इस तरह होता है कि वो एकपक्षीय समाचार या विश्लेषण होते हैं, जो आम मतदाताओं के नज़रिये को प्रभावित करते हैं।
 
 
वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई कहते हैं, "चुनाव के समय इसीलिए आपको नए अख़बार और टीवी चैनल दिखाई देने लगते हैं। वो इस मौक़े को भुनाने के लिए ही बाज़ार में आते हैं। लेकिन अब बात केवल वहीं तक सीमित नहीं रह गई है। क्षेत्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े अख़बार और मीडिया समूह भी इस मौक़े को भुनाना चाहते हैं।"
 
 
ये खेल किस तरह होता है, इसका अंदाज़ा चुनाव आयोग के आंकड़ों से होता है। बीते चार साल में 17 राज्यों में हुए चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ की 1400 से ज़्यादा शिकायतें सामने आई हैं। बीते पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ की 523, गुजरात चुनाव में 414 और हिमाचल चुनाव में 104 शिकायतें सामने आईं थीं। इस साल कर्नाटक में हुए चुनाव में पेड न्यूज़ की 93 शिकायतें दर्ज की गईं।
 
 
चुनाव आयोग रख रहा है नज़र
इन शिकायतों से स्पष्ट है कि पेड न्यूज़ के मामले दर्ज हो रहे हैं। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने चुनावी ख़र्चे के लिए निगरानी समिति का गठन किया है जो उम्मीदवारों के ख़र्च पर नज़र रखती है।
 
 
छत्तीसगढ़ में कुछ अख़बारों और ख़बरिया चैनलों में संपादकीय ज़िम्मेदारी निभा चुके दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं, "पेड न्यूज़ का मामला नया तो नहीं है, लेकिन अब इसका रूप व्यापक हो चुका है। हर अख़बार और चैनल चुनाव को पैसे बनाने के मौक़े के तौर पर देखते हैं, लिहाज़ा उनका उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों से एक तरह का अघोषित समझौता होता है और पक्ष में ख़बरों के ज़रिए माहौल तैयार कराया जाता है।"
 
 
चुनाव आयोग मध्य प्रदेश चुनावों को लेकर अतिरिक्त सर्तकता भी बरत रहा है, क्योंकि 2013 के विधानसभा चुनाव में इस राज्य से पेड न्यूज़ की 165 शिकायतें सामने आईं थीं।
 
 
मध्य प्रदेश के इंदौर में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार समीर ख़ान बताते हैं, "पेड न्यूज़ का तौर तरीक़ा बदलता रहा है, एक नया तरीक़ा तो ये भी है कि भले आप हमारे पक्ष में कुछ नहीं छापो, लेकिन हमारे ख़िलाफ़ वाली ख़बर तो बिल्कुल मत छापो। मतलब आप कुछ नहीं भी छापेंगे तो भी आपको पैसे मिल सकते हैं और ये ख़ूब हो रहा है।"
 
 
भारत में पेड न्यूज़ की स्थिति को लेकर भारतीय प्रेस काउंसिल की एक सब-कमेटी की ओर से परंजॉय गुहा ठाकुराता और के श्रीनिवास रेड्डी ने मिलकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। लंबे समय तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। फिर 2011 में तत्कालीन केंद्रीय सूचना आयुक्त के आदेश के बाद इस रिपोर्ट को जारी किया गया।
 
 
ठाकुरता अपनी उस रिपोर्ट के बारे में बताते हैं, "34 हज़ार शब्दों की रिपोर्ट थी, हमने जिन पर आरोप लगा था उनसे भी बात की थी, उनके जवाबों को भी शामिल किया है। हमने अपनी रिपोर्ट में हर अख़बार का नाम लिखा है, हर मामले की जानकारी दी है। उनके प्रतिनिधियों के जवाब भी लिखे हैं। लेकिन प्रेस काउंसिल ने दस महीने तक उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं होने दिया।"
 
 
ठाकुरता ये भी मानते हैं कि उन लोगों ने क़रीब आठ नौ साल पहले जो अध्ययन किया था, वह आज भी उसी रूप में मौजूं बना हुआ है क्योंकि पेड न्यूज़ के लिए मोटे तौर पर वही तौर तरीक़े अपनाए जा रहे हैं।
 
 
हालांकि समय के साथ पेड न्यूज़ के तौर तरीक़ों को ज़्यादा फाइन ट्यून किया जा रहा है। इसका दायरा अख़बारों में विज्ञापन और ख़बर छपवाने से आगे बढ़ रहा है। विपक्षी उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों की छवि धूमिल की जा रही है।
 
 
जयपुर में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ बताते हैं, "पेड न्यूज़ का कोई स्वरूप तो निश्चित नहीं है, ये कैश भी हो सकता है और काइंड भी हो सकता है। ख़ासकर सरकारी विज्ञापनों और अन्य सुविधाओं के नाम पर सरकारें इसके लिए ज़बरदस्त दबाव बनाती हैं, आप कह सकते हैं कि भगवान से ज़्यादा सरकार की नज़रें अपने ख़िलाफ़ छपने वाली ख़बरों पर होती है।"
 
 
कितनी गंभीर है पेड न्यूज़ की बीमारी
बीते दिनों कोबरा पोस्ट के स्टिंग में भी ये दावा किया गया कि कुछ मीडिया संस्थान पैसों की एवज़ में कंटेंट के साथ फेरबदल करने को तैयार दिखते हैं। प्रभात ख़बर के बिहार संपादक अजेय कुमार कहते हैं, "दरअसल अब पेड न्यूज़ केवल चुनावी मौसम तक सीमित नहीं रह गया है। आए दिन सामान्य ख़बरों में भी इस तरह के मामलों से हमें जूझना होता है। ये स्थानीय संवाद सूत्र से शुरू होकर हर स्तर तक पहुंचता है।"
 
 
दुनिया भर में मूल्यों वाली पत्रकारिता को बढ़ावा देने वाले एथिकल जर्नलिज्म नेटवर्क ने 'अनटोल्ड स्टोरीज़- हाउ करप्शन एंड कॉन्फ्लिक्ट्स ऑफ़ इंटरेस्ट स्टॉक द न्यूज़रूम' शीर्षक वाले एक लेख में इस बात पर चिंता ज़ाहिर की है कि अगर भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के ताक़तवर समूहों ने अभी ध्यान नहीं दिया तो भारतीय मीडिया में दिख रहा बूम पत्रकारिता और सच्चाई के लिए बेमानी साबित होगी।
 
 
दैनिक भास्कर और नई दुनिया अख़बार समूहों में जनरल मैनेजर रहे मनोज त्रिवेदी के मुताबिक, चुनाव के दिनों में अख़बारों में पेड न्यूज़ छपते हैं और इसके लिए राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं।
 
 
उन्होंने बताया, "दरअसल उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के पास भी चुनाव में ख़र्च करने के लिए ढेर सारा पैसा होता है, लेकिन चुनाव आयोग की सख़्ती के चलते वे एक सीमा तक ही अपना ख़र्च दिखा सकते हैं। लिहाज़ा वे भी अख़बार प्रबंधनों से संपर्क साधते हैं और अख़बार भी उम्मीदवार और राजनीतिक दल के हिसाब से पैकेज बना देते हैं।"
 
 
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि परंजॉय गुहा ठाकुराता और के श्रीनिवास रेड्डी की जांच पड़ताल में 61 उम्मीदवारों ने इस बात को माना था कि उन्होंने अपने पक्ष में ख़बर छपवाने के लिए पैसे दिए थे। इतना ही नहीं समय के साथ पेड न्यूज़ का तरीक़ा भी बदल रहा है और अब यह ज्यादा संगठित तौर पर सामने आ रहा है।
 
 
परंजॉय गुहा ठाकुराता कहते हैं, "जब हर तरफ़ पीआर की चीज़ें बढ़ती हुई दिख रही हों तो इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। राजनीतिक दलों के पास इन चीज़ों के लिए एक पूरी टीम काम कर रही होती है। अब नेताओं के पास अपना पीआर मैकेनिजम है। पीआर एजेंसियां ऐसी सुविधाएं मुहैया कराने का दावा कर रही हैं। अख़बारों और चैनलों में इन लोगों से बात करने के लिए मार्केटिंग का विभाग मुस्तैद रहता है।"
 
 
प्रभात ख़बर के बिहार संपादक अजेय कुमार कहते हैं कि पत्रकारों और संपादकों के सामने जो पत्रकारिता की नैतिकता से जुड़े सवाल होते हैं वो सवाल उसी पैनेपन के साथ अख़बार प्रबंधन को चुनौती नहीं लगते हैं क्योंकि उनके लिए अख़बार और चैनल भी एक प्रॉडक्ट ही हैं।
 
 
वहीं वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई कहते हैं, "चैनल और अख़बार निस्संदेह एक प्रॉडक्ट हो गए हैं, लेकिन प्रॉडक्ट में पेड न्यूज़ की धोखाधड़ी तो नहीं होनी चाहिए। अगर आप पैसा लेते हैं तो उसे साफ़ और स्पष्ट तौर पर विज्ञापन घोषित करना चाहिए।"
 
 
पेड न्यूज़ का बाज़ार कितना बड़ा है, इसका अंदाज़ा मिंट अख़बार में प्रकाशित भारतीय चुनाव आयोग के हवाले से 2013 में लगाए गए एक आकलन से होता है जिसके मुताबिक, कोई राजनीतिक दल चुनावी दिनों में पार्टी और उम्मीदवारों के लिए जो ख़र्च करता है, उसका क़रीब आधा हिस्सा पेड न्यूज़ के लिए होता है।
 
 
चुनाव आयोग के सख़्ती दिखाने का असर बहुत ज़्यादा भले न दिखा हो लेकिन ये संदेश तो जा रहा है कि वह पेड न्यूज़ की शिकायतों को गंभीरता से ले रहा है।
 
 
पेड न्यूज़ के चर्चित मामले
इस मामले में उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव का उदाहरण भारतीय राजनीति का पहला मामला था जब किसी विजयी उम्मीदवार को अयोग्य ठहराया गया। 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान उमलेश यादव बदायूं के बिसौली विधानसभा से निर्वाचित हुई थीं।
 
 
राष्ट्रीय परिवर्तन दल की उम्मीदवार उमलेश यादव से चुनाव हारने वाले योगेंद्र कुमार ने प्रेस काउंसिल में उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई। कुमार ने अपनी शिकायत में बताया था कि दो प्रमुख हिंदी दैनिक- दैनिक जागरण और अमर उजाला- ने मतदान से ठीक एक दिन पहले उमलेश यादव के पक्ष में पेड न्यूज़ प्रकाशित की थी।
 
 
हालांकि पेड न्यूज़ की शिकायत पर दोनों अख़बार प्रबंधन का दावा था कि उन्होंने उस ख़बर को विज्ञापन के तौर पर छापा था और ख़बर के साथ 'विज्ञापन' (ADVT) भी लिखा हुआ था।
 
 
प्रेस काउंसिल ने शिकायत और अख़बार प्रबंधन के जवाब के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जिस तरह के फॉरमैट में ख़बर छपी थी और जिस तरह से ADVT छपा हुआ था उससे आम मतदाताओं के मन में भ्रम पैदा होने के आसार बनते हैं। चुनाव एक दिन बाद होने थे और प्रचार पर रोक लग चुकी थी ऐसे में यह न केवल पत्रकारीय मानक के तौर पर ग़लत है बल्कि चुनावी प्रावधानों का भी उल्लंघन है।
 
 
इसके बाद ही 20 अक्टूबर, 2011 को तीन चुनाव आयुक्तों की कमेटी ने 23 पन्ने के अपने फ़ैसले में उमलेश यादव की सदस्यता को अयोग्य ठहराते हुए उन पर तीन साल तक चुनाव नहीं लड़ने की पाबंदी लगा दी थी।
 
 
उमलेश यादव की सदस्यता को ख़ारिज़ होने को परंजॉय गुहा ठकुराता एक बड़ा बदलाव मानते हैं। उनके मुताबिक इससे कम से कम ये संदेश तो गया है कि पेड न्यूज़ में अगर फंसे तो गंभीर नतीजा देखने को मिल सकता है।

 
शिवराज के मंत्री पर आरोप
उमलेश यादव के बाद मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार में ताक़तवर मंत्री नरोत्तम मिश्रा को भी चुनाव आयोग ने पेड न्यूज़ में संलिप्त पाते हुए तीन साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। हालांकि बाद में नरोत्तम मिश्रा को दिल्ली हाईकोर्ट से राहत मिल गई। नरोत्तम मिश्रा पर 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान पैसे देकर अपने पक्ष में ख़बरें छपवाने का आरोप लगा था।
 
 
2009 में नरोत्तम मिश्रा के ख़िलाफ़ दतिया विधानसभा से चुनाव हारने वाले कांग्रेस उम्मीदवार राजेंद्र भारती ने चुनाव आयोग में याचिका दाख़िल की। इस याचिका में उन्होंने आरोप लगाया कि मिश्रा ने पेड न्यूज़ पर जो ख़र्च किया है, उसे चुनावी ख़र्च में शामिल नहीं किया है।
 
 
इसके बाद चुनाव आयोग ने मामले की सुनवाई शुरू की और जून 2017 में नरोत्तम मिश्रा को अयोग्य ठहराते हुए उनके चुनाव लड़ने पर तीन साल की पाबंदी लगा दी। दिलचस्प ये है कि तब तक राज्य के वरिष्ठ मंत्री नरोत्तम मिश्रा दतिया विधानसभा से एक बार और 2013 विधानसभा का चुनाव जीत चुके थे और शिवराज सिंह चौहान की सरकार में ताक़तवर मंत्री माने जा रहे थे।
 
 
नरोत्तम मिश्रा ने चुनाव आयोग की कार्रवाई को अदालत में चुनौती दी। निचली अदालत और जबलपुर हाईकोर्ट होते हुए उनका मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। 27 अक्टूबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने नरोत्तम मिश्रा को चुनाव लड़ने की इजाज़त तो दे दी है, लेकिन छह सप्ताह बाद इस मामले में फिर से सुनवाई होगी।
 
 
अशोक चव्हाण का मामला
इन दो विधायकों के अलावा पेड न्यूज़ को लेकर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का मामला भी सुर्खियों में रहा था। 2009 के विधानसभा चुनाव में अशोक चव्हाण ने महाराष्ट्र के नांदेड़ के भोकार विधानसभा सीट से जीत हासिल की थी। उनकी जीत के बाद निर्दलीय उम्मीदवार माधवराव किन्हालकर ने उनके ख़िलाफ़ पेड न्यूज़ की शिकायत की थी।
 
 
इस शिकायत में कहा गया था कि लोकमत अख़बार में अशोक पर्व नाम से सप्लीमेंट छपे थे, जिनके भुगतान की जानकारी अशोक चव्हाण ने अपने चुनावी ख़र्च में नहीं बताई थी। उस वक़्त 'द हिंदू' अख़बार के पत्रकार पी साईनाथ ने अशोक चव्हाण के चुनावी ख़र्चे की जानकारी पर लगातार रिपोर्टिंग की थी। उन्होंने तब ख़बरों में लिखा था कि जिस तरह का कवरेज अशोक चाव्हाण को मिला और उन्होंने जिस तरह का ख़र्च दिखाया है, उसमें तालमेल नहीं दिखता।
 
 
दिलचस्प ये है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने चुनावी ख़र्च की घोषणा में बताया था कि उन्होंने अख़बार में विज्ञापन के लिए महज 5379 रुपये ख़र्च किए थे जबकि केबल टेलीविजन पर उन्होंने महज 6000 रुपये ख़र्च किए थे।
 
 
जबकि प्रेस काउंसिल की पेड न्यूज़ की जांच करने वाली कमिटी ने पाया था कि सिर्फ़ लोकमत अख़बार में अशोक चव्हाण के पक्ष में 156 पेजों का विज्ञापन छापा गया था। चुनाव आयोग ने चव्हाण को 20 दिनों के भीतर जवाब देने के लिए 'कारण बताओ' नोटिस जारी किया था।
 
 
हालांकि ये मामला भी हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। ये मामला इसलिए भी सुर्खियों में रहा था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अशोक चव्हाण की याचिका को ख़ारिज़ करते हुए चुनाव आयोग के अधिकार में किसी तरह के दख़ल देने से इनकार कर दिया था।
 
 
वैसे इस मामले में 13 सितंबर, 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने अशोक चव्हाण को पेड न्यूज़ के आरोपों से बरी कर दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि ये विज्ञापन अशोक चव्हाण की ओर से ही दिए गए थे, ये बात साबित नहीं हो पाई है। अपने फ़ैसले में हाईकोर्ट ने ये कहा था कि संदेह का लाभ अशोक चव्हाण को दिया जा रहा है।
 
 
इन उदाहरणों से ये ज़ाहिर होता है कि पेड न्यूज़ के किसी भी मामले को साबित करना बेहद मुश्किल है। इसकी वजह बताते हुए परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, "पेड न्यूज़ में किसी को कोई रसीद नहीं मिलती, चेक से भुगतान नहीं होता है, इलेक्ट्रॉनिक ट्रांजेक्शन नहीं होता। लिहाजा इसे साबित करना मुश्किल होता है। इसमें पैसों का लेन-देन वैध तरीके से होता नहीं है। इसे प्रमाणित करना आसान काम नहीं है। ये काम चुनाव आयोग का है भी नहीं।"
 
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