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Last Modified: शनिवार, 22 सितम्बर 2018 (12:06 IST)

नज़रिया: अल्पसंख्यक होने की आड़ में औरतों को कब तक दबाएंगे मुसलमान?

नज़रिया: अल्पसंख्यक होने की आड़ में औरतों को कब तक दबाएंगे मुसलमान? - muslim woman
- ज़किया सोमन (सामाजिक कार्यकर्ता, बीबीसी हिंदी के लिए)
 
पिछले कुछ सालों में मुस्लिम औरतों ने ट्रिपल तलाक़ या एकतरफ़ा ज़ुबानी तलाक़ के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी हुई है। इस ऐतिहासिक मुहिम का महत्व भारतीय लोकतंत्र एवं दुनियाभर के मुसलमान समाज के लिए भी है।
 
 
औरतों की इस लोकतांत्रिक मुहिम के चलते सुप्रीम कोर्ट, संसद, सरकार और राजनीतिक पक्षों को कुछ क़दम उठाने पड़े हैं। ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ लाया गया क़ानून मुस्लिम विमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन मैरिज) बिल, 2017 इसी मुहिम का नतीजा है।
 
 
दबाई गई मुसलमान औरतों की आवाज़
इस क़ानून पर ग़ौर करने से पहले इसकी पृष्ठभूमि पर एक नज़र डालना ज़रूरी है। औरतों के लिए न्याय और समानता के सवाल पर हमेशा से देश में राजनीति होती आई है। फिर वे हिंदू औरतें हों या ईसाई या मुसलमान औरतें। अतीत में सती और विधवा विवाह को लेकर राजनीति हुई। सबरीमाला और बाकी मंदिरों में औरत के प्रवेश पर आज भी संघर्ष चल रहा है। लेकिन ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पितृसत्ता की राजनीति का सबसे बड़ा शिकार देश की मुसलमान औरतें रही हैं।
 
 
रूढ़िवादी धार्मिक गुटों के सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व के चलते मुसलमान औरतों की आवाज़ को हमेशा दबाया गया है। यही नहीं पारिवारिक मामलों में औरतें मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथ क़ुरान और भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों से भी वंचित रही हैं। ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी पुरुषवादी ताक़तों ने मुस्लिम क़ानून में सुधार का लगातार विरोध किया है।
 
 
इसके चलते देश में ज़ुबानी तीन तलाक़ का हमेशा से चलन रहा है। हालांकि इसकी इजाज़त पवित्र क़ुरान में नहीं है। औरतें अदालत का दरवाज़ा खटखटाती हैं तो पर्सनल लॉ बोर्ड कहता है कि हमारे मज़हब में दख़ल देने का अधिकार कोर्ट या सरकार को नहीं है। सच्चाई ये है कि ज़ुबानी तीन तलाक़ ही ख़ुद मज़हब में सबसे बड़ा दख़ल है।
 
 
इस्लाम में बिचौलियों के लिए जगह नहीं
जब ट्रिपल तलाक़ और हलाला जैसी ग़ैर-इंसानी और गैर-इस्लामी हरकतें होती हैं तब पर्सनल लॉ बोर्ड ख़ामोश रहता है। और जब मुसलमान महिलाएं इंसाफ़ के लिए खड़ी होती हैं तब पर्सनल लॉ बोर्ड को मज़हब याद आता है। और फिर सबसे बड़ा सवाल ये है कि पर्सनल लॉ बोर्ड को मज़हब का ठेका किसने दिया? इस्लाम मज़हब में अल्लाह और इंसान के बीच सीधा रिश्ता है; यहां बिचौलियों के लिए कोई स्थान नहीं है।
 
 
मुस्लिम औरतें मुसलमान होने के साथ-साथ देश की नागरिक भी हैं। क़ुरानी हक़ों के साथ-साथ भारतीय नागरिक के तौर पर उनके संवैधानिक अधिकार भी हैं। लेकिन देश में विधिवत मुस्लिम क़ानून के अभाव में ज़ुबानी तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी घिनौनी हरकतें धड़ल्ले से हो रही हैं।
 
 
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद भी औरतों को ज़ुबानी तीन तलाक़ दिया जा रहा है। यही नहीं ज़ुबानी तीन तलाक़ बोल कर रातोंरात औरतों को घर से निकाल दिए जाने के मामले भी सामने आ रहे हैं। इसका मतलब ये हुआ कि ट्रिपल तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का कोई असर मुसलमान औरतों की ज़िंदगी में पड़ा ही नहीं।
 
 
इस तरह घर से निकाल दिए जाने पर औरत की शिकायत कहीं भी दर्ज नहीं हो पाती है क्योंकि पुलिस कहती है कि हम किस क़ानून के तहत केस दर्ज करें? ज़ाहिर है कि देश में ज़ुबानी तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून की फ़ौरन ज़रुरत है।
 
 
सरकार ने बुधवार (19 सितंबर, 2018) को मुस्लिम विमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन मैरिज) बिल, 2017 अध्यादेश के ज़रिए लाने की घोषणा की। अच्छा होता कि ये क़ानून सभी पक्षों की भागीदारी से बन पाता। अच्छा होता कि ये क़ानून संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित होता। वो हमारे लोकतंत्र के लिए एक स्वर्ण दिवस होता। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में भी मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केहर ने कहा था कि क़ानून बनाने का काम संसद का है और कोर्ट के फ़ैसले को इस तरह आगे ले जाना सही होगा।
 
 
क़ानून के ख़िलाफ़ प्रचार शुरू
बिल के मसौदे में सरकार ने कुछ अच्छे और ज़रुरी सुधार किए हैं। इसके अंतर्गत अगर किसी औरत का ज़ुबानी तीन तलाक़ होता है तो वो ख़ुद या उनके परिवारजन पति के ख़िलाफ एफ़आईआर दर्ज करवा सकते हैं। अगर सुलह हो जाए तो केस वापस लेने का भी प्रावधान किया गया है। इसके अलावा औरत को मुआवज़ा भी मिलेगा। मजिस्ट्रेट उचित समझे तो पति को ज़मानत पर रिहा करने का भी प्रावधान है। अगर मामला नहीं सुलझता तो पति को तीन साल तक जेल हो सकती है।
 
 
क़ानून तो अभी आया नहीं कि उसके ख़िलाफ़ रूढ़िवादी ताक़तों का प्रचार शुरू हो चुका है। इसे मुसलमानों को जेल भेजने की साज़िश बताया जा रहा है। लेकिन अगर जेल जाने का इतना ही डर है तो ग़लत काम करो ही मत। तलाक़ देना हो तो अल्लाह के बताए तरीक़े से तलाक़ दो जहां पत्नी को पूरा इंसाफ मिले। लेकिन ऐसा करने वाले मुसलमान मर्द अगर अब भी नहीं सुधरेंगे तो उनका भी वही हाल होगा जो हिंदू क़ानून में बहुविवाह करने वाले का या दहेज लेने वालों का होता है।
 
 
पहली पत्नी की मौजूदगी में दूसरी शादी करने वाले हिंदू मर्द को सात साल की जेल हो सकती है। देश में सभी को क़ानून का पालन करना ज़रूरी है। अल्पसंख्यक होने की आड़ में मुसलमान औरतों के हक़ कब तक दबा दिए जाएंगे? आज मुस्लिम औरत जाग गई है और ज़ोर-शोर से अपने हक़ मांग रही है। ये क़ानून पारवारिक मामलों में पीड़ित मुसलमान महिला को इंसाफ दिलाने में मदद करेगा।
 
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