वात्सल्य राय
बीबीसी संवाददाता, सहारनपुर
बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन के ज़मीनी असर को मापने के लिए अगर भीड़ कोई कसौटी है तो तीनों दलों के आला नेताओं ने इस पर ख़ुद को खरा मान लिया है।
भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए बने इस गठजोड़ के असल इम्तिहान की शुरुआत 11 अप्रैल से होनी है। नतीजा 23 मई को आएगा, लेकिन रविवार को इन तीनों दलों की पहली परीक्षा थी। पूरे उत्तर प्रदेश में ऐसी 11 रैली और होनी हैं।
देवबंद की संयुक्त रैली में जुटी भीड़ को लेकर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती का आकलन था, 'अपार भीड़ की जानकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिलेगी तो फिर वो इस गठबंधन से घबरा कर ज़रूर पगला जाएंगे।'
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने रैली के आकार के आधार पर दावा किया, 'ये महापरिवर्तन का गठबंधन है।'
राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजित सिंह ने ऐलान किया, 'आपकी संख्या और जोश ने आज तय कर दिया है कि भाजपा का उत्तर प्रदेश से सफ़ाया हो गया है।'
भीड़ को लेकर जोश में सिर्फ़ नेता नहीं दिखे. समर्थक भी उत्साह में थे। रैली के बाद बीएसपी के एक कार्यकर्ता ने बीबीसी के साथ फ़ेसबुक लाइव में कहा कि 'यहां जो भीड़ आई है, यहां सब लोग मज़दूर लोग हैं। ये अपनी मज़दूरी छोड़कर आए हैं. ये पैसे की लाई भीड़ नहीं थी।'
वोट में बदलेगी भीड़?
दोनों दलों के कुछ नेता संख्या का अनुमान लगाने की भी कोशिश में थे। समाजवादी पार्टी सरकार के एक पूर्व मंत्री स्वामी ओमवेश और दूसरे कुछ नेताओं के मुताबिक़ रैली में 'क़रीब दो से ढाई लाख लोग जुटे।' ये अनुमान इस आधार पर था कि जामिया तिब्बिया कॉलेज के बड़े मैदान का पंडाल पूरा भरा था और बाहर सड़क पर भी क़रीब उतने ही लोग थे।
रैली मैदान के बाहर ज़मीन पर चादर बिछाकर झंडे, बैनर और पोस्टर बेच रहे क़ासिम को भी ये भीड़ भा गई। रैली को लेकर पूछे गए सवाल पर बोले- 'आज कुछ ज़्यादा ही सामान बिक गया। साढ़े दस हज़ार की बिक्री हो गई।'
लेकिन क्या ये भीड़ 2014 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विरोधियों का सफ़ाया करने वाली बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए ख़तरे की घंटी है।
सवाल बाक़ी हैं। अपने गढ़ में भीड़ जुटाने की मायावती की क्षमता पर पहले भी संदेह नहीं रहा है। साल 2014 में भी उनकी रैलियों में आने वालों की संख्या कम नहीं थी लेकिन तब बीएसपी को सीट एक भी नहीं मिली थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ 19 सीटें मिलीं। इस गठजोड़ के तैयार होने की सबसे बड़ी वजह भी यही रही।
ये शोर क्या कहता है?
और गठबंधन के एलान के बाद से बड़ा सवाल यह भी रहा है कि क्या नेताओं ने जो तालमेल किया है, वो कार्यकर्ताओं और वोटरों के स्तर पर भी मंज़ूर होगा। देवबंद की रैली ने इसका भी जवाब दिया। रैली में आईं ज़्यादातर बसों, ट्रैक्टरों और कारों पर तीनों दलों के झंडे थे। सबसे ज़्यादा झंडे बीएसपी के दिखे। भीड़ में समर्थक भी बीएसपी के ज़्यादा थे लेकिन नारे तीनों दलों के पक्ष में लग रहे थे।
सभी पार्टियों के समर्थकों ने अलग-अलग गुट बनाए हुए थे, लेकिन मैदान के अलग-अलग कोनों में होते हुए भी वो एक दूसरे के पूरक बने हुए थे।
उत्साह ऐसा कि समर्थकों को शांत रहने की हिदायत देते हुए मायावती को कहना पड़ा कि मेरी बात ध्यान से सुनिए। नेताओं के भाषण से लेकर उड़ते हेलिकॉप्टर को मोबाइल में कै़द के वक़्त तक तमाम युवा लगातार नारे लगाते रहे।
देवबंद की रैली ने जवाब उस सवाल का भी दिया जिसमें पूछा जाता है कि क्या तीनों दलों के नेताओं में इगो क्लैश (अहं का टकराव) नहीं होगा?
लोकसभा और विधानसभा में ताक़त के लिहाज़ से फ़िलहाल बीएसपी भले ही तीनों दलों में नंबर वन नहीं हो लेकिन पहली संयुक्त रैली में मायावती नेता नंबर वन की हैसियत में दिखीं। उनका हेलिकॉप्टर सबसे बाद में उतरा। वे रैली में सबसे पहले और सबसे देर तक बोलीं।
अखिलेश यादव ने बड़ी विनम्रता से उनका आभार जताया और अजित सिंह ने उन्हें 'देश की नेता' के नाम से संबोधित किया।
गठबंधन का एजेंडा भी मायावती ने रखा। गठजोड़ की ओर से वादे भी उन्होंने ही किए और बीजेपी के साथ कांग्रेस पर भी सबसे ज़्यादा आक्रामक वही रहीं।
मायावती ने लिखा हुआ भाषण पढ़ा, वहीं दूसरे नंबर पर बोले अखिलेश यादव के भाषण में चुटीले पंच ज़्यादा रहे। अजित सिंह ने भी चुटकी लेकर बीजेपी और नरेंद्र मोदी पर वार किया।
नोटबंदी के दौरान मोदी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक रैली में ख़ुद को फ़क़ीर बताया था। अजित सिंह ने उसी विशेषण को याद करते हुए कहा कि "दिन में तीन बार सूट बदलते हैं। भगवान ऐसा फ़क़ीर सबको बना दे।
तीनों नेताओं ने बात रोज़गार की भी की, लेकिन सबसे ज़्यादा ज़िक्र किसानों और उनकी बदहाली का हुआ। इसी इलाक़े की कैराना लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में राष्ट्रीय लोकदल ने गन्ना बनाम जिन्ना का नारा दिया था। उस वक़्त लोकदल के टिकट पर चुनाव में उतरीं तब्बसुम हसन की जीत में इस नारे की बड़ी भूमिका मानी गई थी।
तीनों दलों के नेता शायद जानते हैं कि अब भी किसानों के दिल में कसक बाक़ी है। ख़ासकर गन्ना किसानों के बक़ाया भुगतान को लेकर। हर नेता ने संविधान बचाने की भी बात की। अखिलेश यादव ने तो यह दावा भी किया कि ऐसे ही मक़सद से डॉ. बीआर आम्बेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने साथ आने का सपना देखा था। मायावती ने सीधे तौर पर मुसलमानों से गठबंधन के पक्ष में रहने की अपील की।
मायावती ने भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण का नाम लिए बिना उन पर भी निशाना साधा। चंद्रशेखर रावण का असर रैली पंडाल में भी दिखा। रैली में आए कई लोग उनके पोस्टर थामे थे।
ऐसे ही कुछ समर्थकों ने बीबीसी से कहा कि "मायावती जो सोचती हैं, वो उनका फ़ैसला है लेकिन यहां बीस से तीस फ़ीसदी भीम आर्मी के समर्थक थे जो गठबंधन को सपोर्ट कर रहे हैं।"
ये समर्थक कहते हैं कि कांग्रेस को गठबंधन में जगह नहीं दिए जाने का फ़ैसला सही है, लेकिन उन्हें कांग्रेस के 'चौकीदार' को लेकर गढ़े गए नारे को दोहराने में कोई ऐतराज़ नहीं। रैली में आए समर्थकों ने सबसे ज़्यादा यही नारा लगाया।
चौकीदार शब्द मायावती और अखिलेश के भाषणों में भी सुनाई दिया। मायावती का दावा था कि इस चुनाव में चौकीदार की नाटकबाज़ी नही चलेगी' तो अखिलेश बोले, "इस बार मिलकर एक एक चौकीदारी से चौकी छीनने का काम करेंगे।
गठबंधन की रैली में आए समर्थकों को अपने नेताओं के दावे में बहुत दम दिखा, लेकिन ये सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर 11 अप्रैल को मतदान होना है और तमाम वोटर हैं कि दिल की बात ज़ुबां पर साफ़-साफ़ लाने को तैयार नहीं। सहारनपुर, मुज़फ़्फरनगर और बागपत में इस सवाल पर कि 'हवा किस तरफ़ है' लोग या तो चुप रहे या बोले 'गठबंधन का ज़ोर तो है लेकिन टक्कर में मोदी भी हैं।'