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Last Modified: मंगलवार, 27 नवंबर 2018 (14:10 IST)

क्या ईसा मसीह के वजूद के ऐतिहासिक सबूत मौजूद हैं?

isa masih | क्या ईसा मसीह के वजूद के ऐतिहासिक सबूत मौजूद हैं?
- ज़फ़र सैयद (उर्दू, इस्लामाबाद)
 
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने मुसलमानों के पैग़ंबर हज़रत ईसा मसीह के ऐतिहासिक सबूत के बारे में बयान क्या दिया उसके बाद सोशल मीडिया पर बहसें शुरू हो गईं। इस बहस में इमरान के समर्थक और विरोधी दोनों शामिल थे जो बढ़-चढ़कर अपनी दलीलें दे रहे थे।
 
 
दरअसल, बीते हफ़्ते इमरान ख़ान ने इस्लामाबाद में इंटरनेशनल रहमतुल लील आलमीन कॉन्फ़्रेंस में कहा था कि 'बाक़ी पैग़ंबर अल्लाह की ओर से आए थे लेकिन इतिहास में उनका ज़िक्र ही नहीं है। बड़ा कम ज़िक्र है। हज़रत मूसा का है, मगर हज़रत ईसा का इतिहास में ज़िक्र नहीं है।'
 
 
लेकिन क्या असल में हज़रत ईसा मसीह की ज़िंदगी के बारे में कोई सबूत मौजूद है? और अगर है तो उनकी हैसियत और प्रकृति क्या है?
 
 
हमने इस सिलसिले में कुछ सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की है और इस दौरान ख़ुद को सिर्फ़ हज़रत ईसा मसीह के बाद गुज़रने वाली एक सदी तक ही सीमित रखा है। इसके अलावा हमने सिर्फ़ ग़ैर-धार्मिक (सेक्युलर) ऐतिहासिक सूत्रों की जांच की है।
 
 
सबसे पुराना स्रोत यहूदी इतिहासकार जोज़ेफ़ फिलुइस की 20 खंड की किताब 'यहूदियों के क़दीम आसार' में पाया जाता है। जिसमें हज़रत आदम से लेकर उस दौर तक की स्थिति दर्ज है। यह किताब 93 ईस्वी में लिखी गई, यानी हज़रत ईसा मसीह की मौत के 60 साल बाद।
 
 
'जिसे लोग मसीहा कहते हैं'
यरुशलम का इतिहास बयान करते हुए जोज़ेफ़्स एक यहूदी पेशवा अनानूस बिन अनानूस का ज़िक्र करते हैं जिसने जेम्स नाम के एक शख़्स को पत्थरों से मरवा डाला। हालांकि, उस दौर में जेम्स बहुत आम नाम था इसलिए जोज़ेफ़्स ने स्पष्ट करने के लिए लिखा, 'जेम्स, ईसा का भाई, जिसे लोग मसीहा कहते हैं।'
 
 
बेहद छोटा ही सही लेकिन यह इतिहास में हज़रत ईसा मसीह का पहला ज़िक्र है। इससे ज़ाहिर होता है कि जोज़ेफ़्स के ख़याल में हज़रत ईसा उतने जाने पहचाने थे और उनके मसीहा होने की कल्पना इतनी आम थी कि उसे उम्मीद थी कि इस क़दर छोटा ज़िक्र करने भर से उसके पाठकों को जेम्स की पहचान का पता चल जाएगा।
 
 
इसी जोज़ेफ़्स ने एक और जगह हज़रत ईसा का विस्तार से ज़िक्र किया है। जिसमें उनके सूली पर चढ़ाए जाने और दोबारा उठाए जाने का वर्णन है लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक़ ये हिस्सा तोड़ा-मरोड़ा गया है और इसे ईसाई समर्थकों ने सदियों बाद अपनी तरफ़ से शामिल कर लिया है।
 
 
हज़रत ईसा जिस जगह पैदा हुए और पले-बढ़े वह मूर्ति उपासक रोमनों के प्रभाव में थी और रोमनों ने ही उन्हें सूली पर चढ़ाया था। हालांकि, इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक़ उनकी शक्ल का एक शख़्स सूली पर चढ़ाया गया था। उस ज़माने में रोमन सुपर पावर का दर्जा रखते थे और वहां ज्ञान और कला ने ख़ासी तरक़्क़ी की थी, और इतिहास की किताबें लिखी जा रही थीं। तो क्या उन्होंने पहली सदी ईस्वी में हज़रत ईसा का ज़िक्र किया है? इसका जवाब है एक नहीं कई बार।
 
 
क्या सुलूक किया जाए?
पहला ज़िक्र प्लिनी खोर्द के लेखन में मिलता है। उनके चाचा को प्लिनी बुज़ुर्ग कहा जाता है और वह अग्रणी वैज्ञानिक और दार्शनिक हैं। प्लिनी खोर्द रोमन दरबार से सम्बद्ध थे और उन्होंने इस हैसियत से 247 पत्र लिखे हैं जो बहुत मशहूर हुए और उनसे इस दौर के बहुत से मामलों पर रोशनी पड़ती है।
 
 
उनमें से हमारे मतलब का जो पत्र है उसका नंबर दसवां है। प्लिनी सन 112 (यानी ईसा के तक़रीबन 79 साल बाद) में इस इलाक़े के गवर्नर थे जो आज कल तुर्की में शामिल है।
 
एक पत्र में प्लिनी रोमन बादशाह ट्रेजन को ख़त लिखकर मार्गदर्शन मांगते हैं कि उनके इलाक़े में जो एक नया संप्रदाय ईसाइयत के नाम से आया है, उसके अनुयायियों के साथ क्या सुलूक किया जाए।
 
 
वह पूछते हैं कि अगर कोई ईसाई मेरे सामने आकर हमारी मूर्तियों की पूजा करे और हज़रत ईसा को बुरा भला कहे तो क्या उसे माफ़ कर दिया जाए?.....  यह रोमन काल में ईसा का पहला ज़िक्र है जो हम तक पहुंचा है।
 
 
यहूदियों को रोम से निकाला गया
इसके बाद हम एक और रोमन इतिहासकार सोई टूनिएस की किताब 'सीज़र की जीवनी' का अध्ययन करते हैं जो सन 115 में लिखी गई थी।
 
 
इस किताब में उल्लेख है कि रोमन बादशाह क्लॉडिएस के दौर (सन 41 से 54) में तमाम यहूदियों को रोम से निकाल दिया गया था क्योंकि वह 'क्रिस्तोस' के उकसाने पर शहर में दंगा कर रहे थे।
 
 
विशेषज्ञों के मुताबिक़ यहां क्रिस्तोस का मतलब क्राइस्ट यानी हज़रत ईसा से है। वहीं, सोई टूनिएस ने हज़रत ईसा का नाम यूनानी भाषा में ग़लत लिखा है, यानी Christus की जगह Chrestus।
 
 
'ख़तरनाक अंधविश्वास'
टिसीटस मशहूर रोमन इतिहासकार हुए हैं जिनकी किताब 'शाही रोम का इतिहास' आज भी पढ़ी जाती है। उन्होंने इस किताब में सन 14 से 68 का इतिहास बयान किया है। आपने सुना होगा कि बादशाह नीरो ने रोम को आग लगवा दी थी और ख़ुद पहाड़ के ऊपर से बांसुरी बजाते हुए शहर के जलने का मंज़र देख रहा था।
 
 
बांसुरी बजाने की घटना ग़लत है लेकिन बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि ख़ुद शहर को आग लगवाने वाली बात में बेहद वज़न है क्योंकि नीरो पुराने रोम को जलाकर इसकी जगह नया शहर आबाद करना चाहता था।
 
 
लेकिनी किसी न किसी तरह ये बात छा गई कि बादशाह ने अपनी राजधानी को राख कर दिया। जिन लोगों के घरबार जल गए थे उनके अंदर बेचैनी फैल गई और बादशाह को ख़तरा महसूस हो गया कि कहीं ये चिंगारी भड़क कर उनकी सत्ता को भी रोम की तरह राख न कर दे। इसी वजह से नीरो ने भी वही किया जो उस वक़्त से लेकर आज तक होता चला आया है, यानी किसी कमज़ोर को क़ुर्बानी का बकरा बना देना।
 
 
टिसीटस ने लिखा है कि नीरो ने चुन-चुनकर ईसाई इकट्ठा किए और उन्हें तड़पा-तड़पाकर मरवा डाला। आगे चलकर टिसीटस वर्णन करते हैं, "नीरो ने ग़लत तरीक़े से उन लोगों पर आरोप लगाया जिन्हें लोग ईसाई कहते हैं, जिसे प्रांत के ख़ज़ांची पोंटिएस पायलट ने बादशाह टाइबेराइस के दौर में क़त्ल करवा दिया था। लेकिन ये ख़तरनाक अंधविश्वास अस्थायी रूप से कुचले जाने के बावजूद न सिर्फ़ यहूदियों के इलाक़े (मौजूदा फ़लस्तीन) बल्कि शहर (यानी रोम) तक भी फैल गया है।"
 
 
आपने देखा कि यहां हज़रत ईसा के बारे में कहीं ज़्यादा विस्तार से जानकारी मौजूद है। वहीं, टिसीटस ने भी एक ग़लती की है। उन्होंने पोंटिएस पायलट को ख़ज़ांची बताया है। हालांकि, आधुनिक इतिहासकारों के मुताबिक़, वह यहूदी प्रांत का गवर्नर था।
 
 
तो उस सूली के उन टुकड़ों की क्या हक़ीक़त है जो दुनियाभर के विभिन्न चर्च में पाए जाते हैं और जिनके बारे में कहा जाता है कि वह उसी असली सूली के हिस्से हैं जिस पर हज़रत ईसा को चढ़ाया गया था।
 
 
इटली के लेखक अंबरतो इको के उपन्यास 'नीम ऑफ़ द रोज़' में एक छात्र अपने शिक्षक से यही सवाल पूछता है तो शिक्षक जवाब देता है कि अगर वह तमाम 'असल' सूलियां इकट्ठा की जाए तो उनसे एक छोटा मोटा जंगल तैयार हो जाएगा।
 
 
सूलियां एक तरफ़ लेकिन ऊपर की गई बहस से ज़ाहिर है कि हज़रत ईसा का ज़िक्र इतिहास में विभिन्न समय और विभिन्न स्रोतों की शक्ल में हमारे सामने आता है।
 
 
इसलिए इमरान ख़ान का यह बयान दुरुस्त नहीं है कि हज़रत मूसा का ज़िक्र तो इतिहास में मौजूद है लेकिन हज़रत ईसा का ज़िक्र नहीं मिलता। ज़्यादा से ज़्यादा ये कह सकते हैं कि विस्तार से ज़िक्र नहीं मिलता। हमारे ख़याल से उन्होंने नामों का क्रम उलट दिया।