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Last Updated : मंगलवार, 22 दिसंबर 2020 (14:14 IST)

बिहारी किसान क्या APMC पर नीतीश कुमार के फ़ैसले से ग़रीब हुए?

बिहारी किसान क्या APMC पर नीतीश कुमार के फ़ैसले से ग़रीब हुए? - Are Bihar farmers impoverished by Nitish Kumar's decision on APMC?
-रजनीश कुमार
चंद्रदेव सिंह 2004 में बिहार के औरंगाबाद में हाई स्कूल के हेडमास्टर से रिटायर हुए। 1965 में इन्होंने जब नौकरी जॉइन की थी तब इनकी सैलरी प्रति महीने 90 रुपए थी और गेहूं की कीमत थी प्रति क्विंटल 80 रुपए। 2004 में जब रिटायर हुए तो इनकी सैलरी 31 हज़ार थी और गेहूं की क़ीमत 700 रुपए प्रति क्विंटल। यानी सैलरी क़रीब 4000 गुना बढ़ी लेकिन गेहूं की कीमत क़रीब 10 गुना ही बढ़ी।
 
चंद्रदेव सिंह बिहार में खेती-किसानी के संकट को समझाने के लिए अपना ही उदाहरण देते हैं। वो कहते हैं कि अनाज की क़ीमत उनकी सैलरी की गति से नहीं बढ़नी चाहिए लेकिन कम से कम किसानों को इतना तो मिले कि लागत निकल जाए और अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए क़र्ज़ नहीं लेना पड़े। चंद्रदेव सिंह कहते हैं कि बिहार में अनाज और भूसे के भाव में कोई फ़र्क़ नहीं है।
 
मोदी सरकार के नए कृषि क़ानून का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि जो काम नरेंद्र मोदी ने प्रधानमत्री बनने के बाद अब किया है उसे नीतीश कुमार ने 14 साल पहले ही कर दिया था। मतलब अभी तीन नए कृषि क़ानूनों के तहत केंद्र सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी से बाहर अपनी उपज को बेचने की जो मंज़ूरी अभी दे रही है वो बिहार में 2006 से ही लागू है।
 
नीतीश कुमार ने मंडी सिस्टम को ख़त्म कर दिया था। कहा जाता है कि इसका असर किसानों पर बहुत अच्छा नहीं हुआ जबकि उस वक़्त इसे कृषि सुधार के तौर पर देखा गया था। किसान बिहार में निजी व्यापारियों को अपना अनाज बेचते हैं लेकिन उनके लिए लागत निकालना भी चुनौती है।
 
जब नीतीश कुमार ने ये फ़ैसला लिया तो बिहार में कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं हुआ था। तब कहा गया कि किसानों में जागरूकता नहीं थी और इस वजह से लोग समझ नहीं पाए। इसके अलावा बिहार में 97 फ़ीसदी छोटी जोत वाले किसान हैं और उनके पास बेचने के लिए बहुत अनाज नहीं बचता है।
 
भारत के उपभोक्ता मामले और खाद्य मंत्रालय के अनुसार जून 2020 में सरकार की अलग-अलग एजेंसियों ने 389.92 लाख मिट्रिक टन गेहूं की ख़रीदारी की इसमें बिहार का गेहूं महज़ पांच हज़ार मीट्रिक टन था जो कि पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की तुलना में न के बराबर है।
 
पटना यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ''बिहार में छोटी जोत वाले किसान ज़्यादा हैं। यहां अनाज का सरप्लस उत्पादन नहीं होता है। 97 फ़ीसदी यहां वैसे किसान हैं जो अनाज अपने परिवार के खाने से ज़्यादा पैदा नहीं कर पाते हैं क्योंकि सीमित जम़ीन है। ऐसे में नीतीश कुमार ने जब सरकारी मंडियों को ख़त्म किया तो इसका किसानों पर बहुत असर नहीं पड़ा। बिहार में लोग अनाज बेचने से ज़्यादा खाने के लिए उगाते हैं। या फिर यूं कहें कि खाने से ज़्यादा नहीं उगा पाते हैं।''
 
एनके चौधरी कहते हैं कि बिहार में खेती-किसानी की समस्या पंजाब से बिल्कुल अलग है। वो कहते हैं, ''पंजाब की खेती पूंजीवादी है जबकि बिहारी की खेती-किसानी अर्द्ध-सामंती है। पंजाब में उत्पादन का एकमात्र लक्ष्य है मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़े के लालच का असर वहां की मिट्टी और भूजल स्तर पर भी पड़ा है। बिहार में खेती की असली समस्या भूमि का स्वामित्व, सिंचाई, तकनीक, श्रम, बाढ़ और सूखा है। बिहार की खेती वहां के किसानों के लिए घाटे का सौदा इसलिए है क्योंकि यहां बुनियादी खेती करने वालों के पास ज़मीन नहीं है, सिंचाई की व्यवस्था नहीं है और बाढ़-सूखा को लेकर कोई तैयारी नहीं है।''
प्रोफ़ेसर चौधरी बिहार की खेती-किसानी को अर्द्ध सामंती कहने की वजह बताते हुए कहते हैं क्योंकि यहां भूमि पर मालिकाना हक़, श्रम को नियंत्रित करने की शक्ति और आर्थिक क्षमता एक ही वर्ग के पास है।
 
पटना स्थित एनके सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर कहते हैं कि अगर प्रधानमंत्री की बात सही होती कि कृषि क़ानून से किसानों की हालत अच्छी हो जाएगी तो बिहार में पिछले 14 सालों में किसानों की हालत बदतर क्यों हुई?
 
डीएम दिवाकर कहते हैं, ''बिहार में धान एक हज़ार रुपए प्रति क्विंटल बिक रहा है। देश भर में 94 फ़ीसदी किसान अपना अनाज मंडी से बाहर ही बेच रहे हैं। इन्हें कोई एमएसपी नहीं मिलता। ऐसे में तो इनकी हालत अच्छी हो जानी चाहिए थी।
 
"बिहार की खेती-किसानी की असली समस्या ये नहीं है कि उनके लिए बाज़ार नहीं है बल्कि समस्या ये है कि यहां के किसानों के पास भूस्वामित्व नहीं है, बाढ़ और सूखा को लेकर सरकार की कोई योजना नहीं है और सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। मैं ये नहीं कह सकता कि 2006 से पहले बिहार में किसानों की स्थिति अच्छी थी। उसके पहले भी बहुत बुरी थी, लेकिन प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि कृषि क़ानून से किसानों की हालत सुधर जाएगी तो ये बिहार में पिछले 14 सालों से नहीं हो पाया।''
 
अरविंद पनगढ़िया मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में नीति आयोग के उपाध्यक्ष थे। वो अभी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं और एशियन डेवलपमेंट बैंक के चीफ़ इकोनॉमिस्ट भी रहे हैं। अरविंद पनगढ़िया ने मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों का समर्थन किया है। उन्हें लगता कि नीतीश कुमार ने बिहार को एपीएमसी से बाहर किया तो उसका असर वहां की कृषि पर सकारात्मक पड़ा।
 
अरविंद पनगढ़िया ने 19 दिसंबर को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा और बताया कि एपीएमएसी से बाहर होने वाले राज्यों में कृषि वृद्धि दर बढ़ गई।
 
पनगढ़िया ने अपने लेख में लिखा है, ''प्रधानमंत्री वाजपेयी ने पहली बार इसकी शुरुआत मॉडल-एपीएमसी एक्ट, 2003 से की थी। इसके बाद की सभी केंद्र सरकारों ने इन सुधारों को प्रोत्साहित किया। 20 राज्यों ने एपीएमसी एक्ट में संशोधन किया। इनमें से 16 राज्यों ने एक क़ानून लागू किया जिसमें कई और चीज़ें जोड़ी गईं। बिहार ने तो 2006 में एपीएमसी से ख़ुद को अलग कर लिया।''
 
''आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश ने मॉडल एक्ट को अपनाया और इसका नतीजा कृषि वृद्धि दर में भी देखने को मिला। 2006-07 और 2018-19 के बीच इन राज्यों में औसत कृषि वृद्धि दर क्रमशः 7.1%, 5.3%, 3.9% और 6.8% रही जबकि पंजाब में वृद्धि दर महज़ 1.8% रही. कृषि क़ानून की आलोचना करने वाले बिहारी किसानों की ग़रीबी और पंजाबी किसानों की अमीरी के लिए एपीएमसी एक्ट को ज़िम्मेदार बता रहे है। इनका कहना है कि बिहारी किसान इसलिए ग़रीब हुए क्योंकि वहां की सरकार ने एपीएमसी एक्ट से ख़ुद को अलग कर लिया।''
 
पनगढ़िया कहते हैं, ''कृषि में उच्च वृद्धि दर के बावजूद बिहारी किसान पंजाबी किसानों की तुलना में इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि बिहारी किसान पहले से ही बहुत ग़रीब थे और उन्होंने अपनी शुरुआत बहुत निचले स्तर से की है। 1992-93 तक पंजाब सकल घरेलू उत्पाद में भारत के सभी राज्यों में दूसरे नंबर था जो 2018-19 में दसवें नंबर पर आ गया।
 
अरविंद पनगढ़िया के इस तर्क को डीएम दिवाकर सिरे से ख़ारिज करते हैं। वो कहते हैं कि कृषि वृद्धि दर बढ़ने का मतलब ये क़तई नहीं है कि उसका फ़ायदा किसानों को मिला।
 
दिवाकर कहते हैं, ''बिहार में 20 से ज़्यादा ऐसे ज़िले हैं जहां लोगों की प्रति व्यक्ति आय हर साल 10 हज़ार रुपए से भी कम है जबकि पटना में प्रति व्यक्ति आय 65 हज़ार रुपए हैं। नालंदा में अच्छी फसल हुई इसका मतलब ये नहीं है कि पूरे बिहार में अच्छी फसल हुई। ग्रोथ का बेस इयर क्या है ये मायने रखता है। यहां ज़ीरो से शुरुआत होगी वहां प्रतिशत में डेटा ख़ूब बड़ा दिखता है।''
 
एनके चौधरी कहते हैं कि बिहार की खेती-किसानी की समझ के लिए पनगढ़िया को बिहार आकर देखना होगा। वो कहते हैं, ''पनगढ़िया कोलंबिया यूनिवर्सिटी से बिहार के किसानों के संकट को नहीं समझ सकते। बिहार और पंजाब के किसानों में जम़ीन आसमान का फ़र्क़ है। पंजाब के किसान इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि मार्केट पर कंट्रोल विक्रेता का हो या ख़रीदार का। मोदी सरकार के क़ानून से बाज़ार पर नियंत्रण बड़े ख़रीदारों का हो जाएगा और एमएसपी जैसी व्यवस्था बिना मारे मर जाएगी। वहीं बिहार के किसान तो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यहां तो जो काम आज़ादी के बाद हो जाने चाहिए थे वो अब तक नहीं हुए हैं।''
 
पनगढ़िया ने लिखा है, ''जो कह रहे हैं कि इस क़ानून से निजी कंपनियों को किसानों का शोषण करने की छूट मिल जाएगी उन्हें बताना चाहिए ये कैसे होगा? शोषण निजी कंपनियां करेंगी या एपीएमसी के भारी-भरकम एजेंट कर रहे हैं जो थोक होलसेलर्स मिले होते हैं और बिना कोई परामर्श के क़ीमत तय करते हैं। इसके साथ ही वो भारी कमीशन भी खाते हैं। ये तर्क दे रहे हैं कि कॉर्पोरेट घराना एपीएमसी मंडियों को ख़त्म कर देगा और फिर किसानों से वे औने-पौने दाम पर अनाजों की ख़रीदारी करेंगे।
 
अर्थशास्त्री रमेश चांद और अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्रियों ने बताया कि नेस्ले जैसी कंपनियां सालों से सरकारी सहकारी संगठनों के साथ मिलकर छोटे दूध उत्पादकों से दूध ख़रीद रही हैं। इन्होंने दूध उत्पादकों का शोषण करने के बजाय उनके दूध की मांग बढ़ाने और मार्केट को बड़ा बनाने में मदद की।'' 
 
इंडिया टुडे हिन्दी पत्रिका के संपादक और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमान तिवारी पनगढ़िया के इस तर्क से सहमत नहीं हैं। वो कहते हैं कि पनगढ़िया को पता होना चाहिए कि भारत में जिन पशुपालकों से दूध ख़रीदे जा रहे हैं उन्हें कोई अच्छी क़ीमत नहीं मिल रही है। लेकिन नेस्ले जैसी कंपनियां डेयरी उत्पाद मोटी क़ीमत पर बेच रही हैं। भारत में पैक्ड दूध विदेशों की तुलना में महंगा है। मतलब दूध का मार्केट बढ़ा लेकिन उसका फ़ायदा न तो दुग्ध उत्पादकों को मिल रहा है और न ही उपभोक्ताओं को। फ़ायदा बड़े कॉर्पोरेट घराने ले रहे हैं और यही डर इस कृषि क़ानून से भी है।''
 
तिवारी कहते हैं कि भारत में दूध का कारोबार अब भी सहकारी संस्थाओं के ज़रिए हो रहा है। वो कहते हैं, ''अगर भारत में न्यूज़ीलैंड के डेयरी उत्पाद आ जाएं तो यहां के उपभोक्ताओं को फ़ायदा होगा। संभव है कि मार्केट में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो यहां के पशुपालकों को भी फ़ायदा हो, लेकिन सरकार ऐसा नहीं होने दे रही। भारत ने आरसीईपी इसलिए जॉइन नहीं किया कि भारत का डेयरी उद्योग चौपट हो जाएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि आपने अपने डेयरी उद्योग को अब तक ऐसा क्यों नहीं बनाया कि वो विदेशी कंपनियों को टक्कर दे सकें।''
 
मोदी सरकार के कृषि क़ानून का समर्थन करते हुए अरविंद पनगढ़िया ने कांग्रेस समर्थित अर्थशास्त्रियों पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक पार्टियों का रुख़ तो समझ में आता है लेकिन जिन अर्थशास्त्रियों ने यूपीए सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहते हुए कृषि में नए बदलावों का समर्थन किया था वो भी अब कृषि क़ानून का विरोध कर रहे हैं। हालांकि कांग्रेस नेता इस पर कई बार सफ़ाई दे चुके हैं। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम भी कह चुके हैं कि उनकी सरकार इस तरह के कृषि क़ानून के पक्ष में कभी नहीं थी।
अरविंद पनगढ़िया ने मनमोहन सिंह सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बासु और रिज़र्व बैंक के पूर्व अध्यक्ष रघुराम राजन पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि सरकार में रहते हुए इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने नए कृषि क़ानून की वकालत की थी।
 
अरविंद पनगढ़िया को अर्थशास्त्री कौशिक बासु ने जवाब दिया है। इन्होंने लिखा है कि भारतीय कृषि में सुधार की ज़रूत है लेकिन छोटे किसानों की आजीविका की क़ीमत पर नहीं। कौशिक बासु ने ट्वीट कर कहा है, ''हमें राजनीति किनारे रख देनी चाहिए और नए सिरे से क़ानून बनाने पर विचार करना चाहिए, जिसमें व्यापक पैमाने पर विमर्श हो।''
 
अरविंद पनगढ़िया के जवाब में कौशिक बासु ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है, ''ये सही बात है कि मैंने और रघुराम राजन ने कहा था कि भारत के कृषि क़ानून पुराने पड़ गए हैं और एपीएमसी एक्ट में सुधार की ज़रूरत है। किसानों को विकल्प देने की ज़रूरत है लेकिन उससे पहले हमें ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि छोटे किसानों को शोषण से बचाया जा सके। मुक्त बाज़ार में छोटे किसानों की जो मुश्किलें हैं उनको गंभीरता से देखने की ज़रूरत है।''
 
''सरकार ने इसकी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है जिससे किसानों के शोषण को रोका जा सकेगा। एपीएमसी एक्ट में वर्तमान संशोधन बहुत प्रभावी नहीं है। इस सुधार में बड़े कॉर्पोरेट घरानों को व्यापक पैमाने पर स्टोर करने की अनुमति दे दी गई है। इससे बड़े कॉर्पोरेट घराने सामने आएंगे और स्टोर व्यापक पैमाने पर करेंगे। इसके मार्केट पर इनका नियंत्रण बढ़ेगा। अगर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों के साथ किसी भी तरह का कोई विवाद होता है कि उनके मसले को सुलझाने के लिए कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है।''
 
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