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Last Modified: बुधवार, 22 नवंबर 2017 (12:06 IST)

अरब का वो शायर जो शराब का उपासक था

अरब का वो शायर जो शराब का उपासक था | Arab poet Abu Nuwas
शराब और शब्दों की जुगलबंदी ज़बरदस्त होती है। शायरी, तरन्नुम या काव्य का ग़ज़ब का कॉकटेल देखने को मिलता है। इस बात की सैकड़ों मिसालें दी जा सकती हैं। ग़ालिब हों या फ़ैज़, या फिर हरिवंश राय बच्चन। पश्चिमी दुनिया में रोम के कवि होरेस भी मय के ज़बरदस्त शौक़ीन थे। वहीं ब्रितानी कवि लॉर्ड बायरन ने भी लिखा है कि जाम थामने से बेहतर कोई काम नहीं।
 
लेकिन, हम ये कहें कि मय की लय में लिखने वाले एक शानदार अरब इस्लामिक कवि भी थे, तो शायद आप यक़ीन न करें। चलिए आप का तार्रुफ़ मय के शौक़ीन अरब कवि अबु नुवास से कराते हैं। अबु नुवास सऊदी अरब में उस वक़्त पैदा हुए थे, जब वहां पर अब्बासी ख़लीफ़ाओं का राज था। हाल ही में उनकी कविताओं या ख़मीरियत का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया है।
 
संयुक्त अरब अमीरात
अबु नुवास इस्लामिक दुनिया के सबसे विवादित कवि थे। शराब को लेकर उनकी नज़्मों का अनुवाद एलेक्स रॉवेल ने किया है। जिसमें मय के नशे में झूमने के क़िस्से हैं। जश्ने-बहारां है और लुत्फ़ हैं जवानी के। यहां तक कि अबु नुवास की नज़्मों में समलैंगिकता का लुत्फ़ लेने वालों के क़िस्से भी हैं। यानी उनके दौर में इस्लाम में समलैंगिकता भी हराम नहीं थी, जैसा आज कहा जाता है।
 
अबु नुवास की नज़्मों का अनुवाद करने वाले एलेक्स रॉवेल सऊदी अरब में पैदा हुए थे। मगर उनकी परवरिश संयुक्त अरब अमीरात में हुई। वो एक ब्रिटिश पत्रकार और अनुवादक हैं। उन्होंने अरबी ज़बान में महारत हासिल करने के लिए अबु नुवास की नज़्मों का तर्जुमा करना शुरू किया था।
 
नज़्मों का शानदार
अरब देशों के अन्य मशहूर कवियों जैसे उमर ख़ैय्याम या ख़लील जिब्रान के मुक़ाबले अबु नुवास का नाम आज कोई नहीं जानता। उनकी कविताएं ख़राब अनुवाद का शिकार हो गईं। जबकि अरब देशों में वो कमोबेश हर घर में जाने जाते हैं। मगर बाक़ी दुनिया उनके नाम से नावाक़िफ़ है। लेकिन एलेक्स रॉवेल ने शानदार काफ़ियाबंदी करते हुए अबु नुवास की नज़्मों का शानदार अनुवाद किया है।
 
उनकी क़िताब का नाम है, विंटेज ह्यूमर: द इस्लामिक वाइन पोएट्री ऑफ़ अबु नुवास। ये क़िताब अगले महीने शाया होगी। रॉवेल कहते हैं कि लोग अबु नुवास को न सिर्फ़ पहचानेंगे, बल्कि उनकी नज़्मों का लुत्फ़ भी उठाएंगे। रॉवेल मानते हैं कि अबु नुवास की नज़्में सिर्फ़ अरब देशों की कविता नहीं। ये तो पूरी इंसानियत की विरासत है। ये 1200 साल पुरानी कई कविताओं जैसी आज भी प्रासंगिक है।
 
मुसलमानों के ख़िलाफ़
अबु नुवास के बारे में कहा जाता है कि वो अपने दौर में अक्सर धार्मिक बहसों में शामिल हुआ करते थे। वो इस्लाम का शुरुआती दौर था। अपनी ज़्यादातर कविताओं में वो कट्टर मुसलमानों के ख़िलाफ़ लिखते दिखाई देते हैं। कट्टरपंथी उनकी बातों को हराम कहते थे।
 
अपनी नज़्म प्लेज़र ऑफ़ बग़दाद में अबु नुवास ने हज के बारे में लिखा है। जब उन्हें हज पर मक्का जाने का मशविरा दिया गया, तो अबु नुवास ने अपनी कविता के ज़रिए इसका जवाब दिया। उन्होंने लिखा कि जब मैं रोज़ मयख़ानों में डूबा रहता हूं। या वेश्याओं के आगोश में रहता हू। तुम मुझे इन से दूर कर सकोगे क्या?
 
जन्नत का एहसास
एक और कविता में अबु नुवास शराब छोड़ने के मशवरे का मखौल उड़ाते हैं। वो लिखते हैं कि- जब अल्लाह ने इसे नहीं छोड़ा तो मैं कैसे मय छोड़ दू। हमारे खलीफ़ा शराब के शौक़ीन हैं, तो मैं क्यों इसे छोड़ू। अच्छी शराब सूरज जैसी चमकदार होती है। इस ज़िंदगी में भले ही कोई जन्नत न हो, मगर शराब हमें जन्नत का एहसास कराती है।
 
इस्लाम के पांच बुनियादी उसूलों में से एक हज पर जाने से साफ इनकार करके अबु नुवास खुलकर अपने बगावती तेवर का इजहार करते हैं। उनकी बातें तो ईशनिंदा जैसी मालूम होती हैं। अबु नुवास की नज़्में पढ़ने के बाद कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि आख़िर एलेक्स रॉवेल ने इन कविताओं का नाम इस्लामिक पोएम क्यों रखा। इन्हें अरबी कविताएं भी कहा जा सकता है।
 
उमर ख़ैय्याम
अबु नुवास की कविताओं के विशेषज्ञ माने जाने वाले फिलिप कैनेडी ने एलेक्स रॉवेल को चुनौती दी है। कैनेडी कहते हैं कि अबु नुवास के इस अनुवाद को इस्लामिक बताने पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। कैनेडी के मुताबिक अबु नुवास की कविताओं में ईसाई, यहूदी और पारसी परंपराओं का भी मेल है। ईसाई और यहूदी कविताओं में भी शराब और मयख़ानों का ख़ूब ज़िक्र मिलता है।
 
कैनेडी कहते हैं कि अबु नुवास की नज़्में अरब ज़बान की विरासत हैं। वो किसी धर्म के दायरे में नहीं क़ैद की जा सकती हैं। इनमें शराब को सूफ़ी और रहस्यवादी विचारधारा के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। ऐसे ही एक कवि हैं उमर ख़ैय्याम। उनकी फारसी रुबाइयां सदियों से यूरोप के लोगों को लुभाती रही हैं।
 
सुन्नी कट्टरपंथ
कैनेडी कहते हैं कि अबु नुवास की खमीरियत को भी इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। जिसमें ख़ुदा की इबादत का एक नया नज़रिया पेश किया गया है। इसे शराबियों की नज़्में कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन रॉवेल अलग तर्क देते हैं। वो कहते हैं कि आज हम जिस इस्लाम को जानते हैं उस सुन्नी कट्टरपंथ ने अबु नुवास के गुज़र जाने के कई सदियों बाद अपनी जड़ें जमाई थी।
 
अबु नुवास को उनके दौर में भी कट्टरपंथियों के हमले का सामना करना पड़ा था। लेकिन उनके दौर में मुरिजित मुसलमान भी होते थे, जो ये मानते थे कि पाप करने के बाद भी आप मुसलमान बने रह सकते थे। हनफी विचारधारा तो ये भी मानती थी हल्की शराब नबीद को मुसलमान पी सकते थे। हालांकि अबु नुवास का दावा था कि वो ख्मर नाम की शराब पीते थे।
 
इस्लाम का जन्म
अरब दुनिया के जिस इलाक़े हिजाज़ में इस्लाम का जन्म हुआ, वो पहले ही शराबनोशी के लिए जाना जाता था। क़ुरान की इस बारे में मिली-जुली राय मालूम होती है। एक आयत में लिखा गया है कि शराब से लोगों को कुछ फ़ायदा भी होता है। वहीं शराब को लेकर जो सबसे सख़्त बात क़ुरान में लिखी है वो ये कि इससे परहेज़ करना चाहिए।
 
ऐसे में रॉवेल ये सवाल उठाते हैं कि सदियों से इस्लाम के विद्वानों के बीच ये बहस चली आ रही है कि क़ुरान के मुताबिक़ शराब हराम है या नहीं? हालांकि फिलिम कैनेडी ये मानते हैं कि रॉवेल का अबु नुवास की कविताओं का अनुवाद बिल्कुल सही वक्त पर आया है।
 
आज जब दुनिया भर में इस्लामिक कट्टरपंथ सुर्ख़ियों में है, तो कट्टरपंथियों को अबु नुवास की कविताएं आईना दिखाने का काम कर सकती हैं। लोग जानें तो अब्बासी ख़लीफ़ाओं के दौर में भी इस्लाम में ऐसी चीज़ें चलन में थीं। कोई शराब की वक़ालत करने पर किसी का क़त्ल नहीं करता था।
 
शानदार नज़्में
कैनेडी कहते हैं कि अंग्रेज़ी ज़बान जानने-समझने वालों को मालूम होना चाहिए कि अरब भाषा में भी शराब और मयख़ानों के बारे में शानदार नज़्में लिखी गई हैं। जैसे- गर शराब के ज़ुबान होती, तो वो जवांदिलों के बीच एक बुजुर्ग की तरह बैठी होती और लोगों को पुराने दौर के लज़ीज़ क़िस्से सुना रही होती।
 
इस्लामिक साहित्य में अबु नुवास का योगदान नकारना उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी। कैनेडी कहते हैं कि आज बहुत से लोग अबु नुवास का ज़िक्र करने से कतराते हैं। लेकिन अरब देशों में अबु नुवास के अस्तित्व को पूरी तरह से नकारा नहीं जाता। अरबी भाषा पर अबु नुवास की पकड़ शानदार है। 
 
कहा जाता है कि जब सन् 814 में अबु नुवास की मौत हुई, तो उस वक़्त के ख़लीफ़ा अल मामून ने कहा कि हमारे दौर की एक दिलकश रूह विदा हो गई है। जिसने भी उनके बारे में कुछ बुरा कहा, अल्लाह उसे माफ़ नहीं करेगा।
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