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ग़ज़ल-मीर तक़ी मीर
मुँह तका ही करे है जिस तिस काहैरती है ये आइना किस काशाम से कुछ बुझा सा रहेता हैदिल हुआ है चिराग़ मुफ़ालिस काथे बुरे मैकशों के तेवर एकशेख़ मैख़ाने से भला खिसकाफ़ैज़ ऐ अब्र, चश्म-ए-तर से उठाआज दामन वसी है इसकाताब किसको जो हाल-ए-मीर सुनेहाल ही और कुछ है मजलिस का।