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हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी....
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकलेबहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकलेडरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन परवो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकलेनिकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकलेभरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी काअगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकलेमगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकलेहुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकलेहुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकलेमोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकलेकहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले