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ग़ज़ल- अ़दम
ग़म-ए-मोहब्बत सता रहा है, ग़म-ए-जमाना मसल रहा है मगर मेरे दिन गुज़र रहे हैं मगर मेरा वक्त टल रहा हैवोह अब्र आया, वो रंग बरसे, वो कैफ़ जागा वो जाम खनकेचमन में यह कौन आ गया है, तमाम मौसम बदल रहा है मेरी जवानी के गर्म लम्हों पे डाल दे गेसुओं का साया यह दोपहर कुछ तो मोतदिल हो, तमाम माहौल जल रहा हैन देख ओ महजबीं मेरी सम्त इतनी मस्ती भरी नज़र से मुझे यह महसूस हो रहा है शराब का दौर चल रहा है'
अदम' ख़राबात की सहर कि बारगाह-ए-रमूज़-ए-हस्ती इधर भी सूरज निकल रहा है, उधर भी सूरज निकल रहा है।