निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 17 जून के 46वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 46 ) में सांदीपनि ऋषि विष्णु के मत्स्य अवतार की कथा के बाद कहते हैं कि अब मैं तुम्हें श्रीहरि के कच्छप अवतार की कथा सुनाता हूं।
फिर सांदिपनि ऋषि महाराज महाबली और उनके असुरों एवं इंद्र और उनके देवताओं द्वारा समुद्र मंथन, अमृत वितरण के दौरान युद्ध और असुरों द्वारा धनवंतरि देव से अमृत का कलश छुड़ाकर भाग जाना फिर श्रीहरि के मोहिनी रूप में प्रकट होने की कथा को श्रीकृष्ण और बलराम को सुनाते हैं।
सभी असुर अमृत कलश के अमृत को पहले पीने की होड़ के चलते आपस में लड़ते हैं तभी मोहिनी रूप धारण कर भगवान विष्णु असुरों के समक्ष प्रकट होकर नृत्य करने लगते हैं। सभी का ध्यान उस ओर चला जाता है। राहु, केतु और महाबली सभी दैत्य उनका नृत्य देखने के बाद पूछते हैं सुंदरी कौन हो तुम? सभी देवता भी वहां आकर खड़े हो जाते हैं।
मोहिनी रूप धारण किए विष्णु पहले तो कहते हैं कि मैं स्वच्छंद नारी हूं। कुलीन लोगों का मनोरंजन करती हूं। फिर वे असुरों को धर्म और न्याय की बात बताकर लुभाते हैं और कहते हैं कि जो उच्च कुल का होता है वह कलह को छोड़कर न्याय करता है। फिर मोहिनी असुरों को अपने शब्द और मोहजाल में फांसकर कहती हैं कि मैं यही सोचकर इतनी दूर से आपकी सभा देखने आई थी कि परंतु यहां तो कलह कलेश है, द्वैष है, अन्याय है तो यहां मेरा मन नहीं लगेगा। अच्छा मैं चलती हूं। तभी एक असुर कहता है, हे मोहिनी तुम्हारे यहां आने से ऐसा लगा जैसे वसंत ऋतु आ गई हो। अगर हम यह कलह छोड़कर द्वैष मिटा दें तो क्या तुम यहां रुकोगी? और हम सबका मनोरंजन करोगी?
मोहिनी कहती हैं बड़े चतुर हो परंतु तुमने न्याय की बात नहीं की? तब असुर कहता है हम अन्याय भी नहीं करेंगे। तब मोहिनी कहती हैं परंतु इसका निर्णय कौन करेगा? तब वह असुर कहता है तुम। महाबली भी कहते हैं हां तुम। हम न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का सारा निर्णय तुम पर छोड़ते हैं। यह सुनकर मोहिनी कहती हैं प्रमाण। तब एक असुर अमृत कलश दिखाकर कहता है प्रमाण तो ये है। ये है अमृत कलश जिसे चाहे पिला दो और जिसे चाहे प्यासा मार डालो।
फिर मोहिनी उस असुर के हाथ से अमृत कलश लेकर कहती हैं, ना ना ना, इतना बड़ा उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर ना डालो। मेरे कंधे बड़े कोमल है। मेरा मन बड़ा चंचल है। शास्त्र कहता है कि कुलीन पुरुषों को किसी स्वच्छंद नारी पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। तुम महर्षि कश्यप के कुल से हो, फिर सोच लो।
तब महाबली कहते हैं, देवी बड़े से बड़ा वीर, कुलीन, महात्मा और योगी जब किसी सुंदर स्त्री के नयनों से घायल हो जाता है तो वह अपना सबकुछ उसकी ठोकरों में डाल देता है। तब उसे उचित-अनुचित, पाप-पुण्य का कोई भान नहीं रहता। यही दशा हमारी है। जो तुम्हारी इच्छा हो वही करो। योग्य-अयोग्य, पात्र-कुपात्र तुम्ही जानों। जिसे अमृत के योग्य समझो उसे अमृत दो और जिसे अपने सौंदर्य के योग्य समझो उसे अपने सौंदर्य का रसपान कराओ और जिसे अपने योग्य समझो उसे अपना आप सौंप दो। जो तुम्हें पा लेगा उसे फिर अमृत की क्या आवश्यकता।
यह सुनकर मोहिनी कहती हैं कि सत्य कहा, प्राणी यदि ऐसा ही समर्पण भगवान के समक्ष कर दे तो तक्षण मुक्ति पा ले। परंतु शायद भगवान नारी के ही रूप में अधिक शक्तिशाली होते हैं। यह सुनकर दैत्य समझ नहीं पाते हैं कि यह मोहिनी क्या कहना चाहती है तभी मोहिनी कहती हैं, अच्छी बात है अब मैं ही न्याय करूंगी। फिर मोहिनी अपनी माया से नृत्यसभा का निर्माण करके सभी देवता और दानवों को अलग-अलग लाइन से बैठा देती हैं। फिर वह कहती हैं कि जैसा कि आपने स्वयं ही कहा है कि मैं जिसे जिस योग्य समझूंगी, उसे उसी रस का पान कराऊंगी। स्वीकार है? सभी देवता और दानव एक साथ कहते हैं स्वीकार है, स्वीकार है परंतु नृत्य के साथ। मोहिनी कहती हैं अच्छा। फिर वह अमृत कलश को एक निश्चित जगह पर रखकर नृत्य करने लगती हैं।
एक ओर देवताओं के राजा इंद्र और दूसरी ओर दैत्यों के राजा महाबली बैठकर नृत्य का आनंद उठाते हैं। फिर मोहिनी नृत्य गान करते हुए ही कलश उठाकर पहले इंद्र को अमृत पान कराती हैं और पुन: कलश को ले जाकर रख देती है। फिर अपनी माया से कलश को बदलकर उस कलश को उठाकर लाती हैं और बली को उस कलश का जल पिलाती हैं और पास ही बैठे दूसरे असुर को भी जल पिलाती हैं। सभी समझते हैं कि ये अमृत है। तभी एक असुर मदमस्त होकर उठता है और मोहिनी के साथ ही नृत्य करने लगता है। यह देखकर दो असुर और उठकर नृत्य करने लगते हैं।
कलश बदल-बदल कर वह देव और असुरों को जल पिलाती रहती हैं। फिर कुछ देव भी अमृत पीने के बाद नृत्य करने लगते हैं। तभी एक असुर मोहिनी के इस छल को देख लेता है। तब वह चुपचाप वेश देवता का धारण करके देवताओं की पंक्ति में बैठ जाता है। उस असुर का यह छल चंद्रदेव देख लेते हैं।
मोहिनी उसे अमृत पिलाने लगती है तभी वह देवता कहते हैं मोहिनी ये तो दानव है। तभी मोहिनी बने भगवान विष्णु अपने असली रूप में प्रकट होकर अपने सुदर्शन चक्र से उस दानव की गर्दन काट देते हैं और फिर वे वहां से अदृश्य हो जाते हैं। यह देखकर बाली कहता है धोका, हमारे साथ धोका हुआ है। यह सुनकर इंद्रदेव कहते हैं आक्रमण और वहां युद्ध प्रारंभ हो जाता है।
सांदीपनि ऋषि कहते हैं तब देवता और असुरों में भयानक युद्ध छिड़ गया जिसे पुराणों में देवासुर संग्राम कहा गया है। अमृत पिकर देवता बलवान हो चुके थे। इसलिए इंद्र के हाथों स्वयं महाराज बली भी मारे गए। लेकिन दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य संजीविनी विद्या जानते थे। इसलिए युद्ध के पश्चात उन्होंने उन सभी दैत्यों को जिनके सिर धड़ से अलग नहीं हुए थे उनको जीवित कर दिया। सबसे पहले उन्होंने राजा बली को जीवित किया।
राजा बली परम भक्त प्रहलाद के पौत्र थे और परमवीर भी थे। इंद्र से उस हार का बदला लेने के लिए शुक्राचार्य ने राजा बली से सौ यज्ञ कराने का अनुष्ठान कराया। 99वें यज्ञ के दौरान शुक्राचार्य ने उनको आशीर्वाद देकर कहा कि अब केवल एक यज्ञ रह गया है और यदि वह भी निर्विघ्न पूरा हो जाए तो आपके 100 यज्ञ पूरे हो जाएंगे और उसी समय इंद्रपद सर्वदा के लिए आपका हो जाएगा। स्वर्ग पर देवताओं का वर्चस्व सदैव के लिए समाप्त हो जाएगा। यह यज्ञ तुम्हारे तप की ही नहीं, हमारे बल और विद्या की भी परीक्षा है। अब देवगुरु बृहस्पति भी देख लेंगे कि समस्त देवताओं को तेजहिन करके यह शुक्राचार्य असुर जाति को त्रिलोकी का राज्य दिला सकता है। यह सुनकर महाबली कहता है कि और विष्णु भी देख लेंगे कि उनकी माया और छल से असुर शक्ति को आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है।
उधर, सभी देवता गुरु बृहस्पति के साथ भगवान विष्णु के पास जाकर कहते हैं प्रभु यदि उसका सौंवा यज्ञपूर्ण हो जाएगा तो वह तीनों लोकों का अधिपति हो जाएगा। विष्णु कहते हैं कि जो तपस्या करेगा और कर्म करेगा वो तो उसका फल पाएगा ही, ये तो प्रकृति का विधान है। इस पर बृहस्पति कहते हैं कि परंतु जो प्रकृति का विधान विनाश की ओर जाने लगे और अधर्म की स्थापना हो तो उसे रोका जाना चाहिए प्रभु। आपको प्रकृति के विधान के ऊपर जाकर दैवीय विधान के माध्यम से इस विनाश को रोकना चाहिए। यह सुनकर विष्णु कहते हैं आपका वचन सत्य है। हम अपने उत्तरदायित्व का अवश्य निर्वाह करेंगे।
फिर सांदीपनि ऋषि बताते हैं कि भगवान विष्णु वामनरूप में अवतार लेकर महाबली की यज्ञशाल के द्वार पर उस समय पहुंचे जब उसका सौवां यज्ञ आरंभ होने वाला था। एक सेवक आकर महाबली को बताता है यज्ञशाला के द्वार पर एक याचक आया है और वह आपसे मिलने की याचना कर रहा है। यह सुनकर शुक्राचार्य कहते हैं कि महाराज यज्ञ का संकल्प करने जा रहे हैं वो जो भी मंगता है, वहीं से देकर भेज दो। तब सेवक कहता है कि मैंने उसे मुंहमांगी भिक्षा लेने की बात कही थी परंतु वह महाराज के हाथों भिक्षा लेने की हठ कर रहा है। जय श्रीकृष्ण।