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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 15 August Episode 105 : सुदामा द्वारिका पहुंचकर पड़ जाता है दुविधा में

Shri Krishna 15 August Episode 105 : सुदामा द्वारिका पहुंचकर पड़ जाता है दुविधा में - Shri Krishna on DD National Episode 105
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 15 अगस्त के 105वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 105 ) में राजा कहता है कि चक्रधर तुम्हारे इस द्रोह के लिए हम तुम्हें वही सजा देते हैं जो हमने सुदामा को दिया था। यह सुनकर चक्रधर कहता है- जय श्रीकृष्ण। यदि प्रभु की यही इच्छा है तो यही सही। तब राजा सिपाहियों से कहता है कि इस द्रोही को कीले की उस सीढ़ियों पर ले जाओ और इसे भी वहां से गिरा दो जिस तरह कि सुदामा को गिराया था। फिर चक्रधर को धक्के मारकर सीढ़ियों से फेंक दिया जाता है। फिर चक्रधर नीचे से उठकर हरि भजन गाता हुआ वहां से चला जाता है। यह सुन और देखकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं।
 
उधर, प्रात: मुरली मनोहर की मधुर मुरली सुनकर सुदामा की नींद खुल जाती है। सुदाम उनके पास आकर चुपचाप खड़े होकर उनकी मुरली सुनने लगते हैं। कुछ देर बाद श्रीकृष्ण की आंखें खुलती है तो वे कहते हैं- अरे वीप्रवर आप, आप क्यूं उठ गए? तब सुदामा कहता है कि अमृतबेला हो रही है ना। मैं तो इस समय रोज ही उठता हूं परंतु तुम्हें देखकर लग रहा है कि तुम रातभर सोए नहीं हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वीरह की याद में किसे नींद आती है वीप्रवर और इस अमृतबेले में तो ये बावरा मन और व्याकुल हो जाता है। सच मानिये रातभर लक्ष्मीदेवी की याद तपाती रही। 
 
तब यह सुनकर सुदामा कहता है कि अमृतबेला में प्रेमिका को नहीं ईश्वर को स्मरण किया जाता है। मुझे अभी स्नान करना है, पूजा भी करनी है चलो चलो तुम भी मेरे साथ। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे स्नान-विस्नान में क्या रखा है। तन धोने से मन के पाप थोड़ी ना धुल जाते हैं। अरे अपना तो ये नियम है कि पहले आत्मा की शुद्धि कर लो फिर तन का स्नान करो। तब सुदामा पूछता है- अच्छा ये बताओ की आत्मा की शुद्धि कैसे होगी? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रेम रस की गंगा में नहाने से। तब सुदामा कहता है- तुम्हारी बातों में तर्क या तथ्य हो ना हो, परंतु रस अवश्य होता है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- मेरी बातों में तो रस ही रस है क्योंकि हम तो ठहरे रसिया बन बसिया। 
 
फिर सुदामा स्नान करने चला जाता है और मन ही मन कहता है कि कुछ भी हो सज्जन पुरुष है पर है बड़ा ही नटखट। फिर सुदाम झरने में स्नान कर रहा होता है तो दूसरी ओर श्रीकृष्ण फूल तोड़ रहे होते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वीप्रवर अब तो आपका स्नान हो गया होगा और ये देखिये सामने आपके भगवान की मूर्ति है। मैं आपके लिए थोड़े से फूल लाया हूं। इन्हें ग्रहण करें और आप जाकर आनंद से पूजा करें।
 
सुदामा कहता है- धन्यवाद, तुम बड़े संस्कारी जीव लगते हो पर कभी-कभी विचित्र बातें करते हो। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसलिए कि मेरी बातें सच्ची है, मेरा तर्क सच्चा है। यह सुनकर सुदामा कहता है कि बुढ़ापे में तुम मेरा धर्म नष्ट करने की चेष्ठा कर रहे हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो धर्म तर्क से नष्ट हो जाए वह सच्चा धर्म नहीं हो सकता। मैं तो केवल दूध का दूध और पानी का पानी करना चाहता हूं। आंखों को जो सोना दिखाई देता है मैं तो केवल यह दिखाना चाहता हूं कि वह बुद्धि की कसौटी पर कितना खरा और कितना खोटा है। तब सुदामा कहता है कि तुम्हारी बातें मुझे धर्म संकट में डाल देती हैं। इस पर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं कि संकटमोचन की पूजा कीजिये सब संकट दूर हो जाएंगे, चलिये पूजा आरंभ कीजिये। 
 
फिर सुदामा श्रीकृष्ण की मूर्ति को साफ करता है और उसकी पूजा करने लगता है। इस दौरान श्रीकृष्ण लेटकर बांसुरी बजाने लगते हैं। फिर सुदामा अपने भगवान की स्तुतिगान करने लगता है तब श्रीकृष्ण अपनी पत्नी लक्ष्मीदेवी का गीत गाने लगते हैं। यह सुनकर सुदामा अचंभित होकर देखता है कि यह मेरी भक्ति में विघ्न डाल रहा है। फिर सुदामा कहता है- मुरली मनोहर, अरे ओ मुरली मनोहर। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- कहिये ब्राह्मण देवता। तब सुदामा कहता है कि तुम ये प्रेम गीत बंद नहीं कर सकते? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्यूं ब्राह्मण देवता? इस पर सुदामा कहता है कि तुम्हारे प्रेम गीत से मेरा ध्यान भंग हो जाता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि पर आपके भजन गाने से मेरा ध्यान तो भंग नहीं होता। यह सुनकर सुदामा को कुछ समझ में नहीं आता फिर वह कहता है कि क्या तुम भगवान की स्तुति नहीं गाते? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्तुति तो मुझे आती नहीं। तब सुदामा कहता है कि अच्छा तो तुम मेरे साथ भगवान की स्तुति गाओ। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अच्छी बात है। ब्राह्मण की आज्ञा है तो अवश्य गाऊंगा। 
 
फिर श्रीकृष्ण भी सुदामा के साथ श्रीकृष्ण की मूर्ति के समक्ष खड़े होकर हाथ जोड़कर बांसुरी बजाते हैं और सुदामा भजन गाता है- 'मुरली मनोहर गोविंद गिरधर, नमामि कृष्णम नमामि कृष्‍णम।'... श्रीकृष्ण कहते हैं- 'ये कृष्ण प्रेमी कहे निरंतर, नमामि कृष्णम नमामि कृष्ण।' राजिवलोचन अति सुंदरम, नमामि कृष्णम नमामि कृष्णम।...यह सुनकर रुक्मिणी भी आनंदित हो जाती है।
 
फिर दोनों मिलकर श्रीकृष्ण का भजन गाते हैं तो नारदमुनि सहित देवी-देवता, ऋषि-मुनि भी उस दिव्य भजन को सुनने के लिए उपस्थित होकर वह भी साथ गाने लगते हैं और श्रीकृष्ण नाचने लगते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं- समझ ना आए हमको गुढ़ बातें तुम्हारी। तब सुदामा कहते हैं कि एक सांवले सलोने के हम हैं पुजारी। तब कृष्ण कहते हैं कि एक बामण के छोरे से हुई है अपनी यारी।.. रुक्मिणी यह लाइन सुनकर हंस देती हैं। भक्ति में मगन सुदामा को कुछ समझ में नहीं आता है। अंत में सभी हरे कृष्ण हरे कृष्ण रटने लगते हैं, रुक्मिणी भी भजन गाने लगती है।
 
इस भक्ति भाव को देखकर श्रीकृष्ण वहां सुदामा के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हो जाते हैं। यह देखकर सुदामा अचंभित और भावविभोर हो जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा हमारे इस दिव्य दर्शन से तुम्हारे कई जन्मों की भक्ति आज सफल हो गई। इस समय हमारे सम्मुख होने के कारण तुम पर हमारी माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसलिए इस समय तुम्हारा शरीर सूक्ष्म और तुम्हारे चक्षु दिव्य हो गए हैं। सो तुम अपने दिव्य चक्षुओं के साथ उन समस्त देवताओं को भी देख सकते हो जो यहां चारों और उपस्थित हैं। सुदामा सभी देवताओं को देखता है। तब चतुर्भुज श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारे साथ जो मुरली मनोहर का रूप खड़ा है वह भी हमारा ही रूप है, हमें पहचानों। तब सुदामा मुरली मनोहर को देखता है और उनके चरण छूता है। 
 
यह समस्त देवगण जो इस वक्त इस ऐतिहासिक घटना को देखने के लिए खड़े हैं तुम्हारे कारण आज इनको भी हमारे इस दिव्य दुर्लभ रूप के दर्शन हुए हैं। ये वो रूप है जिसे हम कोटि-कोटि युगों में कभी-कभार प्रकट करते हैं। इस रूप के दर्शन पाने के पश्चात किसी प्राणी को ओर कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता। वह हमारे श्रीचरणों में विलिन हो जाता है। परंतु तुम्हारे पूर्व कर्मों के अनुसार अभी कुछ सुख-दुख भोगना बाकी है। जब उन समस्त कर्म फलों के भोग समाप्त हो जाएंगे तब तुम हमारे श्रीचरणों में शांति प्राप्त करोगे। परंतु तब तक तुम्हें इस शरीर के आधीन होना होगा। इसलिए हमारे अंतर्धान होते ही तुम पर फिर से माया का अधिकार हो जाएगा और तुम यह दृश्य भूल जाओगे...तथास्तु। 
 
फिर सुदामा रोते हुए अपने श्रीकृष्ण की मूर्ति के चरणों में नमन करता है और फिर रोते हुए उठता है। फिर अपनी आंखें पोछता है। फिर वह कहता है- वाह भैया मुरली मनोहर क्या कहने हैं तुम्हारे। आज तुम्हारे साथ भगवान का भजन करने का जितना आनंद आया उतना जीवन में कभी नहीं आया। आज की पूजा का रस तो विचित्र था। लगता है तुम कोई जादूगर हो।
 
यह सुनकर मुरलीधर मनोहर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जादूगर तो आप है वीप्रवर, आपकी भक्ति ने ऐसा जादू किया की मैं अपनी दुल्हनिया लक्ष्मीदेवी को ही भूल गया। यह सुनकर रुक्मिणी हंसने लगती है। वाह वीप्रवर वाह, धन्य हैं आप। तब सुदामा कहता है कि धन्य तो श्रीकृष्ण-कन्हैया हैं। लगता है तुम पर भी अब उनकी कृपा होने लगी है। जल्दी भक्त बन जाओगे उनके पूरे। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि मैं तो आप जैसे भक्त का ही भक्त बन जाऊं तो निहाल हो जाऊं। 
 
यह सुनकर रुक्मिणी आंखें में आंसू भरकर कहती है- वाह प्रभु वाह, निहाल कर दिया आपने, निहाल कर दिया। अपने भक्त के साथ साथ हमको भी निहाल कर दिया आपने और वे सारे देवता भी निहाल हो गए। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- निहाल तो हम भी हो गए देवी, कई युगों में ऐसा भक्त मिलता है। अब भगवान के पास उसे देने को कुछ नहीं रहा। अब तो केवल मित्रता का खेल बाकी रह गया है। यह सुनकर रुक्मिणी पूछती है- खेल, कैसा खेल? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी खेल, मित्रों में तो आपस में बड़ी खिलवाड़ होती है, छेड़छाड़ होती है, चुगलबाजी होती है ये लीला अभी बाकी है। तब रुक्मिणी पूछती है कि ये लीला आप कब दिखाएंगे। तब वह कहते हैं कि उसका भी समय आ गया है। मुरली मनोहर उसे द्वारिका के पास ले आया है।
 
फिर उधर, द्वारिका के द्वार के सामने पहुंचकर सुदामा एक वृक्ष के नीचे बैठ जाता है तो मुरलीधर मनोहर कहते हैं- लीजिये वीप्रवर द्वारिका नगरी आ गई। अब मुझे आज्ञा दीजिये। यह सुनकर सुदामा कहता है- अच्छा। तुम्हारे साथ इतनी लंबी यात्रा कैसे समाप्त हो गई कुछ पता ही नहीं चला। अगर तुम ना होते तो इतना लंबा रास्ता काटना कठिन हो जाता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे यूं कहिये कि आपके कारण मेरा रास्ता भी आराम से कट गया। अच्छा अब आप अपने रास्ते चलिये और मैं अपने घर चलता हूं। यह सुनकर सुदामा कहते हैं कि परंतु जाने से पहले श्रीकृष्ण के घर का पता तो बता जाते भैया। यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं कि द्वारिकाधीश का घर यहां का बच्चा-बच्चा जानता है। आप किसी से भी पूछ लीजियेगा की राजमहल कहां है तो आपको बता देगा। 
 
यह सुनकर सुदामा सकुचाता हुए कहता है कि नहीं अगर तुम भी वहां तक चलते हो अच्छा होता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि चिंता मत कीजिये राजमहल निकट ही है। शीघ्र ही पहुंच जाएंगे और जब आप अपने मित्र से मिलें तो मेरे लिए प्रार्थना अवश्य कीजियेगा। अच्छा आशीर्वाद दीजियेगा। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण सुदामा के चरण छूने लगते हैं तो सुदामा कहते हैं- अरे अरे ठीक है, सुखी रहो सुखी रहो।...फिर श्रीकृष्ण चले जाते हैं।
 
सुदामा फिर लोगों को रोककर पूछने का प्रयास करता है परंतु कोई उस पर ध्यान नहीं देता है। कभी घुड़सवार से बचता है तो कभी रथ से। फिर वह आगे चलता जाता है और वह द्वारिका का वैभव देखकर दंग रह जाता है। सारे ही भवन उसे राजमहल जैसे ही नजर आते हैं। फिर वह एक कुएं पर खड़े कुछ लोगों को देखकर उनके पास जाता है तो वहां खड़ा एक व्यक्ति उन्हें अपने पास आते हुए देखता है। वह व्यक्ति सुदामा को उपर से नीचे तक देखता है। फिर वह अपने साथियों से कहता है आओ, आओ मेरे साथ। वह कहता है कि ये घबराया घबराया मनुष्य जाने कौन है, किसे ढूंढ रहा है? तब एक तीसरा कहता है कि ये कोई परदेशी है क्योंकि द्वारिका में तो ऐसा दरिद्र कोई हो ही नहीं सकता। तब चौथा कहता है कि कोई निर्धन ब्राह्मण लगता है।
 
फिर वह चारों सुदामा को प्रणाम करके कहते हैं कि आप कोई परदेशी लगते हो? किसके घर जाना है आपको बताइये हम छोड़ देते हैं। यह सुनकर सुदामा कहता है कि भैया मुझे श्रीकृष्ण के घर जाना है। वहां तक पहुंचा दो तो बड़ी कृपा होगी। यह सुनकर सभी उसकी ओर आश्चर्य से देखते हैं फिर उसमें से एक कहता है अच्छा अच्छा वो किसनवा बैलगाड़ी वाला? तब सुदामा कहता है कि नहीं भैया मैं तो द्वारिकाधीश की बात कर रहा हूं। उनसे मिलने जाना है मुझे। यह सुनकर चारों अचंभित रह जाते हैं। तब एक पूछता है- द्वारिकाधीश से? सुदामा कहता है- हां। तब दूसरा कहता है- महानुभाव द्वारिकाधीश से क्या काम आन पड़ा आपको? तब सुदामा कहता है कि वो मेरे परममित्र हैं। यह सुनकर चारों आपस में बात करने लगते हैं। फिर सुदामा कहता है- कहां हैं उनका घर? तब वे कहते हैं- अरे वो तो राजा है राजा, घर में नहीं राजमहल में रहते हैं। आगे से दाएं चले जाइये वहीं है उनके राजमहल का परिसर।
 
यह सुनकर सुदामा कहता है- धन्यवाद। फिर वह कहता है- थोड़ासा पानी पी लूं मैं? तब वे सभी कहते हैं- हां हां पीलो। तब सुदामा कुएं के पास जाता है तो पीछे से वे सभी कहते हैं कि द्वारिकाधीश को अपना मित्र बता रहा है, मुझे तो कोई पागल लगता है। यह सुनकर सुदामा अचंभित हो जाता है। दूसरा कहता है कि ऐसा लगता है कि जाने कहां से द्वारिका में आ गया है। तीसरा कहता है कि ऐसे दरिद्र लोगों को द्वारिका में आने नहीं देना चाहिए। तब चौथा कहता है कि नहीं किसी द्वारिकावासी को ऐसी बातें शोभा नहीं देती। अरे दरिद्र है तो क्या हुआ, हे तो मनुष्य ही ना। बस जरा सा दिमाग चढ़ गया है। इस पर भी हमने उसे राजमहल का मार्ग बता दिया। तब दूसरा कहता है कि पर उस बैचारे की दशा देखकर राजमहल के द्वारपाल उसे राजमहल में घुसने ही नहीं देंगे। 
 
यह सुनकर सुदामा निराश हो जाता है। वह सोच में पड़ जाता है कि जाऊं की ना जाऊं क्या, करूं अब। वह सोचता है कि लौट जाओ सुदामा, देखा नहीं लोग कैसे हंस रहे थे तुम पर। पागल कह रहे थे तुम्हें। वह सब बचपने की बाते हैं। अब इस आयु मैं तो बचपना ना करो। हो सकता है कि श्रीकृष्ण तुम्हें भूल गए हों। समय के साथ-साथ मनुष्य भी बदल जाता है। इस तरह सुदामा का डबल माइंड हो जाता है। फिर सुदामा सोचता है कि नहीं नहीं वह भगवान है मनुष्‍य नहीं, भगवान नहीं बदलते।.. श्रीकृष्ण और रुक्मिणी दोनों उसकी दुविधा देख रहे होते हैं। रुक्मिणी पूछती है भगवन आपके मित्र तो द्वारिका पहुंच गए फिर इस चिंता और व्याकुलता का क्या कारण है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे भय है कि कहीं वह मुझसे मिले बगैर ही लौट न जाएं। इस समय उसमें दुविधा चल रही है। जय श्रीकृष्णा।
 
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