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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

भारत के महान चक्रवर्ती सम्राटों की दास्तान

The Indian King History | भारत के महान चक्रवर्ती सम्राटों की दास्तान
त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था। भारत से पूर्व भारत का नाम नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष और उससे पूर्व हिमवर्ष था।
 
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प्राचीन भारत के नौ खंड थे इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गंधर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। इस संपूर्ण क्षेत्र का महान सम्राट भारत के पिता, पितामह और भारत के वंशों ने बसाया है।

इस भारतवर्ष में पहले देव, असुर, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, मानव, नाग आदि जातियां निवास करती थीं। इस भारत में कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, संधव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते थे। भारत के पूर्वी भाग में किरात (चीनी) और पश्चिमी भाग में यवन (ग्रीक) बसे हुए थे।

बाद में भारत में कृष्ण के काल में ये जनपद रहे:- अंग, अवंति, अश्मक, कंबोज, काशी, कुरु, कोशल, गांधार, चेदि, पंचाल, मगध, मत्स्य, मल्ल, वज्जि, वत्स और शूरसेन। हर काल में ये जनपद बदलते रहे। लेकिन जिस व्यक्ति ने उक्त संपूर्ण जनपदों पर राज किया वही चक्रवर्ती सम्राट कहलाया।

मूल रूप से प्राचीन भारत में अयोध्या कुल, यदु कुल, पौरव कुल और कुरुवंश का शासन था लेकिन इनके अलावा दिवोदास (काशी), दुर्दम (हैहय), कैकय (आनव), गाधी (कान्यकुब्ज), अर्जुन (हैहय), विश्वामित्र (कान्यकुब्ज), तालजङ्घ (हैहय), प्रचेतस् (द्रुह्यु), सुचेतस् (द्रुह्यु), सुदेव (काशी), दिवोदास द्वितीय और बलि (आनव) का भी राज्य शासन रहा।

नोट : उक्त सब राज्य और राजाओं से पहले देव और दैत्य के राजा होते थे, जिसमें इंद्र और राजा बलि का नाम प्रसिद्ध है। तिब्बत और उसके आसपास के क्षेत्र को इंद्रलोक कहते थे, जहां नंदन कानन वन और खंडववन था। राजा बलि ने अरब को अपना निवास स्थान बनाया था।

 

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1. राजा भरत : त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था। वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा।

राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बना दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

भरत एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।

2. प्रथम राजा भारत के बाद और भी कई भरत हुए। सातवें मनु वैवस्वत कुल में एक भारत हुए जिनके पिता का नाम ध्रुवसंधि था और जिसने पुत्र का नाम असित और असित के पुत्र का नाम सगर था। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। इन्हीं सगर के कुल में भगीरथ हुए, भगीरथ के कुल में ही ययाति हुए (ये चंद्रवशी ययाति से अलग थे)। ययाति के कुल में राजा रामचंद्र हुए और राम के पुत्र लव और कुश ने संपूर्ण धरती पर शासन किया।

3. भरत : महाभारत के काल में एक तीसरे भरत हुए। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के एक वृत्तांत अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ‍ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।

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वैवस्वत मनु : ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के कुल में वैवस्वत मनु हुए। एक बार जलप्रलय हुआ और धरती के अधिकांश प्राणी मर गए। उस काल में वैवस्वत मनु को भगवान विष्णु ने बचाया था। वैवस्वत मनु और उनके कुल के लोगों ने ही फिर से धरती पर सृजन और विकास की गाथा लिखी।

वैवस्वत मनु को आर्यों का प्रथम शासक माना जाता है। उनके 9 पुत्रों से सूर्यवंशी क्षत्रियों का प्रारंभ हुआ। मनु की एक कन्या भी थी- इला। उसका विवाह बुध से हुआ, जो चंद्रमा का पुत्र था। उनसे पुरुरवस्‌ की उत्पत्ति हुई, जो ऐल कहलाया जो चंद्रवंशियों का प्रथम शासक हुआ। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी, जहां आज प्रयाग के निकट झांसी बसी हुई है।

वैवस्वत मनु के कुल में कई महान प्रतापी राजा हुए जिनमें इक्ष्वाकु, पृथु, त्रिशंकु, मांधाता, प्रसेनजित, भरत, सगर, भगीरथ, रघु, सुदर्शन, अग्निवर्ण, मरु, नहुष, ययाति, दशरथ और दशरथ के पुत्र भरत, राम और राम के पुत्र लव और कुश। इक्ष्वाकु कुल से ही अयोध्या कुल चला।

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ययाति : ब्रह्मा के पुत्र अत्रि ऋषि के कुल में ययाति हुए जिनके पांच पुत्र थे- यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरु। ययाति के बाद इन पांचों ने संपूर्ण धरती पर राज किया और अपने कुल का दूर-दूर तक विस्तार किया। आगे चलकर ये ही वंश यादव, तुर्वसु, द्रुह्यु, आनव और पौरव कहलाए। ऋग्वेद में इन्हीं को पंचकृष्टय: कहा गया है।

ययाति के पुत्र यदु से यदु कुल चला। यदु खुद एक प्रतापी और चक्रवर्ती सम्राट थे। ययाति के दूसरे पुत्र पौरव से पौरव कुल चला जिसमें कई प्रतापी राजा हुए। परीक्षित और जन्मेजय पौरव कुल से ही थे।

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राजा हरिशचंद्र : अयोध्या के राजा हरिशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे अपने सत्य धर्म का पालन करने और वचनों को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर पत्नी और बच्चे के साथ जंगल चले गए। और वहां भी उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किया।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरिशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था। राजा हरिशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंपकर जंगल में चले गए। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनसे दक्षिणा भी मांगने लगे।

इस पर हरिशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की।

हरिशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती।

हरिशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरिशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरिशचंद्र को काम सौंपते हैं।

इस पर हरिशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं। वहीं विश्वामित्र भी हरिशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं।

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राजा राम : वन से लौटने के बाद जब भगवान राम ने अयोध्या का शासन संभाला तो उन्होंने कई वर्षों तक भारत पर शासन किया और भारत को एकसूत्र में बांधे रखा। राम के काल में रावण, बाली, जनक, अहिरावण और कार्तवीर्य अर्जुन नाम के महान शासक थे।

कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्रार्जुन यदुवंश का एक प्राचीन राजा था। वह बड़ा वीर और प्रतापी था। उसने लंका के राजा रावण जैसे प्रसिद्ध योद्धा से भी संघर्ष किया था। कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य का विस्तार नर्मदा नदी से हिमालय तक था जिसमें यमुना तट का प्रदेश भी सम्मिलित था। कार्तवीर्य अर्जुन के वंशज कालांतर में 'हैहय वंशी' कहलाए जिनकी राजधानी 'माहिष्मती' (महेश्वर) थी। इन हैदयों से ही परशुराम का 21 बार युद्ध हुआ था।

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राजा सुदास : सम्राट भरत के समय में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था।

राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ऋग्वेद में वर्णित 'दाशराज्य युद्ध' से जानते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का विस्तार हुआ। राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया, परंतु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया।

राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दसराज्य युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था।

कुरु : वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। कुरु के पिता का नाम संवरण तथा माता का नाम तपती था। शुभांगी तथा वाहिनी नामक इनकी दो स्त्रियां थीं। वाहिनी के पांच पुत्र हुए जिनमें कनिष्ठ का नाम जन्मेजय था जिसके वंशज धृतराष्ट्र और पांडु हुए। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही 'कौरव' संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडव दोनों ही थे।

पपंचसूदनी- नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थे। कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवास स्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा।

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राजा भरत : पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। राजा भरत को 'सर्वदमन' भी कहा जाता था, क्योंकि उन्होंने बचपन में ही बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था। सम्राट भरत का शासन संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर था।

महाभारत के अनुसार भरत ने यमुना, सरस्वती और गंगा के तट पर बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा महर्षि भारद्वाज की कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। भरत के देहावसान के बाद उसने अपने पुत्र वितथ को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चला गया।

श्रीमद् भागवत अनुसार भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था जिनसे उन्हें तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई। तीनों पुत्रों से कोई वंश चलता नहीं देख भारत ने 'मरूत्स्तोम' यज्ञ किया। मरूद्गणों ने भरत को भारद्वाज नामक पुत्र दिया। भारद्वाज का वंश चला।

इन्हीं भरत के कुल में शांतनु हुए। शांतनु की पत्नी गंगा के पुत्र भीष्म थे और शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती के दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ‍भीष्म ने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी इसलिए उनका वंश नहीं चला। चित्रांगद तो गंधर्वों से युद्ध करते हुए मारा गया। विचित्रवीर्य की दो पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका थीं। विचित्रवीर्य कामी और सुरापेयी था। उसे राजयक्ष्मा हो गया और वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।

सत्यवती और भीष्म को कुल और वंश नष्ट होने की चिंता होने लगी तब सत्यवती ने राजमाता होने के कारण व्यास द्वैपायन को बुलवाया, जो पुत्र दे सके। सत्यवती की कुमारी अवस्था में ही व्यास द्वैपायन का जन्म हुआ था।

समागम के समय व्यास की कुरूपता को देखकर अम्बिका ने नेत्र मूंद लिए। अत: उसका पुत्र धृतराष्ट्र जन्मांध पैदा हुआ। अम्बालिका व्यास को देखकर पीतवर्णा हो गई, इससे उसका पुत्र पाण्डु पीला हुआ। सत्यवती ने एक और पुत्र की कामना से अम्बिका को व्यास के पास भेजा, लेकिन उसने अपनी दासी को भेज दिया। दासी से विदुर का जन्म हुआ। इस तरह देखा जाए तो भरतवंश की जगह बाद में व्यास द्वैपायन का वंश चला।

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राजा युधिष्ठिर : पांडव पुत्र युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहते थे। इनका जन्म धर्मराज के संयोग से कुंती के गर्भ द्वारा हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने ही भारत पर राज किया था। 2964 ई. पूर्व युधिष्ठिर का राज्यारोहण हुआ था।

युधिष्ठिर भाला चलाने में निपुण थे। वे कभी मिथ्या नहीं बोलते थे। उनके पिता ने यक्ष बनकर सरोवर पर उनकी परीक्षा भी ली थी। महाभारत युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए थे, जबकि परम क्रोधी दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था।

महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को राज्य, धन, वैभव से वैराग्य हो गया था। वे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते थे किंतु समस्त भाइयों तथा द्रौपदी ने उन्हें तरह-तरह से समझाकर क्षात्रधर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनके शासनकाल में संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर शांति और खुशहाली रही।

युधिष्ठिर सहित पांचों पांडव अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के पुत्र महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गए और वहां जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुए। परीक्षित के बाद उनके पुत्र जन्मेजय ने राज्य संभाला। महाभारत में जन्मेजय के छः और भाई बताए गए हैं। ये भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।

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महापद्म : इन्द्रप्रस्थ, अयोध्या, हस्तिनापुर, मथुरा के प्रभाव का ह्रास होने पर भारत 16 जनपदों में बंट गया। इसमें जो जनपद शक्तिशाली होता वहीं अन्य जनपदों को अपने तरीके से संचालित करता था। धीरे-धीरे पाटलीपुत्र, तक्षशिला, वैशाली गांधार और विजयनगर जैसे साम्राज्यों का उदय हुआ। माना जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद जन्मेजय के बाद 17 राजाओं ने राज किया। कुछ इतिहाकार अनुसार जन्मेजय की 29वीं पीढ़ी में राजा उदयन हुए।

मगध (पाटलीपुत्र) पर वृहद्रथ के वीर पराक्रमी पुत्र और कृष्ण के दुश्मनों में से एक जरासंध का शासन था जिसके संबंध यवनों से घनिष्ठ थे। जरासंध के इतिहास के अंतिम शासक निपुंजय की हत्या उनके मंत्री सुनिक ने की और उसका पुत्र प्रद्योत मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

प्रद्योत वंश के 5 शासकों के अंत के 138 वर्ष पश्चात ईसा से 642 वर्ष पूर्व शिशुनाग मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। उसके बाद महापद्म ने मगध की बागडोर संभाली और नंद वंश की स्थापना की। महापद्म, जिन्हें महापद्मपति या उग्रसेन भी कहा जाता है, समाज के शूद्र वर्ग के थे।

महापद्म ने अपने पूर्ववर्ती शिशुनाग राजाओं से मगध की बागडोर और सुव्यवस्थित विस्तार की नीति भी जानी। पुराणों में उन्हें सभी क्षत्रियों का संहारक बतलाया गया है। महापद्म ने उत्तरी, पूर्वी और मध्यभारत स्थित इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कौरव, मैथिल, शूरसेन और वितिहोत्र जैसे शासकों को हराया।

महापद्म के वंश की समाप्ति के बाद मगध पर नंद वंशों का राज कायम हुआ। पुराणों में नंद वंश का उल्लेख मिलता है, जिसमें सुकल्प (सहल्प, सुमाल्य) का जिक्र है, जबकि बौद्ध महाबोधिवंश में आठ नंद राजाओं के नामों का उल्लेख है। इस सूची में अंतिम शासक धनानंद का उल्लेखनीय है। यह धनानंद सिकंदर महान का शक्तिशाली समकालीन बताया गया है।

1. उग्रसेन, 2. पंडुक, 3. पंडुगति, 4. भूतपाल, 5. राष्ट्रपाल, 6. गोविषाणक, 7. दशसिद्धक, 8. कैवर्त, और 9. धन।

इसका उल्लेख स्वतंत्र अभिलेखों में भी प्राप्त होता है, जो नंद वंश द्वारा गोदावरी घाटी- आंध्रप्रदेश, कलिंग- उड़ीसा तथा कर्नाटक के कुछ भाग पर कब्जा करने की ओर संकेत करते हैं।

मगध के राजनीतिक उत्थान की शुरुआत ईसा पूर्व 528 से शुरू हुई, जब बिम्बिसार ने सत्ता संभाली। बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु ने बिम्बिसार के कार्यों को आगे बढ़ाया। गौतम बुद्ध के समय में मगध में बिंबिसार और तत्पश्चात उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था।

अजातशत्रु ने विज्यों (वृज्जिसंघ) से युद्ध कर पाटलीग्राम में एक दुर्ग बनाया। बाद में अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने गंगा और शोन के तट पर मगध की नई राजधानी पाटलीपुत्र नामक नगर की स्थापना की। पा‍टलीपुत्र के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए नंद वंश के प्रथम शासक महापद्म नंद ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और मगध साम्राज्य के अंतिम नंद धनानंद ने उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता संभाली। बस इसी अंतिम धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य ने शपथ ली थी। हालांकि धनानंद का नाम कुछ और था लेकिन वह 'धनानंद' नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हुआ।

तमिल भाषा की एक कविता और कथासरित्सागर अनुसार नंद की '99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं' का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था।

पुनश्च महानंद के पुत्र महापद्म ने नंद-वंश की नींव डाली। इसके बाद सुमाल्य आदि आठ नंदों ने शासन किया। महानंद के बाद नवनंदों ने राज्य किया। धनानंद नंद वंश का अंतिम राजा था।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अर्जुन के समकालीन जरासंध के पुत्र सहदेव से लेकर शिशुनाग वंश से पहले के जरासंध वंश के 22 राजा मगध के सिंहासन पर बैठ चुके हैं। उनके बाद 12 शिशुनाग वंश के बैठे जिनमें छठे और सातवें राजाओं के समकालीन उदयन थे।

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सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य : सम्राट चन्द्रगुप्त महान थे। उन्हें चन्द्रगुप्त महान कहा जाता है। सिकंदर के काल में हुए चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को दो बार बंधक बनाकर छोड़ दिया था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस की पुत्री हेलन से विवाह किया था। चन्द्रगुप्त की एक भारतीय पत्नी दुर्धरा थी जिससे बिंदुसार का जन्म हुआ।

चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी थीं। बिंदुसार के समय में चाणक्य उनके प्रधानमंत्री थे। इतिहास में बिंदुसार को 'पिता का पुत्र और पुत्र का पिता' कहा जाता है, क्योंकि वे चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और राजा अशोक महान के पिता थे।

चाणक्य और पौरस की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर बैठे और चन्द्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है।

चन्द्रगुप्त महान के प्रारंभिक जीवन के बारे में जानकारी हमें जैन और बौद्ध ग्रंथों से प्राप्त होती है। विशाखदत्त के नाटक 'मुद्राराक्षस' में चन्द्रगुप्त को नंदपुत्र न कहकर मौर्यपुत्र कहा गया है। चन्द्रगुप्त मुरा नाम की भील महिला के पुत्र थे। यह महिला धनानंद के राज्य में नर्तकी थी जिससे राजाज्ञा से राज्य छोड़कर जाने का आदेश दिया गया था और वह महिला जंगल में रहकर जैसे-तैसे अपने दिन गुजार रही थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र था। 16 महाजनपदों में बंटे भारत में उसका जनपद सबसे शक्तिशाली था। चन्द्रगुप्त से पूर्व मगध पर क्रूर धनानंद का शासन था, जो बिम्बिसार और अजातशत्रु का वंशज था।

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सम्राट अशोक : अशोक महान प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश के राजा थे। अशोक के दादा का नाम चन्द्रगुप्त मौर्य था और पिता का नाम बिंदुसार था। बिंदुसार की मृत्यु 272 ईसा पूर्व हुई थी जिसके बाद अशोक राजगद्दी पर बैठे।

अशोक महान के समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक था। बस वह कलिंग के राजा को अपने अधिन नहीं कर पाया था। कलिंग युद्ध के बाद अशोक महान गौतम बुद्ध की शरण में चले गए थे।

महात्मा बुद्ध की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया, जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल लुम्बिनी में मायादेवी मंदिर के पास अशोक स्तम्भ के रूप में देखा जा सकता है।

सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। अशोक के काल में बौद्ध धर्म की जड़ें मिस्र, सऊदी अरब, इराक, यूनान से लेकर श्रीलंका और बर्मा, थाईलैंड, चीन आदि क्षेत्र में गहरी जम गई थीं।

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सम्राट विक्रमादित्य : विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे।

विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उर ओकुल' में किया है।

विक्रमादित्य के पहले और बाद और ‍भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।

विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, ‍जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।

पल्‍लव राजा ने पुलकेसन को परास्‍त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्‍य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्‍यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्‍त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्‍य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्‍य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्‍ता पलट दिया। उसने महाराष्‍ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्‍य की स्‍थापना की, जो राष्‍ट्र कूट कहलाया।

विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। माना जाता है कि उज्जैन के विक्रमादित्य के पूर्व भी एक और विक्रमादित्य हुए थे।

सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद 'विक्रमादित्य पंचम' सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे। विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।

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चन्द्रगुप्त द्वितीय : गुप्त काल को भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है। गुप्त वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की थी। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई।

समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से संपन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। वह 'शकारि' भी कहलाया। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल भारत के इतिहास का बड़ा महत्वपूर्ण समय माना जाता है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था। दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चन्द्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।

गुप्त वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए- श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेन्द्रादित्य) और स्कंदगुप्त। चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त थी। उसके काल में भारत ने हर क्षेत्र में उन्नति की। उज्जैन के सम्राट गंधर्वसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य के नाम से चक्रवर्ती सम्राटों को ही विक्रमादित्य की उपाधि से सम्माननीय किया जाता था।

मौर्य वंश के बाद भारत में कुषाण, शक और शुंग वंश के शासकों का भारत के बहुत बड़े भू- भाग पर राज रहा। इन वंशों में भी कई महान और प्रतापी राजा हुए।

चन्द्रगुप्त मौर्य से विक्रमादित्य और फिर विक्रमादित्य से लेकर हर्षवर्धन तक कई प्रतापी राजा हुए।

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हर्षवर्धन : इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात् 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया। हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था। उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे।

हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है।

हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था। उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभिसंधिवश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा।

6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया।

कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था। उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया। अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी।

कादंबरी के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षचरित' में उसे 'चतुःसमुद्राधिपति' एवं 'सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः' आदि उपाधियों से अलंकृत किया।

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धर्मपाल : हर्षवर्धन के बाद भारत में पाल, प्रातिहार और राजपूतों का शासन रहा जबकि दक्षिण में राष्ट्रकूट वंश का शासन था। उक्त सभी के बाद फिर भारत में मराठा, मुगल और सिखों का साम्राज्य रहा जबकि दक्षिण में बहमनी, निजामशाहियों, विजयनगर साम्राज्य, काकतिया साम्राज्य आदि का राज रहा।

हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट 'गोपाल' का पुत्र 'धर्मपाल' था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया।

पहले प्रतिहार शासक 'वत्सराज' ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। कड़े संघर्ष के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झांसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया।

प्रतिहारों के कमजोर पड़ने के धर्मपाल फिर सक्रिय हुआ। वह अपनी हार से शीघ्र उठ खड़ा हुआ और उसने अपने एक व्यक्ति को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया। यहां उसने एक विशाल दरबार का आयोजन किया और आसपास के सभी छोटे राजाओं को अपना सहयोगी बना लिया। इनमें गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा काबुल घाटी), मद्र (मध्य पंजाब), पूर्वी राजस्थान तथा मालवा के राजा शामिल थे। इस प्रकार धर्मपाल को सच्चे अर्थों में उत्तरपथस्वामिन कहा जा सकता है।

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मिहिरभोज : गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामंत ने 725 ई. में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। विद्वानों का मानना है कि इन गुर्जरों ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रांताओं से सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक) की भूमिका निभाई थी।

नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंध की ओर से होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया, साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को कायम रखा। नागभट्ट के भतीजे का पुत्र वत्सराज इस वंश का प्रथम शासक था जिसने सम्राट की पदवी धारण की। वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय राजसिंहासन पर बैठा।

इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई.) 50 वर्ष तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलुज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में भारत आया था।

मिहिरभोज के बाद अगला सम्राट महेन्द्रपाल था, फिर महेन्द्र का पुत्र महिपाल बैठा। उसके बाद भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई. तक अपने राज्य को कायम रखा। महमूद गजनवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था।

अगले पन्ने पर अंतिम..प्रतापी सम्रा

पृथ्वीराज चौहान : हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरांत जिन महान शक्तियों का उदय हुआ था, उनमें अधिकांश राजपूत वर्ग के अंतर्गत ही आते थे। एजेंट टोड ने 12वीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास को 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ इतिहासकारों ने प्राचीनकाल एवं मध्यकाल को 'संधि काल' भी कहा है। इस काल के महत्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल वंश आदि आते हैं।

राजपूतों में महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान आदि राजपूतों ने देश की रक्षा मुस्लिम आक्रांताओं से की। उनमें पृथ्वीराज चौहान और महाराणा प्रताप का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। पृथ्वीराज चौहान अथवा 'पृथ्वीराज तृतीय' को 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है। वे चौहान राजवंश के प्रसिद्ध राजा थे। वे तोमर वंश के राजा अनंग पाल का दौहित्र (बेटी का बेटा) थे और उसके बाद दिल्ली के राजा हुए। मध्यकाल में दिल्ली देश की राजधानी थी।

चौदह साल के वीर राजपूत पृथ्वीराज अजमेर की गद्दी पर बैठे। पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को कई बार पराजित किया। गौरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा।

इतिहासकार मानते हैं क‍ि गौरी और पृथ्वीराज के बीच कम से कम दो भयंकर युद्ध हुए थे जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुए थे। ये दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती 'तराइन' या 'तरावड़ी' के मैदान में क्रमशः सं. 1247 और 1248 में हुए थे।

इसके बाद गुलाम, मुगल, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, निजामी, बहमनी आदि मुस्लिम शासकों और आक्रमणकारियों से भारत की रक्षा करने के लिए मराठा और सिख साम्राज्य का उदय हआ। मराठाओं में वीर शिवाजी और सिखों में महाराजा रणजीत सिंह और गुरु गोविंद सिंह प्रमुख थे।