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जागरूक 'गण' के बगैर गणतंत्र कैसा?

जागरूक 'गण' के बगैर गणतंत्र कैसा? - Republic Day of India
डॉ. अखिलेश बार्चे
 
आज की विडंबना यह है कि जो कुछ गलत हो रहा है, हम सब जानते हैं कि वह नहीं होना चाहिए लेकिन फिर भी उसे स्वीकार करते जाते हैं। ईमानदार अफसर की अपेक्षा भ्रष्ट अफसर हमें अधिक रास आता है क्योंकि वह हमारे हितसाधन का भी माध्यम बनता है। रातोंरात चीजों के दाम बढ़ जाना उपभोक्ता को भले ही अखरता हो पर इससे व्यापारियों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। इसी प्रकार नशीलें पदार्थों और विकृत फिल्मों का व्यवसाय समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है, यह जानते हुए भी इन व्यवसायों के माध्यम से पैसा कमाने वाले निरंतर इन्हें बढ़ाते जा रहे हैं। 
पाश्चात्य देशों में विज्ञान का विकास भले ही अधिक हुआ हो, सामाजिक क्षेत्र में भारत अपना सानी नहीं रखता। कुटुम्ब की परंपरा हो या विवाह जैसी संस्था चलने की बात, पूर्व अभी भी बेजोड़ है। जहां भारत में काका-काकी, मामा-मामी, बुआ, मौसी जैसे रिश्तों की छांह अभी भी परिवारों में मौजूद है, पाश्चात्य देशों में परिवार नाम की संस्था ही टूटने के कगार पर है। भौतिकता ने वहाँ पति-पत्नी के संबंधों को देह संबंधों तक ही सीमित कर रखा है। बच्चे वात्सल्य की कमी से असुरक्षा के वातावरण में पल-बढ़ रहे हैं। 
 
विडंबना यह है कि हमारे देश का वायुमंडल भी आज भौतिकता के भयंकर हमलों से ग्रस्त है। पश्चिम की कुछ अच्छाइयाँ जैसे ज्ञान-विज्ञान की ओर झुकाव, परिश्रम और समय-पालन तथा एक बड़ी हद तक ईमानदारी का अनुसरण तो हम कर नहीं पा रहे हैं, परंतु वहाँ की शराबखोरी, खुले देह-संबंध, नग्नता और व्यभिचार हमारे यहां तेजी से बढ़ रहे हैं। हम क्लब-लाइफ की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। भौतिकता की दौड़ में बेतहाशा जुटे हैं। 
 
भारत विश्व का आध्यात्मिक गुरु रहा है। गांधी, गौतम और विवेकानंद विश्व को इसी देश की देन हैं। कितनी ही कमियों के बावजूद भारतीयों और भारतीय संस्कृति की विश्व में अपनी पहचान है। यह पहचान उन्हें भी प्रभावित करती रही है। बीती शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में जब पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊबने लगे थे, जब वहां की युवा पीढ़ी 'हिप्पी' बन रही थी, तब विश्व में उन्हें भारत ही ऐसा देश नजर आया था, जो उन्हें मानसिक शांति दे सकता था। आज भी विश्व के कितने ही देशों के भटके हुए लोग कुछ नया और सुकून देने वाला सत्य खोजने के लिए भारत में आते हैं। 
 
भारत का अतीत तो समृद्ध है लेकिन वर्तमान खोखला हो रहा है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक जगह लिखा है, 'सभ्यता और संस्कृति को जितनी हानि सांस्कृतिक निरक्षरों से नहीं होती है उससे कहीं ज्यादा नुकसान अपसांस्कृतिक साक्षरों से होता है।' टी.वी. आज घर-घर में सांस्कृतिक दूत बनकर घुस आया है। यह सांस्कृतिक दूत संस्कृति कम अपसंस्कृति अधिक फैला रहा है। ढेर सारे चैनल्स, चौंधियाने वाले दृश्य, अर्द्धनग्न युवतियां बच्चों की आंखों के सामने प्रकट होकर उनके मानस पटल पर आकार ग्रहण कर रही हैं। आवश्यक साधनों से रहित झोपड़ी में रहने वाली व गांव में बैठी हुई नई पीढ़ी, उस सबकी इच्छा कर रही है जो उसे प्राप्त हो पाना असंभव नहीं तो अत्यधिक कठिन अवश्य है। संस्कारधानियां तो कम, विकृत करने वाले उपादान हर कदम पर हैं। नई पीढ़ी अपनी जड़ों से दिन-ब-दिन कटती जा रही है। ऐसा लगता है, अत्याधुनिकता और भौतिकता के इस हमले में कुछ दशकों बाद हमें अपनी मूलभूत बातें पुस्तकों में ही मिल पाएंगी। 
 
आज की विडंबना यह है कि जो कुछ गलत हो रहा है, हम सब जानते हैं कि वह नहीं होना चाहिए लेकिन फिर भी उसे स्वीकार करते जाते हैं। ईमानदार अफसर की अपेक्षा भ्रष्ट अफसर हमें अधिक रास आता है क्योंकि वह हमारे हितसाधन का भी माध्यम बनता है। रातोंरात चीजों के दाम बढ़ जाना उपभोक्ता को भले ही अखरता हो पर इससे व्यापारियों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। इसी प्रकार नशीलें पदार्थों और विकृत फिल्मों का व्यवसाय समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है, यह जानते हुए भी इन व्यवसायों के माध्यम से पैसा कमाने वाले निरंतर इन्हें बढ़ाते जा रहे हैं। 
 
पाश्चात्य देशों में मदिरापान और क्लब डांस समाज की परंपरा का अंग रहे हैं। वहां  इन्हें कभी बुरा भी नहीं माना गया। यह सबकुछ शायद वहां की जलवायु और संस्कृति के अनुकूल था। लेकिन भारत जहां, उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक अपनी सांस्कृतिक धरोहर और विरासत है, वह अपनी पहचान भूलकर पश्चिम की बुराइयों को ग्रहण करने के लिए लालायित है। कभी लगता है युवा और किशोर पीढ़ी से अधिक दोषी आज की प्रौढ़ और बुजुर्ग पीढ़ी है, जो सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस खो चुकी है। 
 
गत दिनों एक संभ्रांत परिवार में विवाह समारोह में जाना पड़ा। दूल्हे के मित्र जिस कक्ष में तैयार हुए थे, वहां शराब की खाली बोतलों का ढेर देखने को मिला। ये पियक्कड़ युवक बीच सड़क पर बेहूदा तरीके से, इतनी देर तक नाचते रहे कि दूल्हा लग्न स्थल पर विवाह मुहूर्त के एक घंटे बाद पहुंच पाया। इस जुलूस में सभी आयु वर्गों के लोग थे लेकिन अधिकांश लोगों में या तो इन नर्तकों को समझाने का साहस नहीं था या वे इसे अपने पक्ष की प्रगतिशीलता मानकर मौन धारण किए हुए थे। 
 
न केवल सामाजिक एवं सांस्कृतिक अपितु राजनीतिक क्षेत्रों में भी कमोबेश यही स्थिति है। समाज के अधिकांश लोगों में एक बेचारगी का भाव जन्म ले चुका है। वे देश की संसद से लेकर अपने आंगन तक हो रही अव्यवस्था एवं अनैतिकता को मजबूरी से देख रहे हैं। हर व्यक्ति सोचता है मुझे क्या करना है? या मेरे अकेले के करने से क्या होगा? यह निराशाजनक स्थिति इस देश के लिए दुर्भाग्य का संकेत है। किसी चमत्कारिक व्यक्तित्व के आसरे चलने की आदत ने यहां  के आम आदमी को श्रीहीन एवं शक्तिहीन-सा कर दिया है, यद्यपि यह भी सही है कि गंदगी अक्सर ऊपर से नीचे की ओर बहती हुई आती है।

यदि किसी विभाग का सर्वोच्च अधिकारी ईमानदार और निर्भीक है, निःस्वार्थ होकर काम करता है तो ही उसे अपने अधीनस्थों को कुछ कहने का साहस हो पाएगा। अक्सर होता यह है कि अपने उच्च अधिकारी को भ्रष्ट देखकर नीचे के लोग भी जेबें भरने लगते हैं। 
 
यही बात पूरे देश पर लागू होती है। यदि दिल्ली, पटना, लखनऊ, भोपाल एवं मुंबई साफ-सुथरी होती तो जिले, तहसील या ग्राम पंचायत स्तर पर सरकारी नल से जबर्दस्ती पानी निकाल लेने की हिम्मत छोटे-मोटे लोगों की कैसी हो सकती थी? मितव्ययिता, त्याग, ईमानदारी, देशभक्ति, अपने कार्य व व्यवहार से यदि उच्च स्थानों के लोग दिखाते, यदि उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो देश आज उस दलदल की स्थिति में नहीं पहुंचता, जहां यह पहुंचा है। आज सरकारें वित्तीय स्थिति के खराब होने का रोना रो रही हैं।

क्या इसके लिए छोटे लोग या आम जनता दोषी है? जनता उन्हें चुनकर और अधिकार संपन्न बनाकर सत्ता पर काबिज करती है और वे अपनी पार्टी को मजबूत करने में, अपनी कुर्सी को बनाए रखने में, अपने हितों की पूर्ति करने में गलती पर गलती किए जाते हैं, जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है। 
 
कब तक देश की जनता किसी चमत्कारी व्यक्तित्व की प्रतीक्षा करती रहेगी? वह क्यों भ्रष्ट नेताओं के पीछे भागती हैं? होना तो यह चाहिए कि जनता स्वयं ऐसे भ्रष्ट लोगों के विरुद्ध आवाज उठाए या भविष्य के लिए उन्हें न चुने। जागरूक जनता ही प्रजातंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऊपर मौसम बदले न बदले, जनता में तो बदलाव आए। नई शताब्दी में भारत की जनता से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है।