पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है, परंतु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है, क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन।
गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्न-विनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिए आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है।
अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता, जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
आषाढ़ की समाप्ति और श्रावण के आरंभ की संधि को आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा कहते हैं। गुरु पूर्णिमा आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार है। यह त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है।
काव्यात्मक भाषा में कहा गया है- गुरु पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की तरह जीए गए अनुभवों का अक्षय कोष होता है इसीलिए इस दिन गुरु की पूजा की जाती है इसलिए इसे 'गुरु पूजा दिवस' भी कहा जाता है।
प्राचीनकाल में विद्यार्थियों से शुल्क नहीं वसूला जाता था अत: वे साल में एक दिन गुरु की पूजा करके अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। महाभारतकाल से पहले यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन धीरे-धीरे गुरु-शिष्य संबंधों में बदलाव आ गया।
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा और आदर का स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे हैं। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझकर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। 'आचार्य देवो भव:' का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है।
ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता 4 मास के लिए सो जाते हैं इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ-प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं। गुरु एक तरह का बांध है, जो परमात्मा और संसार के बीच तथा शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं।
इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या-वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध हैं। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था।
प्राचीनकाल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे लेकिन आज वक्त बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले 'शिक्षक' और लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते हैं लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में 'गुरु' शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं।
'योग दर्शन' नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया है, क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं, लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है।
पहले गुरु उसे कहते थे, जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य- ये दो पद अलग-अलग हो गए।
भारत के महान दार्शनिक ओशो ने जब यह कहा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं अविद्या का प्रचार कर रही हैं तो लोगों ने आपत्ति की लेकिन वे बात सही कह रहे थे। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं, बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा इसलिए आज हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो एक बड़ी भीड़ जमा है लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवा-स्वप्न बनकर रह गई है।
शिक्षा का संबंध यदि चरित्र के साथ न रहा तो उसका परिणाम यही होगा। परंतु इस मूल प्रश्न की ओर कौन ध्यान दे? सत्ताधारी लोग अपने पद को बनाए रखने के लिए शिक्षा का संबंध चरित्र की बजाय रोजगार से जोड़ना चाहते हैं। जो लोग शिक्षा का संबंध रोजगार से जोड़ने की वकालत करते हैं, वे वस्तुतः शताब्दियों तक अपने लिए राज करने की भूमिका तैयार कर रहे हैं और उनके तर्क इतने अकाट्य हैं कि सामान्य व्यक्ति को महसूस होता है कि समाज के सबसे अधिक हिंतचिंतक यही लोग हैं।
यही कारण है कि देश में आज जिस तरह का माहौल बनता जा रहा है, अनैतिकता और अराजकता फैलती जा रही है, हिंसा और आतंक बढ़ता जा रहा है, भ्रष्टाचार और अपराध जीवनशैली बन गई है इसका मूल कारण गुरु को नकारकर, चरित्र को नकारकर हमने केवल भौतिकता को जीवन का आधार बना लिया है।
पिछले 7 दशक से हम उल्टी गिनती गिन रहे हैं। उसी का परिणाम है कि न पानी की समस्या सुलझी न रोजी-रोटी की। न उन्नत चिकित्सा सुलभ हो पा रही है, न शिक्षा को उन्नत बना पाए हैं। चंद लोगों की भव्य अट्टालिकाएं अवश्य खड़ी हो गई हैं।
यदि हमें भारत में लोकतांत्रिक पद्धति को सफल बनाना है तो चरित्र उसकी पहली शर्त है। महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि हम हिन्दुस्तान में कौन-सी पद्धति लागू करें बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि हम चरित्रवान व्यक्ति पैदा करें।
पाठ्यपुस्तकों में कुछ नीतिपरक श्लोकों को जोड़ने अथवा बच्चों को तोते की तरह गायत्री मंत्र रटाने या अंग्रेजी शैली में योग को 'योगा' करने से न तो चरित्र-निर्माण होता है और न भावी पीढ़ी में ज्ञान का हस्तांतरण ही संभव है। ज्ञान तो गुरु से ही प्राप्त हो सकता है लेकिन गुरु मिलें कहां? अब तो ट्यूटर हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं, पर गुरु 'नदारद' हैं।
गुरु के प्रति अविचल आस्था ही वह द्वार है जिससे ज्ञान का हस्तांतरण संभव है। हमें इन तथ्यों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह सच है कि आज हम जिस सामाजिक और आर्थिक परिवेश में सांस ले रहे हैं, वहां इन पुरानी व्यवस्थाओं की चर्चा निरर्थक है, परंतु इनके सार्थक और शाश्वत अंशों को तो हम ग्रहण कर ही सकते हैं।
सिर्फ धन कमाने या रोजी-रोटी चला लेने से मनुष्य जीवन में सुखी नहीं रह सकता। यह सुखी रहने का बाहरी भौतिक उपाय है। अपनी आत्मा को जानना और भगवान को पाना ही सच्चा सुख है। यद्यपि गुरुओं के महागुरु भगवान स्वयं प्रत्येक व्यक्ति के हृदय-गुहा में विराजमान हैं तथापि बिना किसी बाहर के योग्य गुरु की मदद के हम अपनी आत्मा को नहीं जान सकते। यह आध्यात्मिक गुरु ही अंतरात्मा के बंद द्वार खोलता है और हमें भगवान से साक्षात्कार कराता है।
मां का ज्ञान और शिक्षक द्वारा दिया गया ज्ञान बाहर का ज्ञान है, वस्तुओं का ज्ञान है, परंतु आध्यात्मिक गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान आंतरिक ज्ञान है। वह भीतर के अंधकार को दूर कर उसे प्रकाशित करता है। बाहर की वस्तुओं का कितना भी हमें ज्ञान प्राप्त हो जाए, हम कितने भी बड़े पद पर हों, कितना भी हमारे पास पैसा हो, परंतु बिना भीतर के ज्ञान सब कुछ व्यर्थ है। बाहरी ज्ञान, मन-बुद्धि का ज्ञान-विज्ञान है, परंतु आध्यात्मिक ज्ञान मन से परे भगवान का ज्ञान है।
परंतु विडंबना यह है कि जिस प्रकार गुरुरूपी मां की महिमा और सम्मान में गिरावट आई है, रोजगार दिलाने वाले शिक्षकों का अवमूल्यन हुआ है, उसी प्रकार भगवान से मिलाने वाले आध्यात्मिक गुरुओं का भी अवमूल्यन हो रहा है। आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है।
आज असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुंडलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दुःख काटने के नाम पर, रोग-व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गए हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है।
जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते, वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह-तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों, वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है। मूर्ख भोली-भाली जनता इनके पीछे-पीछे भागती है और दान-दक्षिणा देती है। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए।
कहावत है कि 'पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के।' सच्चा गुरु ही भगवानतुल्य है। इसीलिए कहा गया है कि 'गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय/ बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय' यानी भगवान से भी अधिक महत्व गुरु को दिया गया है। यदि गुरु रास्ता न बताए तो हम भगवान तक नहीं पहुंच सकते।
अत: सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्योछावर कर दीजिए। उनके उपदेशों को अक्षरश: मानिए और जीवन में उतारिए। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगाएं, यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है तथा इसी के साथ अपने गुरु का भी सम्मान करें।