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नागपंचमी की महिमा

क्या है नागवंशीय प्रथा

Naag panchami | नागपंचमी की महिमा
संजय वर्मा 'दृष्टि'
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नागपंचमी को सर्पपंचमी क्यों नहीं कहा जा सकता? इस पावन दिन पर सृपप्राणी की प्रतिमा को आस्था एवं श्रद्धा के हिसाब से पूजा जाता है। देखा जाए तो नाग तो एक जाति है जिसके संबंध में प्राचीन मतानुसार अलग-अलग मत हैं। यक्षों की एक समकालीन जाति सर्पचिह्न वाले नागों की थी, यह भी दक्षिण भारत में पनपी थी। नागों ने लंबा के कुछ स्थानों पर ही नहीं, वरन प्राचीन मलाबार प्रदेश पर भी अपना अधिकार जमा रखा था।

रामायण में सुरसा को नागों की माता और समुद्र को उसका अधिष्ठान बताया गया है। महेन्द्र और मैनाक पर्वतों की गुफाओं में भी नाग निवास करते थे। हनुमानजी द्वारा समुद्र लाँघने की घटना को तो नागों ने प्रत्यक्ष देखा था। रावण ने नागों की राजधानी भोगवती नगरी पर आक्रमण करके वासुकि, तक्षक, शक और जटी नामक प्रमुख नागों को परास्त किया था।

नागपंचमी के परिप्रेक्ष्य में एक किंवदंती यह भी है कि अभिमन्यु के बेटे राजा परीक्षित ने तपस्या में लीन मैनऋषि के गले में मृत सर्प डाल दिया था। इस पर ऋषि के शिष्य श्रृंगीऋषि ने क्रोधित होकर शाप दिया कि-यह सर्प सात दिनों के पश्चात तुम्हें जीवित होकर डंस लेगा, ठीक सात दिनों के पश्चात उसी तक्षक सर्प ने जीवित होकर राजा को डसा।

तब क्रोधित होकर राजा परीक्षित के बेटे जन्मेजय ने विशाल ' सर्प यज्ञ' किया जिसमें सर्पों की आहुतियाँ दी। इस यज्ञ को रुकवाने हेतु महर्षि आस्तिक आगे आए। उनका आगे आने का कारण यह था कि महर्षि आस्तिक के पिता आर्य और माता नागवंशी थी। इसी नाते से वे यज्ञ होते न देख सके।

सर्पयज्ञ रुकवाने, लड़ाई को खत्म करने, पुनः अच्छे संबंधों को बनाने हेतु आर्यों ने स्मृति स्वरूप अपने त्योहारों में 'सर्प पूजा' को एक त्योहार के रूप में मनाने की शुरुआत की। वैसे द्रविड़ लोग भी नागपूजक थे। शायद नागों और द्रविड़ों में कहीं मिलान बिंदु रहा हो। नागवंश से ताल्लुक रखने पर इसे नागपंचमी कहा जाने लगा होगा।

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यह भी मान्यता है कि नाग जाति विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई थी। नाग जनजाति का नर्मदा घाटी में भी निवास स्थान होना माना जाता है। कहते हैं हैथयो ने नागों को यहाँ से हटा दिया था। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद नागों का पुनरोदय हुआ और ये नवनाग कहलाए।

उनका राज्य मथुरा, विदिशा, कांतिपुरी (कुंतवार) व पद्मावती (पवैया) तक विस्तृत था। नागों ने अपने शासनकाल के दौरान जो सिक्के चलाए थे उसमें वृषभ, त्रिशूल और सर्प के चित्र अंकित थे। नागों के सिक्के काकिणी के नाम से जाने जाते थे और ये अलग-अलग भार के होते थे। नागों की एक शाखा भार शिवि कहलाती थी।

ये नाग अपने मस्तक पर शिवलिंग धारण किए रहते थे। गणपति नाग इस वंश का अंतिम शासक था। भावराजस में इसे धाराधीश बताया गया है अर्थात नागों का राज्य उस समय धारा नगरी (वर्तमान धार) तक विस्तृत था। धाराधीश मंजु के अनुज राजा भोज के पिता सिंधुराज थे।

सिंधुल ने विध्यावटी के राजा शंखपाल की कन्या शशिप्रभा से विवाह किया था। इस कथानक पर परमारकालीन राजकवि परिमल पद्मगुप्त ने नवसाहसांक चरित्र काव्य ग्रंथ की रचना की। मंजु राज्यकाल तक नागों का विध्य क्षेत्र में अस्तित्व रहा था। नागवंशीय राजा "सर्पपूजक" थे। नागवंशियों के काल में सर्प की प्रतिमाएँ अनेक स्थानों पर स्थापित की गई थीं और आज भी कई जगह स्थापित है।

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कुछ लोग नागदा नामक ग्राम को नागदाह की घटनाओं से जोड़ते हैं। इनके साथ ही आज भी कई परिवारों में सर्प को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। मालवा क्षेत्र में कई गाँवों में उनके चबूतरे बने हुए हैं। जनभाषा में उन्हें भीलट बाबा भी कहते हैं।

इस पूजा की प्रथा को निरंतर रखने के लिए श्रावण शुक्ल की पंचमी को नागपंचमी का चलन रहा होगा। खैर, हमें चाहिए कि आस्था और श्रद्धा के साथ सर्पों की प्रजाति बचाने एवं उनकी सुरक्षा, फसलों को सुरक्षित रखने, स्वास्थ्य हित में टीके विकसित करने हेतु आगे आना चाहिए ताकि नागपंचमी पर सर्प की पूजा के महत्व का लाभ भविष्य में हमें मिलता रहे।