बंगाल में दुर्गोत्सव का रंग
पश्चिम बंगाल में दुर्गोत्सव की पुरानी और गौरवशाली परंपरा रही है। देश के कई हिस्सों से, यहां तक कि विदेशों से भी लोग दुर्गोत्सव का आनंद उठाने यहां पहुंचते हैं। दुर्गापूजा उन लोगों के लिए एक बेहतर मौका उपलब्ध करता है, जो घूमने के शौकीन हैं और शहर के बहार जाकर पर्यटन का आनंद उठाने के इच्छुक रहते हैं। दुर्गापूजा के दौरान सबसे ज्यादा दुर्गा-प्रतिमाएं मन को मोहती हैं।
इसके अलावा अलावा महत्वपूर्ण होता है पूजा पंडाल। राजबाड़ियों से बाहर निकलकर दुर्गा ने जब सार्वजनिक रूप लिया तो पंडालों की जरूरत पड़ी। फिर प्रतिमाएं, पंडालों में सजीं। बंगाल में पंडालों के निर्माण में तरह-तरह के प्रयोग किए जाते रहे हैं।
कहीं ऐतिहासिक इमारतों का मॉडल नजर आता है, तो कहीं प्राचीन मंदिरों की तर्ज पर पंडाल बनाए जाते हैं। अब तो कारीगर वर्तमान घटनाओं व संदर्भों से भी पूजा पंडाल को जोड़ने लगे हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। बिजली की चकाचौंध ने भी दुर्गा-पूजा को काफी आकर्षक बना दिया है। बिजली की सजावट में भी नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। रंग-बिरंगे बल्बों के माध्यम से बानी झांकियां एक अलग ही छटा बिखेरतीं हैं। इन झांकियों का मुख्य मकसद मौजूदा स्थितियों को लोगों के सामने पेश करना होता है। चाहे वो राजनीतिक संदर्भ हो, सामजिक हो या आर्थिक, कलाकारों की 'क्रिएटिविटी' साफ झलकती है।
मूर्तिकारों को भी दुर्गापूजा के बहाने अपनी कला दिखने का मौका मिलता है। कोलकाता के कुम्हारटोली में बानी मूर्तियां विदेशों में भी आयात की जाती हैं। पिछले 26 वर्षों से मूर्ति-व्यवसाय से जुड़े हरिदास पल का कहना है कि महंगाई का असर इस व्यवसाय पर भी पड़ा है। कभी-कभी मेहनत के हिसाब से उन्हें पारिश्रमिक नहीं मिल पाता है।
दुर्गा-पूजा के कई रूप हैं। यह सिर्फ दुर्गा की आराधना का त्यौहार नहीं है, बल्कि बंगाल की संस्कृति का परिचायक है। चार दिनों के पूजा उत्सव के दौरान पूरा बंगाल मानों भक्ति की गंगा में डूब जाता है। विशेषकर कोलकाता महानगर में तो दुर्गा-पूजा की छटा देखते ही बनती है। मनमोहक दुर्गा-प्रतिमाएं और रंग-बिरंगे पूजा पंडाल सहज ही अपनी ओर आकर्षित करते हैं।