शनिवार, 21 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. विधानसभा चुनाव 2018
  3. मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव 2018
  4. Madhya Pradesh assembly elections
Last Updated : बुधवार, 27 मार्च 2019 (18:13 IST)

मध्यप्रदेश में इस बार जनता से मुकाबला है भाजपा का

मध्यप्रदेश में इस बार जनता से मुकाबला है भाजपा का - Madhya Pradesh assembly elections
लोकसभा चुनाव से ऐन पहले जिन पांच राज्यों में अगले महीने विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें एक मध्यप्रदेश भी है। यहां भाजपा पिछले पंद्रह वर्षों से सत्ता पर काबिज है और हर बार की तरह इस बार भी उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। भाजपा जहां मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के चेहरे को आगे रखकर चुनाव मैदान में है, वहीं कांग्रेस किसी व्यक्ति विशेष के चेहरे को आगे रखे बगैर भाजपा को चुनौती देने की मुद्रा में है।


पिछले पंद्रह सालों में यह पहला मौका है जब प्रदेश की जनता में भाजपा सरकार के प्रति नाराजगी और अंसतोष साफ दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह की 'जन आशीर्वाद’ यात्रा में सरकारी मशीनरी के भरपूर इस्तेमाल के बावजूद अपेक्षित भीड़ नहीं जुट पा रही है। कहीं उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, तो कई काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। कहीं-कहीं तो मुख्यमंत्री की मौजूदगी में गुटीय आधार पर कार्यकर्ताओं के बीच ही टकराव के हालात बन रहे हैं। पिछले दिनों सूबे की राजधानी भोपाल में आयोजित 'कार्यकर्ता महाकुंभ’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन पर दस लाख लोगों की भीड जुटाने का दावा किया गया था, लेकिन वास्तव दो लाख लोग भी नहीं जुट पाए थे।

शासन के मोर्चे पर भी भाजपा सरकार के खाते में उपलब्धियां कम और नाकामियां ज्यादा हैं। आर्थिक स्थिति के मोर्चे पर मध्यप्रदेश की हालत बेहद दयनीय है। राज्य सरकार पर दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज है। सरकार को अपने कर्मचारियों को वेतन बांटने के लिए हर दूसरे-तीसरे महीने इधर-उधर से कर्ज लेकर काम चलाना पड़ रहा है। इस स्थिति के बावजूद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह हर दिन नित नई ढपोरसंखी घोषणा करते जा रहे हैं।

खेती-किसानी के मोर्चे पर मुख्यमंत्री का दावा है कि उनके कार्यकाल में खेती के विकास पर जोर दिया गया है। अपने दावे की पुष्टि के लिए वे पिछले पांच वर्षों से केंद्र सरकार के हाथों मध्यप्रदेश सरकार को मिल रहे कृषि कर्मण पुरस्कार का हवाला भी देते हैं। लेकिन वही खेती उनकी दुश्वारियां भी बढ़ा रही है। सूबे में सोयाबीन, कपास और प्याज की खेती करने वाले किसानों का असंतोष शिवराज की सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। फसलों के समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य में जो अंतर होता है, किसानों को उसका भुगतान सरकार की ओर से करने के लिए भावांतर योजना तो शुरू कर दी गई है, लेकिन सरकार के खजाने में किसानों को भुगतान करने के पैसा नहीं है।

पिछले वर्ष मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान पुलिस की गोलियों से छह किसानों की मौत हो गई थी। उस घटना की गूंज अभी भी कायम है। बहुचर्चित व्यापमं घोटाले का भूत भी सरकार की पीठ पर से उतरने के लिए तैयार नहीं दिखता। अभी तक इस कांड में शामिल लोगों और गवाहों में से 50 से अधिक की मौत हो चुकी है। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर भी शिवराज सरकार का रिकॉर्ड बेहद खराब है। बलात्कार, हत्या, लूट, बच्चों का यौन शोषण आदि संगीन अपराधों में मध्य प्रदेश एक दशक से भी अधिक समय से अव्वल बना हुआ है।

इन तमाम प्रतिकूल कारकों के बावजूद अपने चाकचौबंद पार्टी संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मजबूत नेटवर्क के बूते भाजपा को जहां लगातार चौथी बार चुनाव जीतने की आस लगाए बैठी है, वहीं कांग्रेस अपनी गुटबाजी और लचर संगठन के चलते सरकार की तमाम नाकामियों का फायदा उठाने में अक्षम साबित होती दिख रही है।

मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनकी सभाओं में भीड आसानी से जुट जाती है। वे युवा हैं और अच्छे वक्ता भी। उनके प्रति पार्टी के कार्यकर्ताओं में ही नहीं, आम जनता में भी आकर्षण है। उनका चेहरा तथा जनता से उनका संवाद भाजपा की चिंता बढ़ा देता है।

पहले यह माना जा रहा था कि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश कर चुनाव मैदान में उतरेगी। प्रदेश में सिंधिया की सक्रियता से भी ऐसे ही संकेत मिले थे, लेकिन लंबे समय तक अनिश्चिय की स्थिति में रहने के बाद पार्टी आलाकमान ने कमलनाथ को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष, सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष और प्रदेश कांग्रेस में विभिन्न गुटों के बीच समन्वय कायम करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह को लिए समन्वय समिति का अध्यक्ष बना दिया। इसी के साथ यह तय हो गया कि पार्टी किसी को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाएगी।

कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपे जाने के बाद समझा जा रहा था कि प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी थम जाएगी और वे सभी गुटों के साथ संतुलन बैठा लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। शुरू में तो कमलनाथ ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे गुटबाजी से ऊपर उठकर सभी को साथ लेकर चलने में यकीन करते हैं, लेकिन जल्दी वे खुद भी एक गुट के नेता बनकर रह गए। प्रदेश कांग्रेस इस समय मुख्य रूप से तीन गुटों (कमलनाथ, दिग्विजयसिंह और सिंधिया) में बंटी हुई हैं। इनके अलावा भी कुछ छोटे-मोटे गुट हैं।

शायद इसी गुटबाजी के चलते ही किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया। दरअसल, कमलनाथ और सिंधिया दोनों ही मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले हुए हैं। कमलनाथ की हसरत तो बहुत पुरानी है। वे 1993 में भी मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष पीवी नरसिंहराव ने उन्हें केंद्र सरकार में ही बने रहने के लिए कहा था। वैसे भी उस वक्त मुख्यमंत्री पद पर स्वाभाविक दावा दिग्विजयसिंह का ही बनता था, क्योंकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष वे ही थे और कांग्रेस को जिताने में उन्होंने काफी मेहनत की थी।

इसके अलावा उन्हें अर्जुनसिंह का प्रत्यक्ष तथा सोनिया गांधी का परोक्ष समर्थन भी हासिल था, लिहाजा वे मुख्यमंत्री बन गए। दस साल तक उन्होंने सरकार चलाई। उनका पहला कार्यकाल तो ठीकठाक रहा लेकिन दूसरे कार्यकाल में वे राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर बुरी तरह लड़खड़ा गए। नतीजा यह हुआ कि 2003 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। उसके बाद कई बार कमलनाथ ने सूबे की राजनीति में सक्रिय होकर कांग्रेस की कमान संभालनी चाही, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की। अब पहली बार वे सूबे की राजनीति में सक्रिय हुए हैं। चाहते तो वे यह थे कि पार्टी नेतृत्व उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी देने के साथ ही मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दे। लेकिन पार्टी उनकी यह इच्छा पूरी करके चुनाव में कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती थी।

पार्टी नेतृत्व को अंदेशा था कि अगर किसी एक चेहरे को आगे कर दिया गया तो गुटबाजी को बढ़ावा मिलेगा और चुनाव में पार्टी की हार तय हो जाएगी। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद कमलनाथ के सामने ब्लॉक स्तर तक संगठन खड़ा करने चुनौती थी, जिसे वे अपनी बढ़ती उम्र और कमजोर स्वास्थ्य के चलते पूरा नहीं कर पाए हैं। हालांकि वे प्रदेशभर में दौरे कर रहे हैं और उनकी सभाओं में भीड़ भी ठीकठाक जुट रही है। लेकिन असली सवाल उस भीड को पोलिंग बूथ तक खींचने और उसे पार्टी के पक्ष में वोट में तब्दील करने का है।

इस काम के लिए जिस तरह का चाकचौबंद संगठन चाहिए, वह कांग्रेस के पास नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि इस बार चुनाव में मुकाबला भाजपा और जनता के बीच ही है। ऐसे में कांग्रेस की कामयाबी की शर्त यही है कि उसके मठाधीश पट्ठावाद से ऊपर उठकर बेहतर उम्मीदवार मैदान में उतारे। यही शर्त उसे चुनावी कामयाबी दिला सकती है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)