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Written By WD

दो शब्द

दो शब्द -
- डॉ. सतीश दुबे
ND

बहुत बड़े प्रोजेक्ट का काम सम्पन्न कर करीब एक माह बाद बेटा घर लौटा था।

शाम की स्याह लकीरें गहरी होकर अम्माँ के उपेक्षा -अहसास को गहरा कर बिफरने के लिए मजबूर कर ही रही थी कि, बेटा पैरों के पास आकर बैठ गया ।

’अम्माँ, थक गया था। कुछ ज्यादा ही देर तक सोया रहा, इसीलिए तुम्हारे हालचाल जानने के लिए आने में देरी हो गई। ठीक हो ना? किसी ने कोई तकलीफ तो नहीं दी--?’

ममता से सराबोर मुस्कान के साथ ही अम्माँ बोली - ऐसे पूछ रहा है मानो बहू ने कुछ बताया ही नहीं-- !!’

’तुम्हारा बेटा तेज-तर्रार हो गया, पर तुम भोली ही रही, अरे अम्माँ आजकल की बहूएँ कहाँ सोचती है किसी के बारे में? घर के बूढ़ें लोगों के बारें में तो बिल्कुल नहीं।‘

बेटे ने हँसी को होंठों में दबाकर अम्माँ की और देखा।

’अच्छा, बताऊँ तुझे। मुझे मिट्टी की माधो कह रहा है और खुद ने कौन सींग मारकर भेड़ लडा़ने की आदत छोड़ दी है?

'सॉरी बस्स ! अब जल्दी से कुछ शिकायत हो तो बताओ अम्माँ, वरना अभी तुम्हारी बहू आवाज देने लगेगी !

अम्माँ ‘फिर वही बदमाशी’ शब्दों को जुबान के बजाय हाथ उठाकर व्यक्त करते हुए स्नेह कंठ से बोली- ‘बेटा न तो मुझे कुछ तकलीफ है न ही किसी चीज की जरुरत, तू बस ऐसे ही दो शब्द बोलने के लिए समय निकाल लिया कर--!’

'अम्माँ तू भी बस्स’-’ बेटे का मन भीग गया।