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विनोद दुआ का क्लारनेट

विनोद दुआ का क्लारनेट - ashok chakradhar
-अशोक चक्रधर 
 
सन 1987 का स्मृति बक्सा खोलने से पहले 15 अगस्त 2014 का एक छोटा सा प्रसंग बताता हूं। इस दिन राष्ट्रपति भवन में सायंकाल एक विराट जलपान का आयोजन राष्ट्रपति जी की ओर से किया जाता है, जिसमें पद्म सम्मानों से अलंकृत सभी व्यक्तित्वों के साथ शासन और प्रशासन के महनीय व्यक्ति बुलाए जाते हैं। इस बार मुझे भी न्यौता मिला। श्री विनोद दुआ कुछ वर्ष पहले पद्मश्री से अवॉर्डित हो चुके हैं। भीड़ के एक कोने में अचानक मिले तो मैंने उन्हें बताया कि इन दिनों सन 1987 के स्मृति बक्से से कुछ चीजें निकाल रहा हूं। उसमें से आपका ट्रम्पैट भी निकला जो आपने मॉस्को में ख़रीदा था। उन्होंने बताया कि ट्रम्पेट नहीं, क्लारनेट था जो आज भी उनके घर में टंगा हुआ है।
 
बस इतनी सी बात बतानी थी। चलिए 1987 में चलते हैं।      
 
30 जून 1987 / रात / मॉस्को
 
कमरा विनोद दुआ के क्लारनेट से गूंजने लगा। उन्हें बजाना नहीं आता था फिर भी ध्वनियां अच्छी लग रही थीं। अचानक क्लारनेट पलंग पर रखते हुए उन्होंने मुझसे ऐसी बात कही जो मुझे अच्छी नहीं लगी, पर उन्होंने सद्भावना में ही कही होगी— ‘अशोक! यू शुड स्पीक इन इंग्लिश इन द मीटिंग्ज़। विदाउट इंग्लिश यू कांट सर्वाइव इन दिस प्रोफेशन। आई मेड माइ सैल्फ फ्लूयेंट इन इंग्लिश। दो माइ एंटायर वर्क इन मीडिया इज़ इन हिन्दी।‘ मैं चुप था, पर मन की मौन भाषा कह रही थी-- अपनी भाषा पर रूसियों की तरह क्या गर्व नहीं कर सकते हम। क्या हमें सोवियत संघ के लोगों को ये बात नहीं बतानी चाहिए कि हमें भी आपकी तरह अपनी भाषा से प्रेम है। विनोद दुआ का क्लारनेट पलंग पर लेटा-लेटा मेरी बात का समर्थन कर रहा था। ऐसा मुझे लगा।
ख़ैर जी, मस्क्वा होटल में चल रही थीं तरह-तरह की तैयारियां। 
हर पल भाग-दौड़। 
बीस घंटे का दिन, सिर्फ चार घंटे की रात। 
 
अधिकांश सोवियत सहयोगी शाम पांच बजते ही चले जाते थे। उसके बाद लगता था जैसे होटल के उस एक हिस्से में भारतीयों का राज आ गया हो। रिसैप्शन काउंटर, आवश्यक सेवाओं और छोटी-छोटी खान-पान की दुकानों के अलावा रूसी कहीं दिख नहीं रहे थे। चाय पीनी हो तो होटल के आंतरिक गलियारे के किसी भी मोड़ पर रुक कर अपने आप बना लो, कोई पैसा नहीं लगता था। हां चाय में डालने के लिए दूध नहीं मिलता था। जितने दिन मास्को रहा काली चाय पी और मुंह को ऐसी लगी कि आज भी अगर मिल जाए तो काली चाय ही पसन्द करता हूं।
 
हिन्दी-रूसी कामकाजी संवाद का एक गुटका हर समय मेरे पास रहता था। वैसा ही गुटका जैसा ‘मेरा नाम जोकर’ में राजकपूर अपने पास रखते थे। ‘दा-दा’ और ‘नियत-नियत’ मैं भी करने लगा। ज़रूरत के समय अपना काम निकालने में वह गुटका सचमुच एक वरदान था। युवा कवि अनिल जनविजय ने एक नेक सलाह दी, जो अनेक बार उपयोग में लाई गई। उन्होंने कहा— ‘दुकान पर काम करने वाली महिलाओं से कोई सामान लेने से पहले कुछ और भी बोला करिए। कुछ वाक्य बताता हूं रट लीजिए।‘ उन्होंने कुछ वाक्य बताए, दो मुझे याद हो गए। पहला था- ‘वी ओचिन क्रासीवया’, अर्थात— आप बहुत सुन्दर हैं, और दूसरा— ‘मिये ओचिन न्रावीचेस’, अर्थात— आप मुझे पसंद हैं।
 
अनिल और तान्या की मदद से जानकारियां इकट्ठी करके मैं समकालीन रूसी साहित्यकारों पर एक स्टोरी बनाना चाहता था। अनिल ने एक युवा रूसी साहित्यकार एलेक्सान्द्र इवानोव से मिलवाया। अनातोली पारपरा के साथ अनेक युवा लेखकों का ज़िक्र किया। रूसी साहित्य के यशस्वी अनुवादक डॉ. मदन लाल मधु से भी मुलाक़ात हुई। वे सब हर प्रकार से मेरी सहायता करने को प्रस्तुत थे। हमने साथ-साथ गोर्की, पुश्किन, मायकोव्स्की के संग्रहालय देखे। गोर्की साहित्य संस्थान जाने का सुयोग भी मिला। स्टोरी के लिए अच्छी रूपरेखा बन गई और जैसे ही कैमरा मिला, संग्रहालयों के आसपास जाकर मैं अच्छी खासी शूटिंग कर लाया। सरीन साहब ने एडिट की। मैं अपने किए गए काम से बहुत संतुष्ट तो नहीं था, फिर भी लगभग पांच मिनट की वह एक सूचना प्रधान उपयोगी स्टोरी थी। पर अफसोस कि हमारी एक प्रोड्यूसर सबा ज़ैदी साहिबा को पसन्द नहीं आई। उनका कहना था- ‘हम यहां साहित्य का प्रोग्राम नहीं बना रहे, कल्चर पर कुछ होना चाहिए। सॉरी अशोक जी, आपका टाइम वेस्ट हुआ।‘ मैंने वहीं खड़े एडीजी शिव शर्मा जी की ओर कातर दृष्टि से देखा। कुछ पल वे मौन रहे, फिर मुझे सांत्वना देते हुए बोले- ‘टाइम वेस्ट नहीं हुआ अशोक, किया हुआ काम कभी बेकार नहीं जाता, ये स्टोरी भारत लौटकर कभी दिखा देंगे’।
 
मैं मॉस्को में अपनी पहली स्टोरी बनाकर लाया था। ‘अपना उत्सव’ का ठीक-ठाक सा अनुभव मेरे पास था। असफलता मुझे जीवन में कभी अच्छी नहीं लगी। कुछ स्तब्ध सा रह गया। राजीव महरोत्रा मेरी स्थिति को भांप रहे थे। उन्होंने मेरा कंधा थपथपाया। थोड़ी देर में कमरे की बातचीत का विषय बदल गया। तीन जुलाई! मुख्य काम तो आंखों देखा हाल सुनाने का है। उसमें सिर्फ तीन दिन हैं। सब को अपेक्षित निर्देश देकर शर्मा जी निकल गए।
 
विनोद दुआ पता नहीं कहां थे? एडिटिंग रूम में राजीव महरोत्रा और कोमल जीबी सिंह के साथ इस बात पर विमर्श चला कि मैं और किन विषयों पर स्टोरीज़ बना सकता हूं। अंतत: राजीव बोले- ‘विषय छोड़िए! कैमरा मैन को लेकर गाड़ी में निकल जाइए। जो दिखे, कवि जी, शूट कर लाइए। लेकिन कहानी तभी बनेगी जब रात में कैमरा मैन साहब को अपने कमरे में बढ़िया वाली वोद्का ऑफर करेंगे।‘ फिर थोड़े अनौपचारिक होते हुए बोले— ‘जैसे अपनी कविता लिखते हो पार्टनर, वैसे ही स्टोरी बना दो।‘ कोमल ने हौसला बढ़ाया— ‘रीयली, अशोक जो भी बोलते हैं, पोयट्री लगती है, आई स्वियर।‘ कोमल ने सोफे पर पालती मार ली, राजीव ने दोनों हाथों को गर्दन पर टिकाते हुए पैर लम्बे कर लिए। तीन तारीख के लिए अभी तक रूसियों की ओर से मिनट-टू-मिनट प्रोग्राम नहीं आया था। महोत्सव का भारतीय सचिवालय कार्यक्रम को अंतिम रूप देने में जी जान से जुटा था।
 
मैंने एक मिनट की भी देर किए बिना वहां से निकल लेना बेहतर समझा। बगल के कमरे में, जहां कुछ और एडिटिंग टेबल्स थीं, मैंने देखा कि विनोद दुआ बैठे अपनी कोई स्टोरी एडिट करा रहे हैं। बात किसी प्रतियोगिता की नहीं थी, पर मुझे भी तो कुछ करके दिखाना था। मैं बेताब था कि कैमरा मैन मिले और मैं निकलूं। कैमरा मैन डीवी मल्होत्रा जी मिल गए, लेकिन उनको किसी प्रोड्यूसर की अनुमति की आवश्यकता थी। अब मैं ढ़ूंढने लगा प्रोड्यूसर को। चौधरी रघुनाथ सिंह मुझसे स्नेह मानते थे पर कहीं और व्यस्त रहे होंगे। हड़बड़ाते हुए विजय कुमार दिखाई दिए। मेरा निवेदन सुनकर बोले— ‘बॉस, देखो! मेरा फील्ड है स्पोर्ट्स का। सबा ज़ैदी से बात कर लो न।‘ सबा भी वहीं बैठी थीं। बिना मेरी ओर देखे बोलीं— ‘आई कान्ट स्पेयर ऐनी कैमरा मैन राइट नाउ, सॉरी।‘
 
एक पल को तो मेरे मस्तक में खुन्दक का ज्वालामुखी फूटने-फूटने को हुआ, पर किसी तरह ज्वालामुखी पर मुस्कान का ढक्कन लगा कर मैंने कहा— ‘सबा जी! पिछले दो घंटे से मल्होत्रा साहब और उनका कैमरा कुछ कर गुज़रने की तमन्ना में हैं, हम आधे घंटे में आते हैं, सिर्फ आधा घंटा।‘ सबा ने बात अनसुनी कर दी और विनोद के पास जाकर उन्हें कोई राय देने लगीं। मैं अजीब सी असहायता से गुज़र रहा था कि तभी राजीव वहां से गुज़रे— ‘अरे! आप लोग गए नहीं अभी? मल्होत्रा जी! अशोक जी के साथ एक राउंड लगा कर आइए।‘ 
 
सबा कुछ कहतीं इससे पहले मल्होत्रा साहब ने कैमरा उठा लिया और मुझसे इशारों में कहा कि निकल लो। तान्या मेरी दुभाषिया जो सब कुछ देख रही थी बिजली की तरह उठी और मेरा चमड़े का बैग उठा कर चलने लगी। मैंने उसे धन्यवाद दिया और थैला वापस ले लिया। सबा ने पीछे से आवाज़ लगाई- ‘प्लीज़ कम बैक इन थट्टी मिनट्स।‘ राजीव ने कहा—‘फॉटी फाइव मिनट्स, फिफ्टीन मोर फ्रोम सबा।‘ सबा ने राजीव के हाथ पर हाथ मारा और जो मौका हमारे हाथ लगा उसे अब गंवाना नहीं चाहते थे।
 
होटल से निकले। तान्या ने रूसी भाषा में ड्राइवर को कुछ समझाया। ड्राइवर इतनी फुर्ती से स्टेयरिंग पर बैठा जैसे मोर्चे पर जाना हो। सामने से आते हुए अनिल दिखे तो मैंने तान्या से गाड़ी रुकवाने को कहा। बड़ा तगड़ा ब्रेक लगा। पर अनिल के कारण ही मेरी स्टोरीज़ को ब्रेक मिलने वाला था। हमने उन्हें झटपट कार में बिठा लिया। 
 
पूरा आत्मविश्वास था कि इन पैंतालीस मिनिट में कुछ कर दिखाऊंगा। एक अजीब सा विचार मेरे मन में आ रहा था कि अगर मेरी स्टोरी चल गई तो रात में विनोद दुआ का क्लारनेट बजाऊंगा।