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धृतराष्ट्र के 8 पाप, जिसके कारण हुई जलकर मौत

Mahabharata | धृतराष्ट्र के 8 पाप, जिसके कारण हुई जलकर मौत
धृतराष्ट्र को महाभारत में कुरुक्षेत्र के युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक माना जाता है क्योंकि वे चाहते तो इस युद्ध को रोक सकते थे परंतु उन्होंने पुत्र मोह में उन्होंने अपने ही वंश का नाश करवा दिया। धृतराष्ट्र आंखों से ही नहीं मन और बुद्धि से भी अंधे थे। उन्होंने अपने जीवन में वैसे तो कई पाप किए थे लेकिन यहां जानिए उनके द्वारा किए गए 8 पापों के बारे में।
 
 
1. गांधारी के साथ धोखा : भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब यह पता चला कि मेरे पति अंधा है तो उसने भी आंखों पर पट्टी बांध ली। गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करने से पहले ज्योतिषियों ने सलाह दी कि गांधारी के पहले विवाह पर संकट है अत: इसका पहला विवाह किसी ओर से कर दीजिए, फिर धृतराष्ट्र से करें। इसके लिए ज्योतिषियों के कहने पर गांधारी का विवाह एक बकरे से करवाया गया था। बाद में उस बकरे की बलि दे दी गई। कहा जाता है कि गांधारी को किसी प्रकार के प्रकोप से मुक्त करवाने के लिए ही ज्योतिषियों ने यह सुझाव दिया था। इस कारणवश गांधारी प्रतीक रूप में विधवा मान ली गईं और बाद में उनका विवाह धृतराष्ट्र से कर दिया गया।
 
 
2. गांधारी के परिवार को जेल में डालना : गांधारी एक विधवा थीं, जब महाराज धृतराष्ट्र को पता चली तो वे बहुत क्रोधित हो उठे। उन्होंने समझा कि गांधारी का पहले किसी से विवाह हुआ था और वह न मालूम किस कारण मारा गया। धृतराष्ट्र के मन में इसको लेकर दुख उत्पन्न हुआ और उन्होंने इसका दोषी गांधारी के पिता राजा सुबाल को माना। धृतराष्ट्र ने गांधारी के पिता राजा सुबाल को पूरे परिवार सहित कारागार में डाल दिया।
 
कारागार में उन्हें खाने के लिए केवल एक व्यक्ति का भोजन दिया जाता था। केवल एक व्यक्ति के भोजन से भला सभी का पेट कैसे भरता? यह पूरे परिवार को भूखे मार देने की साजिश थी। राजा सुबाल ने यह निर्णय लिया कि वह यह भोजन केवल उनके सबसे छोटे पुत्र को ही दिया जाए ताकि उनके परिवार में से कोई तो जीवित बच सके। और वह था शकुनि। यह भी कहा जाता है कि विवाह के समय गांधारी के साथ उनका भाई शकुनि और आयु में बड़ी उनकी एक सखी हस्तिनापुर आई थीं और दोनों ही यहीं रह गए थे।
 
3. दासी के साथ सहवास : गांधारी के पुत्रों को कौरव पुत्र कहा गया लेकिन उनमें से एक भी कौरववंशी नहीं था। धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और एक पुत्री थीं जिन्हें कौरव कहा जाता था। गांधारी ने वेदव्यास से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर किया था। इस वरदान के चलते ही गांधारी को 99 पुत्र और एक पुत्री मिली थीं। उक्त सभी संतानों की उत्पत्ति 2 वर्ष बाद कुंडों से हुई थी। गांधारी की बेटी का नाम दु:शला था। गांधारी जब गर्भवती थी, तब धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ सहवास किया था जिसके चलते युयुत्सु नामक पुत्र का जन्म हुआ। इस तरह कौरव सौ हो गए।
 
4. पुत्र के मोह में करवाया युद्ध : पुत्रमोह में धृतराष्ट्र पांडवों के साथ अन्याय कर रहे थे लेकिन राजा और राज सिंहासन के प्रति निष्ठा के चलते भीष्म उनके साथ बने रहे। धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र-मोह में सारे वंश और देश का सर्वनाश करा दिया। धृतराष्ट्र चाहते तो वे अपने पुत्र के हठ और अपराध पर लगाम लगा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और दुर्योधन को गलती पर गलती करने की अप्रत्यक्ष रूप से छूट दे दी। पांडवों के साथ हुए अति अन्याय के चलते ही महाभारत युद्ध हुआ। राज सिंहासन पर बैठे धृतराष्ट्र यदि न्यायकर्ता होते तो यह युद्ध टाला जा सकता था। विदुर ने कई बार धृतराष्ट्र को नीति और अनीति के बारे में बताया लेकिन धृतराष्ट्र ने जानबूझकर विदुर की बातों को नजरअंदाज किया।
 
5. चीर हरण के समय धृतराष्ट्र का चुप रहना : द्रौपदी के चीर हरण के समय भी भीष्म और धृतराष्ट्र चुप रहे और इसी के चलते भगवान कृष्ण को महाभारत युद्ध में कौरवों के खिलाफ खड़े होने का फैसला करना पड़ा। चीर हरण महाभारत की ऐसी घटना थी जिसके चलते पांडवों के मन में कौरवों के प्रति नफरत का भाव स्थायी हो गया। यह एक ऐसी घटना थी जिसके चलते प्रतिशोध की आग में सभी चल रहे थे।
 
6. अधर्म का साथ दिया : वयोवृद्ध और ज्ञानी होने के बावजूद धृतराष्ट्र के मुंह से कभी न्यायसंगत बात नहीं निकली। पुत्रमोह में उन्होंने कभी गांधारी की न्यायोचित बात पर ध्यान नहीं दिया। गांधारी के अलावा संजय भी उनको न्यायोचित बातों से अवगत कराकर राज्य और धर्म के हितों की बात बताता था, लेकिन वे संजय की बातों को नहीं मानते थे। वे हमेशा ही शकुनि और दुर्योधन की बातों को ही सच मानते थे। वे जानते थे कि यह अधर्म और अन्याय कर रहे हैं फिर भी वे पुत्र का ही साथ देते थे। अधर्म का साथ देने वाला कैसे नहीं खलनायक हो सकता है?
 
7. भीम को मरने की इच्‍छा : युद्ध का अंत हो चुका था और पांडु पुत्र भीम ने धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन का वध कर दिया था। इसको लेकर धृतराष्ट्र के मन में क्रोध और बदले की भावना प्रबल हो उठी थी। अत: मौका पाकर धृतराष्ट्र भीम को मार डालना चाहते थे। एक बार की बात है जब महाभारत का युद्ध जितने के बाद पांचों पांडव श्रीकृष्ण के साथ हस्तिनापुर महाराज धृतराष्ट्र से मिलने पहुंचे तो भीम के अलावा सबने धृतराष्ट्र को प्रणाम किया तथा उनके गले मिले। बाद में भीम की बारी आई तो भगवान श्री कृष्ण धृतराष्ट्र की मंशा जान चुके थे। अतः जब भीम धृतराष्ट्र को प्रणाम करके उनके गले मिलने के लिए आगे बढ़ने लगे तो श्रीकृष्ण ने भीम को इशारों से रोक दिया और उनके स्थान पर भीम की लोहे की मूर्ति आगे बढ़ा दी। धृतराष्ट्र बहुत शक्तिशाली थे उन्होंने लोहे की मूर्ति को भीम समझकर पूरी ताकत से दबोच लिया और उस मूर्ति तोड़ डाला। उनमें क्रोध इतना था कि वे समय नहीं पाए कि यह तो लोहे की मूर्ति है। भीम की मूर्ति तोड़ने से उनके मुंह से भी खून निकलने लगा था। इसके बाद जब धृतराष्ट्र का क्रोध शांत हुआ तो वे भीम को मृत समझकर रोने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण बोले की भीम तो जीवित है आपने भीम समझ भीम की मूर्ति को तोड़ा है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से भीम की जान बचाई थी।
 
8. पूर्व जन्म का पाप : कहते हैं कि पूर्व जन्म में किए पाप के कारण धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे और उनके सभी पुत्र मारे गए। दरअसल, अपने पूर्व जन्म में धृतराष्ट्र एक बहुत ही निर्दयी एवं क्रूर राजा थे। एक दिन जब वे अपने सैनिकों के साथ राज्य भ्रमण को निकले तो उनकी नजर एक तालाब में अपने बच्चों के साथ आराम करते हंस पर पड़ी। उन्होंने सैनिकों को तुरंत आदेश दिया की उस हंस की आंखे निकाल ली जाए। सैनिकों ने राजा की आज्ञा का पालन किया। दर्द से बिलखते उस हंस की आंखों को निकालकर राजा अपने सैनिकों के साथ आगे बढ़ गया। उस हंस की असहनीय पीड़ा के कारण मृत्यु हो गई। इस घटना को देखकर उसके बच्चे भी मृत्यु को प्राप्त हो गए। मरते वक्त हंस ने राजा को शाप दिया था की मेरी ही तरह तुम्हारी भी यही दुर्दशा होगी। इसी शाप के कारण अगले जन्म में धृतराष्ट्र अंधे पैदा हुए तथा उनके पुत्र उसी तरह मृत्यु के प्राप्त हुए जिस तरह हंस के।
 
मृत्यु : महाभारत युद्ध के 15 वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, संजय और कुंती वन में चले जाते हैं। तीन साल बाद एक दिन धृतराष्ट्र गंगा में स्नान करने के लिए जाते हैं और उनके जाते ही जंगल में आग लग जाती है। वे सभी धृतराष्ट्र के पास आते हैं। संजय उन सभी को जंगल से चलने के लिए कहते हैं, लेकिन दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र वहां से नहीं जाते हैं, गांधारी और कुंती भी नहीं जाती है। जब संजय अकेले ही उन्हें जंगल में छोड़ चले जाते हैं, तब तीनों लोग आग में झुलसकर मर जाते हैं। संजय उन्हें छोड़कर हिमालय की ओर प्रस्थान करते हैं, जहां वे एक संन्यासी की तरह रहते हैं। बाद में नारद मुनि युधिष्ठिर को यह दुखद समाचार देते हैं। युधिष्ठिर वहां जाकर उनकी आत्मशांति के लिए धार्मिक कार्य करते हैं।
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