वह केवल दो माइक्रोमीटर लंबाई और आधे माइक्रोमीटर व्यास वाला एक बेलनाकार बैक्टीरिया है। सवा सौ वर्षों से जाना जाता है। एक जर्मन बालरोग चिकित्सक थेओडोर एशेरिष ने 1885 में उसे पहली बार पहचाना था। मूल रूप से वह अब तक बच्चों को ही परेशान किया करता था। लेकिन, लगभग दो हफ्तों से वह जर्मनी में कहर ढा रहा है। अब तो यूरोप के अन्य देश भी उसकी चपेट में आने लगे हैं।
हमारी बड़ी आँत के कोलन (Colon) नामक हिस्से में रहने वाले इस बैक्टीरिया के परिवार को उसके खोजकर्ता थेओडोर एशेरिष के सम्मान में सामूहिक तौर पर 'एशेरिषिया कोली या कोलाई' (Escherichia coli), या फिर संक्षेप में केवल में ''ई. कोली या कोलाई'' कह कर पुकारा जाता है। इस बैक्टीरिया परिवार के कई सदस्य हैं। कुछ अहानिकर हैं। कुछ हानिकर हैं। कुछ प्राणघातक भी हैं।
ई. कोलाई O104H , जिसका वैज्ञानिक नाम ''एन्टेरोहीमोरैजिक एशेरिषिया कोलाई बैक्टीरिया'' (Enterohemorrhagic Escherichia coli -EHEC) है, इस परिवार का एक सबसे हानिकारक सदस्य हैं। वह आम तौर पर गाय-बकरी जैसे मवेशियों की बड़ी आँत में ही पाया जाता है। उसके नाम का हिंदी में अर्थ है ' आंत्र- रक्तस्रावी एशेरिषिया कोलाई' बैक्टीरिया। नाम से ही पता चल जाता है कि यह बैक्टीरिया जब कभी हमारी बड़ी आँत में पहुँच जाता है, तो वहाँ रक्तस्राव पैदा करता है। रोगी रक्तमिश्रित अतिसार (Diarrhea / दस्त) से पस्त हो जाता है।
जर्मनी में ई. कोलाई बैक्टीरिया का प्रकोप : जर्मनी में इस समय इसी ई. कोलाई बैक्टीरिया का प्रकोप है। कोई दो सप्ताह पहले जर्मनी के बंदरगाह नगर हैम्बर्ग में उस के संक्रमण के पहले मामले सामने आए थे। देखते ही देखते उससे पीड़ितों की संख्या इस बीच दो हज़ार से ऊपर चली गयी है। दो जून तक 19 बीमार अपने प्राण गंवा चुके थे-- 18 जर्मनी के विभिन्न हिस्सों में और एक स्वीडन में। बच्चों से अधिक वयस्क और बड़े-बूढ़े इस बैक्टीरिया के संक्रमण से पीड़ित हो रहे हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि पीड़ितों और मृतकों में महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है। पहली जून तक के 16 मृतकों में से 14 महिलाएँ हैं।
संक्रमण की सबसे गंभीर अवस्था : संक्षेप में 'ईएचईसी' कहलाने वाले इस बैक्टीरिया-वर्ग के संक्रमण की सबसे गंभीर अवस्था को ''हीमोलाइटिक-यूरेमिक सिंड्रोम'' (hemolytic-uremic syndrome-- HUS) कहा जाता है। इस अवस्था में बैक्टीरिया द्वारा पैदा किये जाने वाले विष के कारण गुर्दे ख़ून को साफ़ नहीं कर पाते। ख़ून में विषाक्तता बढ़ती जाती है और साथ ही रोगी का तंत्रिका तंत्र (नर्वस-सिस्टम) भी जवाब देने लगता है। तब मृत्यु को टालना बहुत मुश्किल हो जाता है।
इस बीच यह बैक्टीरिया यूरोप के अन्य देशों में भी तेज़ी से पैर पसारने लगा है। यूरोपीय संघ के बताये आँकड़ो के अनुसार उससे बीमार होने वालों की संख्या पहली जून तक स्वीडन में 41 हो चुकी थी, जिनमें से 15 एचयूएस वाली गंभीर अवस्था में थे। डेनमार्क में बीमारों की संख्या 14 थी ( 6 एचयूएस)। फ्रांस में 6, ब्रिटेन में 3 (2 एचयूएस), नीदरलैंड में 7 (3 एचयूएस) और ऑस्ट्रिया में दो लोग बीमार थे। जर्मनी से बाहर के लगभग सभी बीमार पिछले कुछ ही दिनों में जर्मनी से लौटे थे।
'ईएचईसी O104H' आया कहाँ से : विशेषज्ञ अब भी अंधेरे में हाथ-पैर मार रहे हैं कि 'ईएचईसी O104H' आया कहाँ से? प्रथम रोगियों के बीच पूछताछ से पता चला कि वे टमाटर, खीरे और पत्तेदार सलाद खाने के शौकीन थे। इससे अनुमान लगाया गया कि कहीं न कहीं ये सब्ज़ियाँ इस घातक बैक्टीरिया से प्रदूषित हुई हैं और घरेलू रसोई या कैंटीनों के माध्यम से रोगियों तक पहुँची हैं।
हैम्बर्ग में बिकने वाले खीरों के नमूनों की जाँच-परख करने पर दो को प्रदूषित पाया गया। तुरंत फ़तवा दे दिया गया कि खीरे घर लाने और खाने से फ़िलहाल परहेज़ करें। बाद में पता चला कि वे स्पेन से आयात किये गये थे। मान लिया गया कि बैक्टिरिया का उद्गम स्थान स्पेन ही होना चाहिये।
यह ख़बर जंगल की आग की तरह फैली। स्पेन के वे किसान सिर थाम कर बैठ गये, जो खीरे, टमाटर और सलाद लायक अन्य सब्ज़ियाँ उगाते हैं। उनका ही नहीं, स्वयं जर्मनी के साग-सब्ज़ी उगाने वाले किसानों का भी धंधा चौपट होने लगा है। इस बीच कहा जा रहा है कि स्पेन से आये खीरों के दो नमूनों पर ईएचईसी बैक्टीरिया मिले तो थे, पर वे ठीक उसी प्रजाति (O104) वाले नहीं हैं, जिसका जर्मनी में कहर मचा हुआ है।
स्रोत के बारे में कुछ पता नहीं : संक्रामक रोगों पर नज़र रखने वाले जर्मनी के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान, बर्लिन स्थित 'रोबेर्ट कोख़ इंस्टीट्यूट' के अध्यक्ष राइनहार्ड बुर्गर ने संसद की उपभोक्ता सुरक्षा समिति के समक्ष एक जून को कहा कि हम संक्रमण शुरू होने के स्रोत के बारे में भले ही कुछ नहीं जानते, तब भी सलाद और सब्ज़ियों के बारे में चेतावनी को वापस लेने का कोई कारण नहीं है। जर्मनी की कृषि और उपभोक्ता संरक्षण मंत्री इल्ज़े आइगनर ने एक टेलीविज़न कार्यक्रम में संक्रमणवाहक माध्यम के बारे में कहा, '' हम फ़िलहाल किसी भी संभावना से इनकार नहीं कर सकते।''
रोगियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है : इस बीच देखने में आ रहा है कि 'ईएचईसी' से संक्रमित रोगियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। रोगियों में कुछ ऐसे भी लक्षण दिख रहे हैं, जो बिल्कुल अप्रत्याशित हैं। उत्तरी जर्मन राज्य श्लेसविश-होल्स्टाइन की राजधानी कील के एक अस्पातल के निदेशक प्रोफ़ेसर डॉक्टर उलरिश कुन्त्सनडोर्फ़ कहते हैं, ''हमारे यहाँ कुछ ऐसे भी रोगी भर्ती हैं, जिन्हें पतले दस्त बिल्कुल नहीं हो रहे हैं, पर जिनका तंत्रिका तंत्र बुरी तरह प्रभावित है।''
नगर-राज्य हैम्बर्ग की स्वास्थ्यमंत्री कोर्नेलिया प्रुइफ़र-श्टोर्क्स लोगों से कह रही हैं कि यदि वे साफ़-सफ़ाई के सामान्य नियमों का पालन करें, तो मनुष्य से मनुष्य को छूत लगने की संभावना नहीं के बराबर है। ''छूत लगने की सबसे अधिक संभावना सचमुच खाने-पीने की वस्तुओं से ही है,'' उनका कहना है। जबकि बर्लिन के 'रोबेर्ट कोख़ इंस्टीट्यूट' के अध्यक्ष राइनहार्ड बुर्गर कहते हैं कि इस बीच ऐसे भी संकेत मिले हैं कि ''आदमी से आदमी को संक्रमण भी लग सकता है।'' उन्होंने अस्पताली कर्मचारियों और बीमारों की सेवा करने वाले लोगों को आगाह किया है कि वे संक्रमण की रोकथाम वाले स्वच्छता- नियमों का कठोरता से पालन करें, वर्ना वे भी बीमार हो सकते हैं।
जर्मनी में एक तरफ़ साग-सब्ज़ियों की शामत आ गयी है, तो दूसरी तरफ़ लोगों से भारी संख्या में रक्तदान करने की अपील की जा रही है। 'ईएचईसी O104' वाले अतिसार से पीड़ित रोगी जिस तरह भारी मात्रा में ख़ून खोते हैं, और रोगियों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है, उसे देखते हुए स्वास्थ्य बीमा करने वाली कंपनियों के एक संघ ने यह अपील की है।
'ईएचईसी'' 42 बैक्टीरियों वाला एक परिचित परिवार : ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक 'ईएचईसी' परिवार के विभिन्न बैक्टीरिया प्रकारों से अपरिचित हैं। वे जानते हैं कि O104 ही नहीं, O157:H7, O121, O26, O103, O111 और O145 कहलाने प्रकार भी हमारे शरीर में ऐसे ज़हर पैदा करते हैं, जो जानलेवा सिद्ध हो सकते हैं। जिसे हम 'भोजन-विषाक्तता' (फ़ूड-पॉइज़निंग) कहते हैं, वह अधिकतर इन्हीं बैक्टीरिया- प्रकारों की देन होती है और फलों-सब्ज़ियों को ठीक से नहीं धोने या अधपका मांस खाने से पैदा होती है।
उदाहरण के लिए, O157:H7 पहले से ही कुख्यात है कि वह हमारे शरीर में गुर्दों को बेकार कर देने और तंत्रिकातंत्र को सुन्न कर देने वाले ''हीमोलाइटिक-यूरेमिक सिंड्रोम'' नामक संलक्षण पैदा कर सकता है। 2006 में अमेरिका में हरी पालक से फैले अतिसार (दस्त) के लिए उसे ही दोषी ठहराया गया था। उससे पैदा होने वाला अतिसार घातक भी हो सकता है और घातक नहीं भी हो सकता है। वह घातक हुआ करता है मुख्य रूप से पाँच साल तक के बच्चों, उम्रदराज़ बूढ़ों और रोगप्रतिरोध की क्षीण क्षमता वाले लोगों में। O157:H7 के संक्रमण से रक्तमिश्रित अतिसार तो होता है, पर बुख़ार नहीं आता। उसका एक प्रकार ऐसा भी है, जिस के विष की बनावट हैज़ा (कॉलरा) के रोगाणु वाले विष से बहुत मिलती-जुलती है।
ख़तरनाक हैं मवेशियों वाले बैक्टीरिया : 'ईएचईसी' परिवार के कुछ बैक्टीरिया, वैसे, हमारी बड़ी आँत में भी हमेशा रहते हैं और भोजन की पाचनक्रिया में सहायक होते हैं। हमारे लिए ख़तरनाक हैं वे प्रकार, जो गायों-भैंसों और भेंड़-बकरियों जैसे पगुराने वाले मवेशियों के पेट में पलते हैं।
इन मवेशियों के मल या गोबर के साथ वे बाहर आते हैं। हमारे भीतर वे तब पहुँचते हैं, जब हम साफ़-सफ़ाई में लापरवाही से या अनजाने में ऐसा कोई फल-फूल, साग- सब्ज़ी या मांस खाते हैं, दूध या पानी पीते हैं, जो इन जानवरों के मल के संपर्क में आया था। कच्चा मांस या बिना उबला दूध भी संक्रमण का माध्यम बन सकता है।
खाने से पहले फलों और साग-सब्ज़ियों को अच्छी तरह धोने के साथ-साथ अपने हाथों को भी अच्छी तरह धोना और टिश्यू-पेपर जैसी ऐसी किसी चीज़ से पोंछना चाहिये, जिसे दुबारा इस्तेमाल नहीं किया जाता। कपड़े के तौलिये से पोंछने पर बैक्टीरिया उस पर चिपक कर लंबे समय तक ज़िंदा रह सकते हैं। जिस किसी ने अगली बार हाथ पोंछा, उसके माध्यम से वे अपने आप को आगे फैला सकते हैं।
पानी के प्रति भी सावधानी की ज़रूरत : मवेशियों के मल-मूत्र से प्रदूषित पानी को अनजाने में पीने या ऐसे पानी से नहाने पर भी अतिसार-जनक बैक्टीरिया हमारे शरीर में पहुँच सकते हैं। ऐसे ही संक्रमण के माध्यम से सन 2000 में कैनडा के वॉकर्टन नामक शहर में 2000 लोग बीमार पड़ गये थे और 18 को अपने प्राण गंवाने पड़े थे।
विशेषज्ञों का कहना है कि हमारे शरीर में यदि कुल क़रीब 100 'ईएचईसी' बैक्टीरिया भी पहुँच गये, तो फिर भगवान ही मालिक है।
जर्मनी का पहले भी पाला पड़ चुका है 'ईएचईसी' के सबसे जानलेवा रूप, यानी गुर्दों और तंत्रिकातंत्र को बेकार कर देने वाले 'ईएचईसी' बैक्टीरिया से-- जर्मनी का पहले भी पाला पड़ चुका है। 2001 में उसके 65, 2002 में 118 और 2003 में 82 मामले दर्ज किये गये थे। इस बैक्टीरिया के जीनोम में एक ऐसा जीन होता है, जो गुर्दों और तंत्रिकातंत्र को निष्क्रिय कर देने वाले 'शिगेला डिसेंटरी' के विष से मिलता-जुलता एक विष पैदा करता है। इस विष को 'शिगा-टॉक्सीन' या 'वेरो-टॉक्सीन' के नाम से जाना जात है। 'ईएचईसी' बैक्टीरिया एक और विष पैदा करता है, जो शरीर की रक्त-कोशिकाओं को मार डालता है।
'ईएचईसी' बैक्टीरिया के संक्रमण को तेज़ी से पहचानने की कोई कारगर विधि अब तक उपलब्ध नहीं थी। सौभाग्य से इस बार जर्मनी में म्युन्स्टर विश्वविद्यालय-अस्पाताल के दो शोधक एक ऐसा टेस्ट विकसित करने में सफल रहे हैं, जो रोगी या किसी सब्ज़ी से मिले बैक्टीरिया के पूरे जानोम का विश्लेषण कर कुछ ही घंटों में ठीक-ठीक बता सकता है कि वह इस समय तक ज्ञात ई.कोलाई वर्ग के 42 प्रकारों में से किस वंशक्रम का कौन-सा रूप है।
उनके टेस्ट से यह निश्चित हो सका कि जर्मनी में इस समय 'सीक्वेंसटाइप ST678' का ' HUSEC 41' बैक्टीरिया सक्रिय है, जिसे 'सेरोटाइप O104' के नाम से भी जाना जाता है। यह बैक्टीरिया 'बीटा-लैक्टामेज़' कहलाने वाले ऐसे कई प्रकार के एंज़ाइम पैदा करता है, जो पेनिसिलीन और सेफै़लोस्पोरीन जैसी एंटीबायॉटिक दवाओं को इस तरह खंडित कर सकते हैं कि उनका कोई असर ही न हो। य़ानी, वह एक ऐसा 'बहुप्रतिरोधी' (मल्टी- रेज़िस्टंट) बैक्टीरिया है, जिस पर बहुत-सी एंटीबायॉटिक दवाओं का शायद ही कोई असर होगा। यह जानकारी आघात पहुँचाने के साथ-साथ यह आशा भी जगाती है कि 'सेरोटाइप O104' की काट करने वाली कोई दवा भी जल्द ही विकसित की जा सकती है।
लक्षण और जटिलताएँ : डॉक्टरों का कहना है कि 'ईएचईसी' बैक्टीरिया का संक्रमण लगने के बाद बीमारी के प्रथम लक्षण दिखाई पड़ने में आम तौर पर तीन से चार दिन लगते हैं, पर कभी-कभी केवल दो से दस दिन तक भी लग सकते हैं। यह भी हो सकता है, कि कोई जाना-माना लक्षण दिखाई ही न पड़े। अधिकतर तीन से चार दिनों में पानी जैसे पतले दस्त होने लगते हैं। पेड़ में दर्द और मरोड़ महसूस होगा। उल्टी और मितली आयेगी। कुछ रोगियों को बुख़ार भी चढ़ सकता है और दस्त के साथ खून भी जा सकता है। खून और बुख़ार का मतलब है कि बीमारी ने वह गंभीर रूप ले लिया है, जिसे ''हीमोलाइटिक-यूरेमिक सिंड्रोम'' (HUS) कहा जाता है। यानी, बैक्टीरिया से निकला ज़हर आँत की भीतरी दीवार वाली कोषिकाओं को नष्ट करने के बाद रक्त-कोशिकाओं को मारने लगा है। इससे शरीर में रक्त की कमी होने लगेगी और तंत्रिकातंत्र (नर्वस-सिस्टम) शिथिल होने लगेगा। ज्ञानेंद्रियाँ ठीक से काम नहीं करेंगी। बेहोशी आ सकती है और अंततः मृत्यु हो सकती है।
उपचार : बैक्टीरिया-जनित बीमारियों का सामान्यतः एंटीबायॉटिक दवाओं से उपचार किया जाता है। लेकिन, 'ईएचईसी' संक्रमण के गंभीर रूप ले लेने पर अधिकांश एंटीबायॉटिक दवाओं से कोई लाभ नहीं होगा।बल्कि, इन दवाओं का उलटा असर हो सकता है। बैक्टीरिया उनकी काट करने वाले अपने विष का निर्माण बढ़ा देगा। इससे बीमारी और लंबी खिंच सकती है और शरीर में और अधिक ज़हर जमा होने लग सकता है। दस्त रोकने की कोई दवा भी कतई उचित नहीं है, क्योंकि बैक्टरिया जनित ज़हर का जो हिस्सा दस्त के साथ बह जाता है, वह भी शरीर में जमा होने लगेगा।
इसलिए, बीमारी का उपचार करने के बदले डॉक्टर उसके लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए विवश हो जाते हैं। वे सारा ध्यान शरीर में पानी और नमक जैसे तत्वों के आवश्यक स्तर को बनाये रखने पर केंद्रित करते हैं। दस्त के साथ जाने वाले रक्त की जगह लेने के लिए वे रोगी को अलग से ख़ून चढ़ाते हैं। रोगी के रक्त में बैक्टीरिया- जनित विष की मात्रा को यथासंभव घटाने के लिए वे मूत्र-विसर्जन बढ़ाने वाली दवा देने और रक्तशोधन के उपायों का सहारा लेते हैं। अस्पातालों में भर्ती रोगियों को सघन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) में रखा जाता है, ताकि उनकी सारे समय निगरानी हो सके और वे बाहरी लोगों के संपर्क से दूर रहें।
कहने की आवश्यकता नहीं कि 'ईएचईसी' अतिसार एक ऐसी ख़तरनाक और जटिल बीमारी है कि उस का शक होते ही सबसे पहले डॉक्टर के पास जाना चाहिये और अस्पताल में भर्ती होने के लिए भी तैयार रहना चाहिये। उसका कोई जाना-माना इलाज़ नहीं है और न ही कोई जानी-मानी दवा या टीका है।
बचाव ही सब कुछ है : उपाय है केवल बचने का। यदि यह बीमारी कभी भारत में भी पहुँची या स्वयं फैली, तो सबसे पहले बचाव के ही उपाय करने पड़ेंगे। यही, कि फलों और साग-सब्ज़ियों को साफ़ पानी से अच्छी तरह धोएँ। हाथ भी बार-बार धोएँ, हो सके तो कीटाणुनाशक दवा मिले पानी से। हाथ तौलिये के बदले टिश्यू-पेपर से पोंछ कर उसे तुरंत घर में रखे कूड़े के डिब्बे में डाल दें। पानी और दूध को कम से कम 60 डिग्री तक गरम करने का बाद ठंडा होने पर पियें। यथासंभव केवल अच्छी तरह पकाया जा सकने वला पका हुआ भोजन ही लें। बाहरी भोजन से बचें। जिन फलों और सब्ज़ियों को छीला जा सकता हो, उन्हें धोने के बाद छीलें। बर्तनों को भी साफ़ पानी से अच्छी तरह साफ़ करें और सुखाएं। घर में फ्रिज है, तो उसे अच्छी तरह पोंछ कर साफ़ करें।
जानवरों व उनके के मल-मूत्र से दूर रहें। ऐसे नदी-तालाबों या पोखरों में न तो नहाएँ और न हाथ-पैर या कपड़े धोएँ, जहाँ मवेशी भी आते-जाते या धोए-नहलाए जाते हैं। कच्चे पानी, कच्चे दूध और अधपके मांस से दूर रहें। किसानों को चाहिये कि वे खेतों पर कुछ समय के लिए जानवरों के मल-मूत्र वाली खाद का छिड़काव न करें। भारत में जो लोग अपने मवेशियों को अपने घरों में ही बाँधते-पालते हैं, उन्हें साफ़-सफ़ाई के नियमों का और भी कठोरता से पालन करना होगा।
आशा और कामना करनी चाहिये कि जर्मनी से चल कर यूरोप में फैल रहा 'ईएचईसी' अतिसार भी पक्षी-ज्वर (बर्डफ्लू) और सूअर- ज्वर (स्वाइन फ्लू) की तरह कुछ समय भभक कर अपने आप ठंडा पड़ जायेगा।