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Written By अनिरुद्ध जोशी
Last Updated : गुरुवार, 5 जनवरी 2023 (13:00 IST)

श्री सम्मेद शिखरजी तीर्थ की 10 बड़ी बातें

श्री सम्मेद शिखरजी तीर्थ की 10 बड़ी बातें | Sammed shikharji
जैन धर्म का पवित्र तीर्थ स्थल श्री सम्मेद शिखरजी को झारखंड सरकार ने पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की थी। विरोध होने के बाद झारखंड सरकार ने गेंद को केंद्र सरकार के पाले में डाल दिया है। अब झारखंड और केंद्र दोनों ही सरकारों का जैन समाज पुरजोर विरोध कर रहा है क्योंकि जैन समाज नहीं चाहता है कि इस तपोभूमि को पर्यटन स्थल बनाया जाए। जैन धर्म के अनुयायी चाहते हैं कि इसकी प्राकृतिकता बनी रहे क्योंकि यहां से करोड़ों मुनि मोक्ष गए हैं और यह एक तप स्थल है न कि पर्यटन स्थल। आओ जानते हैं सम्मेद शिखर तीर्थ के बारे में 10 बड़ी बातें।
 
1. कहां है यह तपो तीर्थ स्थल : यह भारतीय राज्य झारखंड में गिरिडीह जिले में छोटा नागपुर पठार पर स्थित एक पहाड़ पर स्थित है। इस पहाड़ को पार्श्वनाथ पर्वत कहा जाता है। गिरिडीह जिला मुख्यालय से 27 किलोमीटर दूर स्थित पारसनाथ पर्वत की भौगोलिक बनावट कटरा व वैष्णो देवी की याद दिला देता है।
 
2. सबसे बड़ा तीर्थ स्थल : जैन धर्म में सम्मेद शिखरजी को सबसे बड़ा तीर्थ स्थल माना जाता है, क्योंकि श्री सम्मेद शिखरजी के रूप में चर्चित इस पुण्य स्थल पर जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थंकरों (सर्वोच्च जैन गुरुओं) ने मोक्ष प्राप्त किया था। 
 
3. पार्श्‍वनाथजी का निर्वाण स्थल : यहीं पर 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने भी निर्वाण प्राप्त किया था। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर भगवान 'आदिनाथ' अर्थात भगवान ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर, 12वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने चंपापुर, 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ने गिरनार पर्वत और 24वें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया।
 
4. पार्श्‍वनाथजी का परिचय : इतिहासकारों के अनुसार भगवान पार्श्‍वनाथ का जन्म लगभग 872 ईसा पूर्व वाराणसी में पौष मास की दशमी को हुआ था। कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पूर्व अर्थात 777 ई. पूर्व हुआ था। भगवान महावीर इन्हीं के संप्रदाय से थे। पार्श्वनाथ संप्रदाय। भगवान पार्श्‍वनाथ के पिता वाराणसी (काशी) के राजा अश्‍वसेन थे और उनकी माता का नाम वामा था। इसीलिए उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। युवावस्था में कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती के साथ आपका विवाह हुआ। पार्श्वनाथजी तीस वर्ष की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए। पौष माह की कृष्ण एकादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें चैत्र कृष्ण चतुर्थी को सम्मेद पर्वत पर 'घातकी वृक्ष' के नीचे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई।
5. पारसनाथ पर्वत की वंदना : झारखंड का हिमालय कहे जाने वाले इस पर्वत, प्रकृति और मंदिरों तक पहुंचने वाले जैन धर्मावलंबियों के साथ-साथ अन्य तीर्थयात्री भी पारसनाथ पर्वत की वंदना करना जरूरी समझते हैं। यहां पर मधुबन बाजार स्थित है। जैन श्रद्धालु पर्वत की वंदना के लिए यहीं से चढ़ाई शुरू करते हैं। 
 
6. नौ किलोमीटर करना होती है कठिन यात्रा : पवित्र पर्वत के शिखर तक श्रद्धालु पैदल या डोली से जाते हैं। जंगलों व पहाड़ों के दुर्गम रास्तों से गुजरते हुए वे 9 किलोमीटर की यात्रा तयकर शिखर पर पहुंचते हैं। यहां भगवान पार्श्वनाथ व चंदा प्रभु के साथ सभी 24 तीर्थंकरों से जुड़े स्थलों के दर्शन के लिए 9 किलोमीटर चलना पड़ता है। इन स्थलों के दर्शन के बाद वापस मधुबन आने के लिए 9 किलोमीटर चलना पड़ता है। 
 
7. यात्रा को पूरा करने में लगते हैं 12 घंटे : पूरी प्रक्रिया में 10 से 12 घंटे का समय लगता है। रास्ते में भी कई भव्य व आकर्षक मंदिरों की श्रृंखलाएं देखने को मिलती हैं। मंदिर व धर्मशालाओं में की गई आकर्षक नक्काशी आगंतुकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।
 
8. ठहरने के स्थान : मधुबन में ठहरने के लिए दिगंबर व श्वेतांबर समाज की कोठियों के साथ भव्य व आकर्षक ठहराव स्थल भी हैं। 
 
9. कब होती है यात्रा आयोजित : वैसे तो यहां साल भर देश-विदेश से श्रद्धालुओं व सैलानियों का तांता लगा रहता है लेकिन यहां फागुन महोत्सव में यात्रियों की भीड़ देखते ही बनती है। इस महोत्सव में भाग लेने वाले लोग देश के कोने-कोने से पहुंचते हैं।
 
10. कैसे पहुंचे यहां : इस पवित्र नगरी तक पहुंचने के लिए लोग सड़क व रेलमार्ग का उपयोग किया जा सकता है। यहां पहुंचने के लिए आपको दिल्ली-हावड़ा ग्रैंड कॉर्ड रेल लाइन पर स्थित पारसनाथ रेलवे स्टेशन उतरना पड़ता है। स्टेशन से सम्मेद शिखर 22 किलोमीटर दूर है। यहां से शिखरजी जाने के लिए समय-समय पर छोटी गाड़ियां छूटती रहती हैं। गिरिडीह रेलवे स्टेशन व बस पड़ाव से भी शिखरजी जाने के लिए किराए पर छोटी गाड़ियाँ आसानी से मिल जाती हैं।