* लोकगीतों में झलकती संस्कृति का प्रतीक : होली
होली की एक अलग ही उमंग और मस्ती होती है, जो अनायास ही लोगों के दिलों में गुदगुदी व रोमांच भर देती है। खेतों में गेहूं-चने की फसल पकने लगती है। जंगलों में महुए की गंध मादकता भर देती है। कहीं आम की मंजरियों की महक वातावरण को बासंती हवा के साथ उल्लास भरती है, तो कहीं पलाश दिल को हर लेता है। ऐसे में फागुन मास की निराली हवा में लोक-संस्कृति परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति के सुसज्जित होकर चारों ओर मस्ती व भांग का आलम बिखेरती है जिससे लोग जिंदगी के दुख-दर्द भूलकर रंगों में डूब जाते हैं।
शीत ऋतु की विदाई एवं ग्रीष्म ऋतु के आगमन की संधि बेला में युगल मन प्रणय के मधुर सपने संजोए मौसम के साथ अजीब हिलौरे महसूस करता है। जब सभी के साथ ऐसा हो रहा हो तो यह कैसे हो सकता है कि ब्रज की होली को बिसराया जा सके?
हमारे देश के गांव-गांव में ढोलक पर थाप पड़ने लगती है, झांझों की झंकार खनखना उठती है और लोकगीतों के स्वर समूचे वातावरण को मादक बना देते हैं। आज भी ब्रज की तरह गांवों व शहरों के नर-नारी व बालक-वृद्ध सभी एकत्रित होकर खाते-पीते व गाते हैं और मस्ती में नाचते हैं।
राधा-कृष्ण की रासस्थली सहित चौरासी कोस की ब्रजभूमि के अपने तेवर होते हैं जिसकी झलक गीतों में इस तरह फूट पड़ते को आतुर है, जहां युवक-युवतियों में पारंपरिक प्रेमाकंठ के उदय होने की प्राचीन पराकाष्ठा परिष्कृत रूप से कूक उठती है-
आज विरज में होली रे रसिया
होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया
कहूं बहुत कहूं थोरी रे रसिया
आज विरज में होली रे रसिया।
नटखट कृष्ण होली में अपनी ही चलाते हैं। गोपियों का रास्ता रोके खड़े होना उनकी फितरत है, तभी जी भरकर फाग खेलने की उन जैसी उच्छृखंलता कहीं देखने को नहीं मिलती। उनकी करामाती हरकतों से गोपियां समर्पित हो जाती हैं और वे अपनी बेवशी घूंघट काढ़ने की शर्म-हया को बरकरार रखे मनमोहन के चितवन को एक नजर देखने की हसरत लिए जतलाती हैं कि सच, मैं अपने भाई की सौगंध खाकर कहती हूं कि मैं तुम्हें देखने से रही। इसलिए उलाहना करते हुए कहती हैं कि-
भावै तुम्हें सो करौ सोहि लालन
पाव पडौ जनि घूंघट टारौ
वीर की सौ तुम्हें देखि है कैसे
अबीर तो आंख बचाय के डारौ।
जब कभी होली खेलते हुए कान्हा कहीं छिप जाते हैं तब गोपियां व्याकुल हो उन्हें ढूंढती हैं। उनके लिए कृष्ण उस अमोल रत्न की तरह हैं, जो लाखों में एक होता है। वे कृष्ण के मन ही नहीं, अपितु अंगों की सहज संवेदनाओं से भी चिर-परिचित हैं तभी उनके अंग स्पर्श के अनुभव को तारण करते हुए उपमा देती हैं कि उनके अंग माखन की लुगदी से भी ज्यादा कोमल हैं-
अपने प्रभु को हम ढूंढ लियो
जैसे लाल अमोलक लाखन में
प्रभु के अंग की नरमी है जिती
नरमी नहीं ऐसी माखन में।
वे कृष्ण को एक नजरभर के लिए भी अपने से अलग रखने की कल्पना नहीं करतीं। यदि वे नजरों के आगे नहीं होते तो उस बिछोह तक को वे अपने कुल की मर्यादा पानी में मिलाकर पीने का मोह नहीं त्यागतीं। जब कृष्ण दो-चार दिन नहीं मिलते तो उस बिछुड़न की दशा में उनको होश भी नहीं रहता कि कब उनकी आंखों से बरसने वाले आंसुओं से शरीर धुल गया है-
मनमोहन सों बिछुरी जबसे
तन आंसुन सौ नित धोबति है
हरीचन्द्र जू प्रेम के फंद परी
कुल की कुल लाजहि खोवती है।
इस कारण सभी गोपियां मान-प्रतिष्ठा खोकर दुख उठाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। उन्हें भोजन में रुचि नहीं है बशर्ते कृष्ण ब्रजभूमि त्यागने को न कहे। ब्रजभूमि से इतना अधिक गहरा लगाव हो गया है, जैसे आशा का संबंध शरीर से एकाकार हो जाता है-
कहीं मान-प्रतिष्ठा मिले न मिले
अपमान गले में बंधवाना पड़े
अभिलाषा नहीं सुख की कुछ भी
दुख नित नवीन उठाना पड़े।
ब्रजभूमि के बाहर किंतु प्रभो
हमको कभी भूल के न जाना पड़े
जल-भोजन की परवाह नहीं
करके व्रत जीवन यूं ही बिताना पड़े।
फाग की घनी अंधेरी रात में श्याम का रंग उसमें मेल खाता है। गोपी उन्हें रंगने को दौड़ती हैं किंतु वे पहले ही सतर्क हैं और गोपियां अपने मनोरथ सिद्ध किए बिना कृष्ण के हाथों अपने वस्त्र ओढ़नी तक लुटा आती हैं-
फाग की रैनि अंधेरी गलि
जामें मेल भयो सखि श्याम छलि को
पकड़ बांह मेरी ओढ़नी छीनी।
गालन में मलि दयो रंग गुलाल को टीको
आयो हाथ न कन्हैया गयो न भयो
सखी हाय मनोरथ मेरे जीको।
कृष्ण पर रीझीं गोपियां अनेक अवसर खो बैठती हैं, तो कई पाती भी हैं। इधर कृष्ण गोपी को अकेला पाकर उस पर अपना अधिकार जताते हैं तो उधर गोपियां कृष्ण को गलियों में रोक गालियां गाते हुए तालियां बजाती पिचकारी से रंग देती हैं-
मैल में माई के गारी दई फिरि
तारी दई ओ दई ओ दई पिचकारी
त्यों पद्माकर मेलि मुढि इत
पाई अकेली करी अधिकारी।
फाग हो और बृजभान दुलारी न हो, ऐसा संभव नहीं। रंग, गुलाल व केसर लिए मधुवन में कृष्ण के मन विनोद हिलोर लेता है कि अब बृजभान ललि के साथ होली खेलने का आनंद रंग लाएगा-
हरि खेलत फाग मधुवन में
ले अबीर सुकेसरि रंग सनै
उत चाड भरी बृजभान सुता
उमंग्यों हरि के उत मोढ मनै।
होली खेलते समय कृष्ण लाल रंगमय हो जाते हैं। जागते हुए उनकी आंखें भी लाल हो गई हैं। नंदलाल लाल रंग से रंगे हैं। यहां तक कि पीत वस्त्र पीतांबर सहित मुकुट भी लाल हो गया है-
लाल ही लाल के लाल ही लोचन
लालन के मुख लाल ही पीरा
लाल हुई कटि काछनी लाल को
लाल के शीश पै लस्त ही चीरा।
मजाक की अति इससे कहीं दूसरी नहीं मिलेगी, जब गोपियां मिलकर कृष्ण को पकड़ उनके पीतांबर व काम्बलियां को उतारकर उन्हें साड़ी-झूमकी आदि पहना दे फिर पांव में महावर, आंखों में अंजन लगा गोपीस्वरूप बनाकर अपने झुंड में शामिल कर लें, तब होली का मजा दूना हुए बिना नहीं रह सकेगा-
छीन पीतांबर कारिया
पहनाई कसूरमर सुन्दर सारी
आंखन काजर पांव महावर
सावरौ नैनन खात हहारी।
कृष्ण इस रूप में अपने ग्वाल सखाओं के साथ हंसी-ठहाका करने में माहिर हैं। बृजभान ललि भीड़ का लाभ लेकर कृष्ण को घर के अंदर ले जाती हैं और नयनों को नचाते हुए मुस्कुराहटें बिखेरती हुई दोबारा होली खेलने का निमंत्रण इस तरह देती हैं-
फाग की भीर में पकड़ के हाथ
गोविंदहि ले गई भीतर गोरी
नैन नचाई कहीं मुसुकाइ के
लला फिर आईयों खेलन होरी।
होली के राग-रंग में कोई अधिक देर रूठा नहीं रहता। जल्दी ही एक-दूसरे को मनाने की पहल चल पड़ती है और फिर मिला-जुला प्रेम पाने की उम्मीद में सभी रंगों में खो जाते हैं। लक्ष्य और भावना के चरम आनंद की भाव-भंगिमा को आंखों में अंग-प्रत्यंग में व्यक्त किए पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह पर्व अनंतकाल से चला आ रहा है। कृष्ण, ब्रज को मन में बसाए एक महारास की निश्छल श्रद्धा को जीवंत रखने हेतु सभी को प्रेरित करता हुआ, आनंद की तरंगें फैलाता जीवन में रंग घोल जीने की कला लिए।