- डॉ. बानो सरताज
दिवाली के त्योहार को दीप पर्व अर्थात दीपों का त्योहार कहा जाता है। दिवाली के दीप जले तो समझो बच्चों के दिलों में फूल खिले, फुलझड़ियां छूटी और पटाखे उड़े... क्यों न हो ऐसा? ये सब त्योहार का हिस्सा हैं, आनंद का स्रोत हैं।
दीप पर्व अथवा दिवाली क्यों मनाई जाती है? इसके पीछे अलग-अलग कहानियां हैं, अलग-अलग परंपराएं हैं। कहते हैं कि जब भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या नगरी लौटे थे, तब उनकी प्रजा ने मकानों की सफाई की और दीप जलाकर उनका स्वागत किया।
दूसरी कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध करके प्रजा को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई तो द्वारका की प्रजा ने दीपक जलाकर उनको धन्यवाद दिया।
एक और परंपरा के अनुसार सतयुग में जब समुद्र मंथन हुआ तो धन्वंतरि और देवी लक्ष्मी के प्रकट होने पर दीप जलाकर आनंद व्यक्त किया गया।
जो भी कथा हो, ये बात निश्चित है कि दीपक आनंद प्रकट करने के लिए जलाए जाते हैं... खुशियां बांटने का काम करते हैं।
भारतीय संस्कृति में दीपक को सत्य और ज्ञान का द्योतक माना जाता है, क्योंकि वो स्वयं जलता है, पर दूसरों को प्रकाश देता है। दीपक की इसी विशेषता के कारण धार्मिक पुस्तकों में उसे ब्रह्मा स्वरूप माना जाता है।
ये भी कहा जाता है कि 'दीपदान' से शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। जहां सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच सकता है, वहां दीपक का प्रकाश पहुंच जाता है। दीपक को सूर्य का भाग 'सूर्यांश संभवो दीप:' कहा जाता है।
धार्मिक पुस्तक 'स्कंद पुराण' के अनुसार दीपक का जन्म यज्ञ से हुआ है। यज्ञ देवताओं और मनुष्य के मध्य संवाद साधने का माध्यम है। यज्ञ की अग्नि से जन्मे दीपक पूजा का महत्वपूर्ण भाग है।
आगे पढ़ें रोचक कहानी : दीपक न्यारे...
बच्चो, एक कहानी सुनो-
जब सूर्य का जन्म हुआ, तब उसने संपूर्ण दिवस संसार को अपने प्रकाश से आलोकित किया। जैसे-जैसे उसके अस्त होने का समय समीप आने लगा, उसे ये चिंता होने लगी कि अब क्या होगा? उसके अस्त होने के पश्चात दुनिया में अंधकार फैल जाएगा। कौन मानव के काम आएगा? कौन उन्हें रास्ता दिखाएगा?
सहसा एक आवाज आई- आप चिंतित न हों। मैं हूं ना! मैं एक छोटा-सा दीपक हूं, पर प्रात:काल तक अर्थात आपके उदय होने तक मैं अपने सामर्थ्यभर संसार को प्रकाश देने का प्रयत्न करूंगा।
सूर्य ने संतोष की सांस ली और अस्त हो गया।
दीपक का आरंभ कब हुआ? कहां हुआ? ये निश्चित रूप से कहना कठिन है। अनुमान है कि प्राचीन समय में जब मानव ने अग्नि की खोज की होगी, तभी दीपक अस्तित्व में आए होंगे।
आरंभ में घास-फूस को बांधकर जलाया गया और प्रकाश प्राप्त किया गया। आग जल जाती थी तो जली हुई रखी जाती। मशाल के रूप में ये दीपक थे,
जो प्रकाश देते थे।
पत्थर के युग में मानव ने प्रथमत: खोखले पत्थरों को दीपक की भांति उपयोग में लाना आरंभ किया। वृक्षों की पतली नर्म छाल को रस्सी की भांति बंटकर बाती बनाई जाती।
फिर मानव ने पत्थर और पत्थर की चट्टानों को खोदकर दीये बनाना आरंभ किया। गुफाओं में मूर्तियां एवं चित्र बनाने की प्रक्रिया में पत्थर के ये दीपक सहायक सिद्ध हुए। भारत में अजंता, एलोरा तथा अन्य स्थानों पर गुफाओं में कला के अद्वितीय प्रदर्शन में पत्थर के दीये काम आए।
फ्रांस में विजेरे (Vijere) नदी के किनारे की गुफाओं में पत्थर के दीये प्राप्त हुए हैं। पत्थर के दीयों के पश्चात सीप और शंख अस्तित्व में आए। दीपक का आकार बदलता रहा। वृक्ष की छाल बत्ती बनाकर प्रकाश देने का काम करती रही।
धीरे-धीरे मानव ने मिट्टी के दीपक बनाना सीख लिया। धीरे-धीरे जैतून, सरसों और शीशम का तेल उपयोग में लाया जाने लगा। सत्य तो ये है कि आज भी सर्वाधिक मिट्टी के दीपक ही प्रचलित हैं।
दीपक की यात्रा की अगली मंजिल थी धातु की खोज। सोना-चांदी, तांबा-पीतल आदि धातुओं को पिघलाकर विभिन्न आकारों के दीपक बनाए जाने लगे। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े (6-7 फुट ऊंचे) दीपक तैयार किए जाने लगे। उन्हें संभालने के लिए पीतल की मूठ लगाई जाती थी।
उस काल में बिजली नहीं थी। समृद्ध परिवारों में उपयोग किए जाने के लिए झाड़-फानूस तैयार हुए जिनमें एकसाथ कई-कई दीपक और मोमबत्तियां जलकर दिन के प्रकाश जैसा प्रकाश देते थे। धार्मिक स्थानों में भी फानूस लगाए जाते थे।
सुंदर नक्काशी वाले दीपक मंदिरों की छत में लगाए जाते थे। द्वार पर हाथी और शेरों की आकृति वाले दीपक दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी देखने को मिल जाते हैं।
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के दीयों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में रात्रि के समय जब घटोत्कच से युद्ध हुआ तो दुर्योधन ने सैनिकों को हाथों में जलते हुए दीपक रखने का निर्देश दिया था।
मथुरा, पाटलीपुत्र (पटना), टेक्सिला (तक्षशिला, पाकिस्तान में), अवंतिका (उज्जैन) आदि में खुदाई के दौरान मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए थे। टेक्सिला के दीपक कलाकारी के उत्तम नमूने थे। उनमें विशेष बात ये थी कि दीपक का निचला भाग ठंडा रखने के लिए उनमें पानी भरने का स्थान होता था।
हड़प्पा संस्कृति के दीपक बलोचिस्तान में मालनामी स्थान से प्राप्त हुए। वो मिट्टी से बने चौकोर दीपक थे। उनके चारों कोनों में बत्तियां रखने का स्थान था। मोहन-जोदड़ो में पाए गए दीपक गोलाकार थे। वहां मार्ग के दोनों ओर लगाए जाने वाले दीपक भी प्राप्त हुए थे।
भारत में यूनान देश के दीपकों से प्रभावित होकर नाव के आकार के दीपक भी बनाए गए। प्याले के आकार के दीपक तो 5वीं शताब्दी से पूर्व तक बनने लगे थे।
इनके अतिरिक्त मंदिर में आरती के समय उपयोग में आने वाले पंचमुखी और सप्तमुखी दीपक भी प्रचलन में थे। पूजा के समय दीपक 'अर्चना दीप' कहलाते थे।
शयनकक्ष में 'निशि दीपक' प्रयुक्त होते थे। बंदरगाहों में मार्ग दिखाने वाले 'आकाश दीप' नाम से जाने जाते थे। पेड़ों पर लटकाए जाने वाले दीपकों का 'वृक्ष दीप' नाम था। इनमें अनेक टहनियां होती थीं। प्रत्येक टहनी पर दीपक और ऊपर भाग में किसी देवी-देवता की मूर्ति (केवल सिर) होता था।
घर के त्योहारों में आटे के दीपक काम में लाए जाते थे। दूसरों की भलाई के लिए काम में लाए जाने वाले 'नंदा दीप' कहलाते थे। कल्हण की 'राज तरंगिणी' में धनिकों के घरों में मोती-माणिक के दीपक मणिदीप इस्तेमाल किए जाते थे। सुंदर स्त्रियों के रूप में दीपांगना अथवा दीपलक्ष्मी, ऐश्वर्य को दर्शाते थे।
भारत के विभिन्न राज्यों के दीपक अपनी अलग पहचान रखते हैं, जैसे व्याघ्र दीप (ओडिशा), राजलक्ष्मी दीप (बंगला), मयूर दीप (राजस्थान), कनक दीप (बिहार), नागदीप (महाराष्ट्र) बहुत प्रसिद्ध हैं।
भारत में पुणे (महाराष्ट्र) का केलकर संग्रहालय और ग्वालियर (मध्यप्रदेश) का प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम अपने दीपक संग्रह के लिए प्रसिद्ध है। महात्मा बुद्ध की माता श्री मायादेवी के शयनकक्ष में रखा रहने वाला लकड़ी के खंभे पर गांधार शैली में बना हुआ दीपक भारत का सबसे बड़ा दीपक है।
मिस्र देश के सम्राट क्लोरस के महल में एक इतना बड़ा दीपक था जिसका प्रकाश 200 मील तक जाता था। रोम के एक मकबरे (समाधि) से एक ऐसा दीपक प्राप्त हुआ, जो 2000 वर्षों से जल रहा था। मिस्र के पिरामिडों, रोम और ब्राजील के मकबरों, मैक्सिको की घाटियों, मैसापोटोमिया की पुरानी कब्रों के भीतर से जलते हुए दीपक प्राप्त हुए थे। कब्रों में मृत शरीरों के साथ जलते हुए दीपक रखे जाने के पीछे ये श्रद्धाभाव था कि मृत्यु के पश्चात आत्मा को अंधेरे में भटकना न पड़े।
उस काल में ऐसे प्रतिभाशाली रासायनिक वैज्ञानिक मौजूद थे जिन्होंने बिना ऑक्सीजन, बिना तेल के जलने वाले दीपक बनाए, जो वर्षों तक जलते रहे। आधुनिक वैज्ञानिक ये मानते हैं कि सोडियम एंटिमनी, सोना, पारा, प्लेटिनम और गंधक मिलाकर वो रसायन तैयार किया जाता था।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों ने इस संबंध में कई प्रयोग किए। उन्होंने मिथाइल, अल्कोहल और फॉस्फोरस सल्फाइड का मिश्रण तैयार करके दीपक में भरा, पर दीपक 3 महीने से अधिक न जल सका। उनके समस्त प्रयोग निष्फल हुए।
अब कुछ और आश्चर्यजनक दीपों की कहानियां सुनिए।
1804 में इटली के सिसली टापू के एक गांव में एक किसान के खेत में एक मकबरा मिला। मकबरे की छत और द्वार सीसा एवं अन्य धातुओं के मिश्रण से बंद किया हुआ था। जब छत छत तोड़ी गई तो सब ये देखकर स्तंभित रह गए कि मकबरा रोशन था। लाश के सिरहाने एक मर्तबान में रखा हुआ दीपक जल रहा था। कई लोग तो इसे भूतों की कारस्तानी समझकर भाग खड़े हुए। किसी ने साहस करके मर्तबान तोड़ डाला। मर्तबान के टूटते ही दीपक बुझ गया। मकबरों से मिले कागजों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि वह दीपक सैकड़ों वर्षों से जल रहा था।
इतिहासकार विलियम कामडेल ने मैसोपोटोमिया के एक मकबरे में पाए जाने वाले प्रज्वलित दीपक संबंधी जानकारी देते हुए लिखा- 'उस दीपक में तेल के स्थान पर पिघला हुआ सोना भरा था।'
इससे ये निष्कर्ष निकला कि प्राचीनकाल के रसायन शास्त्री सोने को एक ऐसे मिश्रण में परिवर्तित करने की कला से परिचित थे, जो वर्षों तक दीपक को प्रज्वलित रख सकता था।
इतिहासकार लायंस बैन ने अपनी पुस्तक मैक्सिको की संस्कृति में देवी के एक मंदिर में पाए जाने वाले दीपक के बारे में लिखा है- वह दीपक मिट्टी का बना हुआ था, जो आपस में जुड़े हुए दो बर्तनों में बंद था। एक बर्तन पर सोने की तो दूसरे पर चांदी की परत चढ़ी हुई थी। तेल के स्थान पर एक अपरिचित मिश्रण भरा हुआ था। उन बर्तनों पर लिखी हुई जानकारी से ज्ञात हुआ कि किसी राजा ने देवी आगस्टा को वो दीपक श्रद्धास्वरूप पेश किया था और जो वर्षों से रोशन था।
सेंट आगस्टाइन ने सौंदर्य की देवी वीनस के मंदिर में जलने वाले दीपक का उल्लेख किया है, जो न जाने कितने हजार वर्षों से जल रहा था।
साभार - देवपुत्र