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Written By आलोक मेहता

अंधकार से प्रकाश की ओर

Deepawali | अंधकार से प्रकाश की ओर
दीपावली पर इस वैदिक प्रार्थना को याद किया जाता है- "तमसो मा ज्योतिर्गमय"- अंधकार से प्रकाश की ओर चलो। इससे जुड़ी पंक्तियाँ हैं- अज्ञान से ज्ञान, असत्य से सत्य की ओर तथा जन्म और मृत्यु के चक्र से अमरत्व की ओर ले जाने की शक्ति मिले। इसलिए वेद, उपनिषद, धर्म और भारतीय संस्कृति की चर्चा करने वालों को असली परंपरा और आदर्श मूल्यों को समाज में रेखांकित करना चाहिए। वेदांत की अवधारणा में समस्त धर्मों और आध्यात्मिक मार्गों की तात्विक एकता अभिहित है।

भारतीय शास्त्रों और संस्कृति में अंतर्द्वंद्व और संघर्ष का उल्लेख बराबर होता है। यह संघर्ष हर काल में, हर व्यक्ति के जीवन में होता है लेकिन दूसरों से घृणा करने या उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं, वरन सबके कल्याण के लिए आवश्यक माना जाता है
उपनिषद में कहा गया है कि जिस तरह नदी-नाले विश्व के विभिन्न मार्गों से निकलते हैं लेकिन अंततः एक महासागर में जा मिलते हैं, उसी तरह सभी धर्म, संप्रदाय और धर्म सूत्र विभिन्न कालों एवं क्षेत्रों में उभरते हैं, फिर भी उनका लक्ष्य एक ही होता है। भारतीय दर्शन में घृणा और मतांधता का कोई स्थान नहीं रहा है। जब सर्वव्यापी ब्रह्म, समस्त जीवों में आत्मा, मानव जाति का एक परिवार तथा सभी धर्मों का एक मार्ग का ज्ञान वेदांत है, तब धर्म के नाम पर राजनीति, विद्वेष और हिंसा को बढ़ावा देना क्या महापाप और महाअज्ञान नहीं माना जाएगा?

भारत के तीज-त्योहार- दशहरा, दिवाली, छठ, होली, गणेश चतुर्थी, अनंत चतुर्दशी इत्यादि का असली मकसद सामाजिक-सांस्कृतिक सौहार्द रहा है। भक्ति का मुख्य केंद्र देवी रही हैं। हमारे विशाल देश के विभिन्न हिस्सों में असंख्य रूपों में देवी की पूजा होती है। विष्णु की सहचरी लक्ष्मी की पूजा दिवाली पर जितनी धूमधाम और कृतज्ञता की भावना से होती रही है, वह इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन काल से स्त्री का दर्जा सबसे ऊँचा और महत्वपूर्ण रहा है।

शिव के साथ पार्वती और कृष्ण के साथ राधा की अर्चना सैकड़ों वर्षों से होती रही है। वास्तव में यह शक्ति और सौंदर्य की पूजा है। लक्ष्मी के साथ सरस्वती की पूजा कला, काव्य और संगीत की देवी के नाते होती है। दुर्गा को शक्ति के रूप में पूजा जाता है। गणेश की पूजा विघ्न-बाधाओं को दूर करने के लिए होती है। लोग किसी भी देवी-देवता को पूजते हों, उनमें किसी तरह की ऊँच-नीच, परस्पर विरोध नहीं माना जाता। फिर समाज में ऊँच-नीच की कटुता क्यों है?

भारत की असली परंपरा में ईश्वर तथा ज्ञान के लिए किसी एक देवता-शिक्षक का एकमात्र अधिकार नहीं माना गया। उपनिषद में आत्मा को ही ब्रह्म माना गया। परिवर्तन के चक्र को अपरिहार्य माना गया है। कर्म को जीवन का असली मर्म स्वीकारा गया है। दिवाली को 'रामायण' में राम की अयोध्या वापसी के बाद मनाई गई खुशियों से जोड़ा गया है। रामायण और महाभारत ऐसे महाकाव्य हैं, जिनका भारत ही नहीं एशिया के बड़े हिस्से में प्रभाव रहा है। भगवद्-गीता में कर्म की महत्ता निरूपित की गई है।

ज्ञान आयोग बन रहे हैं, फिर भी अज्ञान का अँधेरा अधिक भयावह दिखने लगा है। आर्थिक विकास हो रहा है लेकिन लक्ष्मी-पूजा के बाद संपूर्ण समाज की सुख-शांति, गरीबों को प्रसाद की तरह सहायता और दान-पुण्य की भावना लगभग विलुप्त हो रही है
कश्मीर से केरल तक, गुजरात से असम तक विविधताओं के बावजूद संस्कृति एक ही है। भारत की असली पहचान, शक्ति और रोशनी यही है, इसलिए भारतीय पर्व-त्योहार को केवल धूमधाम और पूजा-पाठ के रूप में सीमित नहीं समझा जाना चाहिए। अंधकार दूर करने के लिए दिवाली पर दीपक जलाने मात्र से कोई लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। अंधकार अशिक्षा का है, अंधकार गरीबी का है, अंधकार कुपोषण और भुखमरी का है। दरिद्रता और अशिक्षा को दूर किए बिना देश में असली उजाला कैसे हो सकता है? देवी शक्ति की पूजा या शस्त्र-पूजा करके हथियार और परमाणु प्रक्षेपास्त्र जुटाने से भारत शक्तिशाली नहीं होगा। भारत गरीब, पिछड़े, कमजोर नागरिकों को स्वस्थ और सशक्त बनाने से सही अर्थों में महाशक्ति बन सकता है।

दिवाली-होली जैसे त्योहार में जाति या धर्म आड़े नहीं आता वरन उस दिन सारे भेदभाव दूर हो जाने की परंपरा है। उत्तर भारत- खासकर बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश में दिवाली के बाद मनने वाले छठ पर्व में सामाजिक-सांस्कृतिक सद्भावना तथा एकता का संदेश निहित होता है, लेकिन अमृत के साथ जहर की तरह ऐसा क्या है कि इन त्योहारों के बाद वही जातिगत कटुता और संघर्ष सड़कों पर दिखने लगता है। कोई पूजा-अर्चना-प्रार्थना क्या केवल दिखावटी हो सकती है? भारतीय शास्त्रों और संस्कृति में अंतर्द्वंद्व और संघर्ष का उल्लेख बराबर होता है। यह संघर्ष हर काल में, हर व्यक्ति के जीवन में होता है लेकिन दूसरों से घृणा करने या उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं, वरन सबके कल्याण के लिए आवश्यक माना जाता है।

दिवाली के पर्व को प्रकृति से भी जोड़ा गया है। आजकल भारी आतिशबाजी से प्रदूषण होने लगा है अन्यथा पर्यावरण संरक्षण का संदेश इस पर्व के साथ जुड़ा हुआ है । पेड़, फल-फूल, जल, सूर्य, चन्द्र की महत्ता इस पर्व के साथ जुड़ी हुई है। अथर्ववेद में पृथ्वी और विकास की प्रक्रिया को ही मनुष्य के जीवन से जोड़कर महत्वपूर्ण माना गया है। वेद के सूत्रों में कहा गया है- 'पृथ्वी, जिसमें बसे हैं सागर-नदी और अन्य जल भंडार, जिसमें अन्ना और धान्य के खेत हैं, जिसमें जीते हैं चराचर सभी, वही भूमि हमको दे अपने अपूर्व फल। पृथ्वी जो जाए हैं तुम्हारे- वे हों रोगमुक्त और शोकमुक्त'।

प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और विनाश का अर्थ ही मानव जाति का विनाश है। हिन्दू, जैन, बौद्ध धर्मों का पूरा दर्शन अहिंसा पर आधारित है । वनों और कुंजों को पवित्र माना गया है। मानव जाति के साथ पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों, पेड़-पौधों के संरक्षण की बात को सर्वाधिक महत्व दिया गया है लेकिन भारत में प्रगति के साथ ये मूलभूत आदर्श जीवन मूल्य भुलाए जा रहे हैं।

ज्ञान आयोग बन रहे हैं, फिर भी अज्ञान का अँधेरा अधिक भयावह दिखने लगा है। आर्थिक विकास हो रहा है लेकिन लक्ष्मी-पूजा के बाद संपूर्ण समाज की सुख-शांति, गरीबों को प्रसाद की तरह सहायता और दान-पुण्य की भावना लगभग विलुप्त हो रही है। इसलिए दिवाली पर दीपक जलाने के साथ अपने अंदर के कलुष को मिटाने का संकल्प पहले लेना होगा।