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घटते कर्ज, सुस्त अर्थव्यवस्था और आंकड़ों से उपचार?

घटते कर्ज, सुस्त अर्थव्यवस्था और आंकड़ों से उपचार? - Notebandi Economy Indian Economy
भूपेन्द्र गुप्ता 
आंकड़ों की खेती से दिलासा तो मिलती है और बोझ से लदा व्यक्ति एकाध कदम और पहाड़ चढ़ जाता है, किंतु रोज-रोज केवल दिलासा देकर ऐसा नहीं किया जा सकता। उसकी पीठ पर वजन में कमी करके ही अब उसे और चढ़ाया जा सकता है। बताया जा रहा है कि देश 7 प्रतिशत की रफ़्तार से तरक्की कर रहा है और सिद्ध किया जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी जैसे क़दमों का कोई प्रतिगामी असर नहीं हुआ है।
 
ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीतिक प्रणाली शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह डालकर तूफान के आने से इंकार करने और आत्ममुग्धता को बनाए रखने में ही अधिक विश्वास करती है, क्योंकि प्रत्येक दूसरे आर्थिक सूचकांक किसी अराजक समय का संकेत करते हैं।
 
भारत के रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि नोटबंदी के बाद देश में 63 सालों की सबसे कम क्रेडिट ग्रोथ यानी ऋण अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है। बैंकों में जमा तेज़ी से बढ गए हैं और ऋण लेने में लोगों की या तो अरुचि है या फिर आर्थिक गतिविधियां इतनी सुस्त हो गई हैं कि ऋण लेने की आवश्यकता ही नहीं है, जिसका अर्थ है कि बाज़ार में और बैंकों में तरलता बढ़ रही है।
 
रिपोर्ट बताती है कि देश में 1953-54 में क़र्ज़ वृद्धि का आंकड़ा सबसे कम यानी 1.7 प्रतिशत था, जबकि 2016-17 में यही वृद्धि 15-16 के 10.69 प्रतिशत से घटकर 5.08 प्रतिशत ही रह गई है जो कि 1953 के बाद सबसे कम बताई गई है। ये आंकड़े इसलिए चिंताजनक हैं क्योंकि एक तरफ तो जीडीपी में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर बताई जा रही है, कर्जों को सस्ता बताया जा रहा है और फिर भी लोग कर्जा उठाने तैयार नहीं हैं। यह विरोधाभास ही भारत की अर्थव्यवस्था के लिए चिंताजनक समझा जा रहा है।
 
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि दिसंबर 2016 तक देश के 40 प्रतिशत बड़े कर्जदारों का ही 29 प्रतिशत कर्जा एनपीए हो गया है जो लगभग 3.16 लाख करोड़ है। रेटिंग एजेंसी इक्रा के अनुसार मात्र अक्टूबर-दिसंबर 2016 से जनवरी-मार्च 2017 में एनपीए सृजन में वृद्धि 4.1 प्रतिशत के मुकाबले 10.7 प्रतिशत हो गई है। यही समयकाल नोटबंदी का है यानी नोटबंदी के कारण मात्र 6 महीने में ही एनपीए में लगभग 161 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। क्या ऐसे सूचकांकों की उपेक्षा की जा सकती है? बैंकों में जमा हो रहे धन में लगातार वृद्धि हो रही है। 1 अप्रैल 2016 को बैंकों में कुल जमा 96.68 लाख करोड़ थी, जो 31 मार्च 2017 में बढ़कर 108.05 लाख करोड़ हो गई है यानी लगभग 11.75 प्रतिशत की दर से जमा में वृद्धि हो रही है और कर्जे बांटने में लगभग 5.7 प्रतिशत की कमी हो रही है जिसका अर्थ है कि बैंकों के लाभ घटेंगे और वर्तमान में लगभग 14 लाख करोड़ के कुल (ग्रॉस) एनपीए से जूझ रहे बैंक लड़खड़ा जाएंगे?
सभी जानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि रोजगार सृजन में यह सर्वाधिक योगदान करने वाला क्षेत्र है यह क्षेत्र जितना मजबूत होता है उतना आर्थिक पलायन कम होता है और स्थानीय रोजगार उपलब्ध होते हैं किंतु इस अर्थव्यवस्था पर भी संकट के बादल हैं जिसका असर देश के साथ साथ राज्यों की कृषि अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश के आंकड़े ही कम चौंकाने वाले नहीं हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहां पर स्वयं सरकार यह बताती है कि कृषि क्षेत्र में 25 प्रतिशत की रफ़्तार से वृद्धि हो रही है और संभवतः विश्व में सबसे तेज रफ़्तार से उसके जीडीपी में वृद्धि हो रही है तब गत साल के आंकड़े हैरान कर देने के लिए काफी हैं।
 
मध्यप्रदेश में सहकारी बैंकों के ऋण जो ज्यादातर कृषि क्षेत्र में दिए जाते हैं, में ही 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। जहां सहकारी बेंकों ने 2015-16 में 13900 करोड़ के ऋण वितरित किए थे, वहीं 2016-17 में यह घटकर मात्र 11400 करोड़ रह गया है जबकि 15 हजार करोड़ का लक्ष्य सरकार ने रखा था। क्या ये आंकड़े चिंताजनक नहीं हैं? क्या 25 प्रतिशत की रफ़्तार से कृषि वृद्धि करने वाले राज्य में कृषि कर्जों में लगभग 2500 करोड़ की कमी समीक्षा की अपरिहार्यता सिद्ध नहीं करती, जबकि राज्य शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण देने का ढिंढोरा पीट रहा है। विशेषज्ञ बताते हैं कि नोटबंदी के कारण तथा समय पर नाबार्ड की पुनर्वित्त सीमा न मिल पाने के कारण मध्यप्रदेश के सहकारी बैंकों ने अप्रैल से अगस्त के बीच में बहुत कम ऋण वितरित किया तब फिर कृषि वृद्धि दर के आंकड़े किन खेतों में उगाए गए हैं यह भी गहन समीक्षा का विषय होना चाहिए?
 
आंकड़ों की खेती करती सरकारें भले इन चिंताजनक सूचकांकों की उपेक्षा करने की कोशिश करें, किंतु यह स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को कुशल चिकित्सक की आवश्यकता है। इसे झोलाछाप विशेषज्ञता से ठीक नहीं किया जा सकता। आंकड़ों की खेती जनता को कुछ समय के लिए दिलासा का काम जरूर कर सकती है, किंतु अर्थव्यवस्था में लगे घुन को ठीक नहीं कर सकती। जरूरी है कि सरकारें चेतें और घुन का उपचार करें और उसके लिए योग्य चिकित्सकों की तलाश करें।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक एवं कांग्रेस विचार विभाग के प्रदेश अध्यक्ष हैं)
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